Quantcast
Channel: छोटीगली... Chhotigali
Viewing all 59 articles
Browse latest View live

यूपीए-दो कैबिनेट में फेरबदल, महिलाएं 'वीक जेंडर'

$
0
0
मनमोहन सरकार ने अपने मंत्रिमंडल में फेरबदल तो काफी किया, लेकिन यह कवायदसिर्फ बदलाव का ढिंढोरा पीटने जैसा ही है. सबसे ताज्जुब इस बात से होती हैकी जिस यूपीए सरकार की चेयरपर्सन और कांग्रेस की अध्यक्ष एक महिला सोनियागाँधी हों, उसके बावजूद एक भी महिला का कैबिनेट में शामिल न किया जानाहैरान करता है. यहाँ तक की एक भी महिला मंत्री को प्रमोट करके भी कैबिनेटका दर्ज़ा नहीं दिया गया.बात हम चाहे कुछ भी कहें या फिरकोई भी तर्क दें सब महज बहाना ही माना जायेगा. हकीक़त तो यही है कि मनमोहनसरकार की खास और थोड़े शक्तिशाली विभाग में महिलाओं को बहुत कम हीप्रतिनिधित्व मिला है. 78 मंत्रियों वाली कैबिनेट में महजआठ महिला मंत्री यानी सिर्फ दस फीसदी. जब महज दस फीसदी जगह मंत्रिमंडल मेंदेने में इतना आनाकानी और जोड़ घटाव देखने में मिल रहा है तो संसद में ३३फीसदी की भागीदारी की बात बेमानी ही लगती है.  कैबिनेट में जिनमहिला मत्रियों को ज़िम्मेदारी दीगयीहै, उन मंत्रालयों की कुछ ख़ास अहमियत नहीं है.मसलन, ममता बनर्जी को रेलमंत्रालय, अम्बिका सोनी को सूचना और प्रसारण और कुमारी सेलजा को आवास, शहरी गरबी उन्मूलन एवं संस्कृति मंत्रालय का ज़िम्मा सौंपा गया है.कृष्णतीरथ अकेली राज्य मंत्री हैं जिन्हें स्वतंत्र प्रभार दिया गया है. उनकोमहिला और बल विकास मंत्रालय का ज़िम्मा सौंपा गया है. हालाँकि, कई महिलाओंका नाम सामने है और इनको मौका दिया जा सकता था. मसलनमहिला आयोग कीअध्यक्ष गिरिजा व्यास, मीनाक्षी नटराजन, जयन्ती नटराजन आदि.

देशद्रोही बाहर और बिनायक सेन जेल में

$
0
0
'राज्य' यानी स्टेट सबसे बड़ा गुंडा और अपराधी है। यह सिर्फ मेरा ही नहीं आम लोगों का भी मानना है। ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं जो सरकार को सबसे बड़ा अपराधी मानते हैं। जब बात बिनायक सेन की आती है तो यही ख्याल मेरे जेहन में आता है। बिनायक सेन को जेल और जनता का ख़ून चूसकर मलाई खाने वाले नेताओं को ऐय्याशी की तमाम सुविधाएं। बिनायक की घटना से दिल कांप उठता है। एक पल को तो लगता है कि हम अब भी पाषाण युग में जी रहे हैं, जहां जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो रही है। बिनायक सेन पर मामला माओवादियों से साठगांठ का है। यह सिर्फ सरकार ही मानती है। देश की जो सिविल सोसायटी है वह बिनायक के साथ है। फिर भी बिनायक पर शिकंजा कसा हुआ है। जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज तक कहें कि बिनायक सेन को सजा दी गई है वह न्याय की हद है। मतलब एकबार फिर वही बात साबित होती है। सरकार के सामने सब बेबस। निरंकुश सरकार की तानाशाही। अब वक्त आ गया है कि कानून की आड़ में जो सरकार जो काली करतूत करती है उसका पोल खोल किया जाए। नहीं तो इसी तरह जनता का सारा धन स्विस बैंक पहुंचता रहेगा और हमारे ग़रीब भाई भूख और महंगाई की मौत मरते रहेंगे। महंगाई जब ख़ुद सरकार के नियंत्रण से बाहर हो गई है । उस पर उसका कुछ वश नहीं चल रहा है तो प्रधानमंत्री तक अनाप शनाप बयान देते घूम रहे हैं। मनमोहन सिंह ने हाल में मंहगाई की अजीब वजह बताई है। उन्होंने कहा है कि भारत के ग़रीब पहले की अपेक्षा अधिक खाने लगे हैं। नतीजतन ज़रूरी चीज़ों की क़ीमतों में इजाफ़ा हुआ है। इस बचकाने बयान की उम्मीद कम से कम उस शख्स से तो नहीं ही की जा रही थी, जिसने नई आर्थिक नीति -नव उदारवाद को भारत में जन्म दिया। एक अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री यदि ऐसी बातें करें तो समझ लेना चाहिए मानसिक संतुलन कुछ ठीक नहीं है। सही मायनों में इस तरह का बयान भेदभाव और देश विरोधी बयान है। देशद्रोही वो हैं, जो एक राज्य से दूसरे राज्यों में आए लोगों को समस्या की जड़ बताते हैं। कहीं अपराध होता है तो गृहमंत्री से लेकर वहां के मुख्यमंत्री तक मुंह ले के घूमते रहते हैं। अपनी नाकामी ठीकरा अप्रवासी लोगों पर पर ठहराते हैं। तो क्या यह हिंदुस्तान एक नहीं है। देश के अट्ठाइस राज्य और सात केंद्र शासित प्रदेश उस राज्य के लोगों के लिए ही हैं। ऐसे में कोई ऐसा कहे तो कहे लेकिन हमारा संविधान ऐसी बात कभी नहीं कहता। और जो संविधान के ख़िलाफ़ जाकर इस तरह का बयान देता है, सही मायनों में वह देशद्रोही है। लेकिन इन लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं होती। क्यों? तो भई ये सभी बयान नेता लोग देते हैं। और नेता कुछ भी बोलें करें...वो तो खुद को कानून से ऊपर की चीज़ मानते हैं। लेकिन उनके ख़िलाफ कोई कुछ भी कहे या फिर उनको जिससे भी डर लगता है उसे कानून का ककहरा पढ़ा दिया जाता है। जैसा कि बिनायक सेन के साथ हुआ। ग़रीब आदिवासियों के हितैषी को माओवादी बताना कितना हास्यास्पद लगता है। यह तो एक छोटा सा नमूना है। मसला चाहे सोहराबुद्दीन फर्जी एनकाउंटर का हो या बिनायक को जेल में बंद करने का सारे मामले सरकार के खिलाफ है। अलग-अलग पार्टियां पावर के लिए अलग-अलग बात कहेंगी। कभी हमारे साथ तो कभी हमारे खिलाफ। उनका सीधा वास्ता वोट से होता है। अब वक्त आ गया है कि सभी एक हो और क्रांति की मशाल थामनी होगी। नहीं तो आज बिनायक, कल आपकी और परसों मेरी बारी होगी। एक-एक कर सभी इसी तरह मारे जाएंगे। इंकलाब ज़िंदाबाद........

पुरस्कारों के लिए बनाई गयी फ़िल्म धोबी घाट

$
0
0
आमिर खान की फ़िल्म धोबी घाट. आमिर की पत्नी किरण राव निर्देशित है यह फ़िल्म. यानी आमिर के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी. फ़िल्म का प्रोमो देखकर लगा बेहतरीन फ़िल्म होगी. लेकिन देखने के बात लगा पता नहीं फ़िल्म क्या बताना चाहती है. चार निराश, हताश और कुंठित लोगों की कहानी है. वह भी अनमने ढंग से कही गयी. फ़िल्म शुरू होती है और ख़त्म हो जाती और आप जब फ़िल्म देख बहार निकलते हैं तो ठगा सा महसूस करते हैं. शायद यह खास वर्ग के लोगों के लिए फ़िल्म बनाई गयी है. किरण राव भी यही मानती हैं. हालाँकि उनका यह भी कहना है कि अब आमिर खान प्रोडक्शन पर बेहतर फिल्मों को लेकर काफी दबाव होता है. लोग उम्मीद अधिक करने लगे हैं. धोबी-घाट की कहानी काफ़ी अलग किस्म की है और उसे दूसरी फ़िल्मों की तुलना में काफ़ी अलग अंदाज़ में पेश भी किया गया है. मुंबई पर गढ़ी गयी ये फिल्म एक डाक्यूमेंट्री है। जिसमें हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करता एक शख्स मौजूद है। इस फिल्म में इंसान को प्यार भी मिलता है तो उसे दर्द भी नसीब होता है, कहीं फटकार मिलती है तो कही सहारा भी। बस इंसानी जज्बात और भावनाओं की कहानी है धोबी घाट जिसे संजीदा बनाने की भरपूर कोशिश की गयी है. कहना गलत नहीं होगा कि धोबी-घाट एक मास फिल्म नहीं बल्कि एक क्लास फिल्म हैं। जिसे शायद लोगों के मनोरंजन के लिए नहीं बल्कि, पुरस्कार जीतने के लिए बनाया गया है. यह फिल्म में मुंबई पर लिखे गए कुछ फुटकर नोट जैसी है। जिसे हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से लेने के लिए स्वतंत्र है। कहानी कुछ ऐसा है कि महानगर में मौजूद हर वर्ग का आदमी किसी ना किसी कहानी में अपना अक्स तलाश लेगा। फिल्म में मसाला, भावुकता, प्यार एक भी ऐसा तत्व नहीं है जो आपको फिल्म में रोके रखने के लिए या आपको अच्छा लगाने के लिए या सहज महसूस कराने के लिए डाला गया हो। कुल मिलकर कहा जाये तो यह फ़िल्म एक प्रयोग है...

ठिठुरता गणतंत्र और परसाईजी

$
0
0

पिछले दिनों दिल्ली में ठंड काफी बढ़ गई थी। लगभग पांच या छह वर्षों बाद इतनी सर्दी पड़ी है।  सर्दी और गणतंत्र दिवस का बड़ा गहरा नाता है। गणतंत्र दिवस के साथ मुझे याद आ रहे हैं, मेरे प्रिय व्यंग्य साहित्यकार परसाई जी। हरिशंकर परसाई। जितने याद परसाई जी आ रहे हैं, उतना ही उनकी रचना ठिठुरता गणतंत्र भी। वह दिल्ली में चार बार गणतंत्र दिवस का जलसा देख चुके हैं। लेकिन पांचवी बार का साहस नहीं जुटा पाए। पर, उनकी चिंता इस अवसर पर ही घिसी-पिटी बातें नहीं, जो देश के नाम संबोधन में किया जाता है। दरअसल, वह भी मौसम की मार से परेशान हैं। पता नहीं क्यों हर साल छब्बीस जनवरी को आसमान में बादल छा जाते हैं, बूंदा-बांदी होने लगती है और सूरज कहीं छुप जाता है। बकौल परसाई जी, जिस तरह दिल्ली की अपनी अर्थ नीति नहीं है, ठीक उसी तरह अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति डॉलर, पौंड, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष या विदेशी सहायता से तय होता है, उसी तरह  दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि से तय करते हैं। लेकिन लगता है इस बार उन्हें फिर गणतंत्र दिवस का मौका मिले, क्योंकि इस बार बादल नहीं और सूरज खिल के निकल रहा है। शायद वैश्विक आर्थिक मंदी और मंहगाई आदि ने दिल्ली की अर्थनीति आदि को कुछ पल के लिए समान कर दिया है।
हरबार गणतंत्र दिवस पर मौसम खऱाब होने से परसाई जी थोड़े नाराज़ हो जाते हैं। इस बाबत वह कांग्रेसी से भिड़ पड़ते हैं। वह पूछते हैं क्या बात है कि हर छब्बीस जनवरी पर सूरज छिप जाता है। कांग्रेसी उन्हें जवाब देता है, मुझे तो लगता है कि इस बार पाकिस्तान कोई बड़ी साज़िश रच रहा है या फिर चीन कृत्रिम बारिश करा सकता है तो संभवतः इस बार वह भारत में सूरज को उगने ही नहीं देना चाहता है। मुमकिन है ये दोनों हमारे पड़ोसी किसी बड़ी साज़िश में लगे हैं और हमारी ख़ुफ़िया एजेंसी को भी इसकी भनक नहीं लगी। चूंकि वह कांग्रेसी गृह मंत्रालय में मंत्री थे सो कहा कि हमने सारा दोष राज्यों पर मढ़ दिया है कि प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्रों में सूरज के न उगने का पता लगाएं। इसके लिए उच्च स्तरीय जांच बिठाएं हो सके तो जेपीसी की मदद भी ली जाए। इस बीच, बंगाल से ख़बर आई कि वहां सूरज ठीक से उगा। बंगाल के मुख्यमंत्री ने जांच में शामिल होने या किसी तरह की मदद से मना कर दिया और गृहमंत्री की बैठक में शामिल होने से भी इंकार कर दिया।
परसाई जी यहीं नहीं रूके। उन्हें गणतंत्र दिवस की झांकी बहुत पसंद थी। वह इन झांकियों में अद्भुत चीज़ खोज निकाले थे। उनके हिसाब से हर राज्य की झांकियां अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। जैसे 2002 और 2003 की झांकियों में वह बड़े उत्साह से गुजरात की झांकियों को देखने पहुंचे थे कि उसमें दंगों को दिखाया जाएगा, लेकिन निराशा हाथ लगी। आंध्र में हरिजन को जलाता हुआ दिखाया जाएगा वह भी नदारद। इस साल उन्हें उम्मीद है कि राष्ट्रमंडल खेलों में घपले, टू जी स्पेक्ट्रम सहित उत्तर प्रदेश में अनाज घोटाला आदि को दिखाया जाएगा। लेकिन लगता है जिस तरह कांग्रेस इन घपलों को ढकने में लगी है, उससे तो इसबार भी उनकी उम्मीद अधूरी ही रहने वाली है। भारत में पिछले साल घोटालेबाजों और भ्रष्टाचारियों का बोलबाला रहा और परसाई के साथ आम जनता को भी उम्मीद है कि इस बार के छब्बीस जनवरी के परेड में उन्हें कुछ इसी तरह की झलकियां दिखाई जाएंगी। लेकिन, लगता है इस ठिठुरती ठंड में लोगों को यह सब देखने का मौक़ा न मिले। और लगता है परसाई जी भी अपने पहले के अनुभवों से सीख लेते हुए गणतंत्र दिवस नहीं देखने जाना चाहते। क्योंकि जो इस साल हुआ व तो झांकी में दिखाया जाएगा ही नहीं तो नकली भारत की तस्वीर क्या देखें। घर बैठे ही आईपीएल और बिग-ब़स की पुरानी झलकी देख के दिल बहलाएंगे।

महिलाओं से वाकई अलग होते हैं पुरुष

$
0
0
आज फिर से लेखनी चलाने का मन कर रहा है. वो भी हथियार की तरह की कुछ असर हो. सोचा था अब नहीं लिखूंगा. वजह जब कुछ कहने से आपकी बात का कोई असर ही न हो, किसी को कोई फर्क ही न पड़े तो कागज़ काला करने से फायदा क्या? लेकिन महिला दिवस के अवसर पर जो हुआ और उस खास दिन के अलावा भी जो वारदात महिलाओं के साथ आये दिन हो रहा है, उससे रहा नहीं गया. अब भी जनता हूँ कुछ खास असर नहीं पड़ेगा. पुरुषवादी समाज में महिलाओं को दोयम दर्जे का समझा जाना अब भी जारी है. भले ही महिलएं घर की देहरी से बहार आ चुकी हों या पुरुषों को हर क्षेत्र में चुनौती दे रही हों फिर भी उनको बराबरी का दर्ज़ा देने को हम पुरुष दिल से रजामंद नहीं हैं. आरक्षण के मसले पर उनको ३३ फीसदी भी नहीं देना चाहते. कहते हैं, इससे हमारा हक मारा जायेगा. पता नहीं ये कैसा हक है जो मारा जायेगा. सदियों से हम उनका हक मार रहे हैं और बातें करते हैं अपने हक की. अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर राजधानी दिल्ली में एक लड़की को सरेआम गोली मरना क्या यह हमारा हक है? मैंने आज तक कभी नहीं सुना, इस तरह के मामले में एक लड़की ने लड़के को गोली मारी हो. लेकिन पुरुषों द्वारा इस तरह या इससे भी बदतर अपराध को अंजाम देना बदस्तूर जारी है., अगर मान भी ले, अपवाद के तौर पर एक दो मामला महिलाओं के भी अपराध के सामने आते हैं तो क्या हम इसे जस्टिफाई करेंगे या फिर अपनी ज़िम्मेदारी समझेंगे, आखिर ऐसा क्यों हो रहा है. फिलहाल तो मामला बेहद संगीन है. सबसे ज्यादा संकीर्ण सोच तो पढ़े लिखे और उच्च वर्ग के लोग ही रखते हैं. इनकी नज़रों में महिलाएं महज उपभोग की वास्तु के अलावा कुछ नहीं. यदि एक मिसाल दूं तो...मैं दिल्ली विश्वविद्यालय से law  कर रहा हूँ...महिला दिवस के अवसर पर ही मेरे साथियों से बात हुयी...इन सभी का मानना था की महिलाओं को जितना आरक्षण मिल रहा है वे उतना ही पुरुषों के सर पर चढ़ रही हैं. एक तो मेट्रो की सबसे आगे वाली बोगी में आरक्षण और उसके बाद भी वे आम बोगी में चढ़ जाती हैं. इस बात से मेरे कुछ मित्रों को काफी तकलीफ हुयी.  भला उन्हें इतना फायदा क्यों. हालाँकि, सभी का ऐसा नहिन्मानन था पर मेरी समस्या ये है की ऐसा ख्याल रखने वाले जो मेरे सहपाठी थे वो बचपन से ही हाई-फाई माहौल में पले-बढे तो मैंने सोचा सोच भी इनकी ढंग  की होगी. पर, अपवाद से मैं इनकार नहीं कर रहा है. पर, अपवाद अपवाद ही होता है. यहाँ हम बात पूरी महिला जाति की बात कर रहे हैं, नहीं तो महिलाओं में भी दलित या निचले तबके के महिलाओं की हालत तो और भी दयनीय है.

जनलोकपाल बिल की चुनौती

$
0
0
दिग्भ्रमित हूं। चाहता हूं जो लोग चाहते हैं जनलोकपाल विधेयक बने और बने तो कैसे बने, कौन बनाए... वे लोग कृपया कुछ सुझाव दें तो मैं बहुत आभारी रहूंगा। सिविल सोसायटी के बारे में, विरोध में, सरकार विरोधी और पक्ष में काफी बातें की जा सकती हैं। मेरा सवाल है विरोधी और समर्थन वाले ज़रा कुछ राय आर भी दीजिए कि कानून बने तो कैसे, कौन बनाए। सरकार और नेता मिलकर बनाएंगे तो अपने हिसाब से ही बनाएंगे। तभी तो देखते हैं कानून अमीरों और नेताओं की रखैल की तरह है और ग़रीब बेचारा सालों तक बिना कुछ करे जेल की चक्की में पीसता रहता है। कोई देशद्रोही तो कोई नक्सली होने के आरोप में सरकार द्वारा जबरन जेल में डाल दिया जाता है। बिनायक सेन का मामले अभी ताजा है। निचली अदालत से लेकर ऊपर तक सभी ने दोषी करार दे दिया। यह है देश का संविधान। सुप्रीम कोर्ट से उन्हें जमात मिली और सरकार को बताया कि देशद्रोह क्या होता है। अहर सरकार की तले तो वह नेताओंऔर उनके रिश्तेदारों द्वारा किए जाने वाले हर काम को जायज और उनके विरोध में किए जाने वाले काम को गैर कानून बना दे। लेकिन चलती नहीं। संविधान में कई ऐसे पहलू हैं जो कारगर नहीं हैं। अलग-अलग देशों के मसौदे को कट, कॉपी और पेस्ट कर दिया गया है जो भारतीय संदर्भ में लागू नहीं होते इसी का फा़यदा नेता लोग उठाते हैं अपने हिसाब से संशोधन करते हैं। यही हाल आईपीसी और सीआरपीसी का भी है। मेरी समस्या यह है कि इसका समाधान क्या है क्या हम सिर्फ फेसबुक पर इसके समर्थन और विरोध में बातें करें। कौन बनाएगा कानून और कौन नहीं ये बातें करें। जो बनाने जा रहा है वो पाक साफ है या नहीं। बहुत जटिल मामला है। ज़रा मेरी जिज्ञासा शांत करें। अंदर बेचैनी बढ़ती जा रही है। भइया मुझे पता है इस हमाम में सभी नंगे हैं इसलिए मैं चाहता हूं आप इस ड्राफ्टिंग कमिटी में सिविल सोसायटी की नुमाइंदगी करें। मुझे पता है आप भी इनकार कर देंगे। आप कह रहे हैं कि जनता बिना चुने लोग कैसे किसी कानून को बना सकते हैं तो आप चुने हुए लोगों से बनवाइए...शरद पवार, कलमाड़ी, ए राजा जैसों से ...बाहर बैठे खामियां निकालना बहुत आसान है। कुछ लोग पीछे हाथ धोकर पड़ गए हैं।

भ्रष्टाचारविरोधी आंदोलन का झुनझुना

$
0
0
भ्रष्टाचार की नौंटकी अभी जारी रहेगी। अभी कुछ दिनों तक देश में कालेधन को लाने का मामला गूंजता रहेगा। लोकपाल विधेयक का भी मसला मीडिया में चलता रहेगा। पर, मेपी मानिए तो यह सब ड्रामा और नौटंकी के अलावा कुछ भी नहीं। सरकार को झुकाने का जो अभियान इन चंद लोगों ने जो छेड़ रखा है, उनकी मंशा कभी पूरी नहीं होगी। वैसे भी देखिए तो जिन्हें जनता ने चुना उनको चुनौती देने का हक़ इन बिना चुने लोगों को किसने दे दिया। है हिम्मत तो उतरें चुनावी समर में और फिर बनाएं मनपसंद कानून। कमर टूट जाएगी। जमानत जब्त हो जाएगी। लेकिन कभी संसद में पैर तक नहीं रख पाएंगे। जिस जनता के लिए लड़ने की बात ये चंद लोग कर रहे हैं, वही जनता इन्हें चारो खाने चित कर देगी और ये हाथ मलते रह जाएंगे। ऐसे में यह कौन सा दावा कि देश में भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए क़ानून अब जनता के चुने हुए प्रतिनिध नहीं, बल्कि चंद मुट्ठी भर लोग करेंगे, जिनके पास अरब की आबादी वाले देश में लाखों का भी समर्थन हासिल नहीं है। पहले अनशन करते हैं। फिर सरकार को ब्लैकमेल करने की कोशिश। यह सिविल सोसायटी की तानाशाही नहीं कही जा सकती क्या? बिल्कुल है। अगर देश में वाकई किसी तरह का करप्शन है तो क्यों नहीं लोग सड़कों पर आ जाते हैं। क्यों दिल्ली के जंतर मंतर पर चंद लोगों के इकट्ठा होने को पूरी आबादी का प्रतिनिधत्व मान लिया जा रहा है। {नीचे की पंक्तियां दिलीप मंडल के फेसबुक वाल से हैं...} जोआंदोलन भ्रष्टाचार के विरुद्ध शुरू हुआ था, वह पहले तो जन लोकपाल बिल केसमर्थन का आंदोलन बना, फिर लोकपाल बिल की ड्राफ्टिंग कमेटी में शामिल होनेका आंदोलन बना, फिर कमेटी का चेयरमैन बनने का आंदोलन बन गया और आखिरकारदेखिए यह कहां पहुंच गया है?सिविलसोसायटी के प्रतिनिधि जस्टिस संतोष हेगड़े कर्नाटक में लोकायुक्त है। इनपर उस बिल को बनाने की जिम्मेदारी है, जिससे देश भ्रष्टाचार खत्म होना है।कर्नाटक में भ्रष्टाचार को ये पूरी तरह से रोक चुके हैं!!!! इनका एक परिचययह भी है कि इनके दिए फैसले यूथ फॉर इक्वैलिटी को खूब पसंद आते हैं।दोहफ्ता पहले सिविल सोसायटी करप्शन के बारे में बात कर रही थी। आज भी वहकरप्शन के बारे में ही बात कर रही है। जिन लोगों ने ज्यादा उम्मीदें पालीथीं, और जो अब ज्यादा निराश हैं, उनके प्रति सहानुभूति है।मैंअगर रॉकफेलर फाउंडेशन चलाता हूं (यह दुनिया के सबसे बदनाम कंपनी काफाउंडेशन है) और भारत में अपनी पसंद का लोकपाल बनाना चाहता हूं तो मैं अपनेपैसे से दिया जाने वाला मैगसेसे अवार्ड किसी अपने आदमी को दूंगा। अरविंदकेजरीवाल और सिविल सोसायटी ने जनलोकपाल के लिए जो विधेयक बनाया है, उसमेंमैगसेसे आवार्ड विनर को लोकपाल की सलेक्शन कमेटी में रखने की बात है।

तो मीडिया है पाक साफ !

$
0
0
यार, सचिन पायलट की फोटो 2 कॉलम लगा लेना। ठीक सर। लेकिन उससे अच्छी तो पीएम की फोटो है, उसी की लगा लूंगा. ठीक है, लेकिन जल्दी करो. सर भेज दिया पेज. दिखाओ ज़रा। ये क्या किया तुमने सचिन पायलट की फोटो नहीं लगायी. यार, तुम समझते नहीं हो, जान लोगी मेरी। जल्दी करो, पेज रुकवाओ। अरे, सर काफी देर हो चुकी है। तुम समझते नहीं तो पूछ लिया करो पहले। लेकिन, सर उसकी कोई ख़बर भी तो नहीं है, बस एक मामूली समारोह में बैठा है। अरे बात...उफ्फ!!! तुम कर लोगे, यहां क्लास होगी मेरी। मेरा साथी किसी तरह सचिन पायलट की फोटो लगाता है। पेड न्यूज़ का पहला अनुभव था मेरे साथ. सीधे शब्दों में कहें तो एक अख़बार की पॉलिसी या दलाली। एक अलग किस्सा...अरे सर आज तो जेसिका लाल मामले में कुछ फ़ैसला आने वाला है। ज़रा धीरे बोलो...क्यों सर, नहीं तो टांग दिये जाओगे। अभी इंटर्न ही हो न। अगर आगे भी काम करते रहना है तो तरीक़ा सीख लो। लेकिन सर बतलाइए तो, क्या बात है? अरे सुनो ज़रा इसे बतलाओ ज़रा। अच्छा तो ये बात है। लेकिन सर ये तो ग़लत है न। हमारा काम तो ख़बर दिखलाना है और ये तो एथिक्स के उलट है। बाबू ये एथिक्स केया होता है? सुनो कहां से पढ़कर आए हो? सर, जामिया मिल्लिया इसलामिया से। कौन पढ़ाता था? कई लोग आते थे। कभी एनडीटीवी से (उस वक्त एनडीटीवी एथिक्स के मामले में अव्वल था, बाद में पतन की कहानी बकायदा उदाहरण सहित, फिर कभी) तो न्यूज़ 24 से, तो किसी और चैनल से फैकल्टी आते थे, हमारे इस चैनल से कई लोग जाते थे हमें पढ़ाने। तभी बड़े लोगों के झांसे में बहुत जल्दी आ जाते हो तुम लोग। ख़ैर इसमें तुम बच्चों का कोई दोष नहीं। तालीम ही ग़लत जब मिलती हो तो और अपेक्षा भी क्या की जा सकती है? चलो तो अब समझ गये माजरा।
इसीलिए जब पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से रियाटर होने के बाद मार्कंडेय काटजू ने मीडिया को सवालों के घेरे में लेना शुरू किया है तो लोगों को जलने लगी है। लेकिन, कुछ अतिशयोक्ति वाले उनके बयान को छोड़ दिया जाये तो काटजू साहब के बयान से सहमत होने में कोई अपराध नहीं है।  कुल मिलाकर बात सिर्फ इतनी है किचाहे इलेक्ट्रॉनिक हो या प्रिंट (टीवी या अख़बार) ''पेड न्यूज़'' दोनों जगह है. कुछ पत्रकार दलालों के वर्ग के हैं, तो कुछ मजबूर. मजबूर वाले वर्ग को तेज़ धार वाली अपनी ख़बर की धार कुंद करनी पड़ती है, क्योंकि बॉस ने बोला है। हालांकि आज के कारोबारी दुनिया में पेड न्यूज़ का चलन खत्म हो जाए, यह मुमकिन नहीं। क्योंकि जो मीडिया घराने हैं, उनके कई बिजनेस हैं। अगर सरकार का आप साथ नहीं देंगे तो सरकार तो सरकार है, हर कदम पर आपके लिए तलवार लटका देगी। इस तलवार की मार असली वाले से कई गुना होता है, आख़िर अर्थतंत्र ही तो सारे तंत्रों को नियंत्रित करने का काम करती है। 

तुम्हारा कहानी बन जाना!

$
0
0
शाम हो आयी है. सड़क पर लोगों की चहलकदमी पहले की ही तरह है. रात भर यहां ऐसे ही रहता है. लोग-आते जाते रहते हैं, किसी को फर्क़ नहीं पड़ता है. हज़ारों लोगों की भीड़ में वह भी एक था, बिल्कुल मेरी तरह. पर, कभी लगता था, किसी चीज की तलाश में है. लेकिन किस चीज की यह शायद किसी को पता नहीं था? दोस्तों ने कभी समझने की कोशिश ही नहीं. क्योंकि हर किसी की अपनी एक कहानी थी. सभी अपनी-अपनी कहानियों में एक गुमनाम जीवन जी रहे थे. बात यह थी कि मैं किसी कहानी में खोना नहीं चाहता था. अकसर उसे भी लगता कि मैंने उसे ग़लत समझ लिया. जैसा मैं सोचता हूं वह वैसी बिल्कुल नहीं है. गुस्सा तो मुझे भी कभी-कभी आता था, अगर मैं उससे इतनी बातें कर रहा हूं तो क्यों? क्या वह इतना भी नहीं समझ सकती थी. शायद वह भी अपनी छवि और कहानी को लेकर सतर्क थी. मुझे इससे कभी एतराज़ नहीं रहा और न है. लेकिन, एक सवाल तो हमेशा से रहा है और है भी? शायद वह सवाल उसके जवाब में छिपा है, जो अभी तक मुझे नहीं मिला. शायद उसे भी किसी बात का इंतज़ार हो. अब इतनी बात कर लेने के बाद भी उसे मुझे अनजान नहीं मानना चाहिए. लगता है परखना चाहती हो. लेकिन किसे, क्या वाकई मुझे? उसे जो एक पहलेनुमा घेरा अपने चारों ओर लेकर चलता है. एक ऐसा घेरा जिसे वह ख़ुद आजतक नहीं तोड़ पाया. ऐसा नहीं कि मैं इससे बाहर नहीं आना चाहता है. दादी अकसर कहती थी, वह फलाने नगर (वक्त के साथ दादी के किस्सों का शहर कहीं खो-सा गया है, इसलिए नाम याद नहीं) का राजकुमार जब भी उदास होता तो एक चिड़िया आती और उससे बातें करने लगती थी. उसकी आवाज़ किसी राजकुमारी की तरह थी. एक दिन राजकुमार ने फ़ैसला किया इस रहस्य का वह पता लगायेगा. फिर एक दिन पता चला कि उसके ही महल में एक नौकरानी थी, जिसने एक राजकुमारी को काले जादू से चिड़िया बनाया था. यह बात पता चलते ही राजकुमार ने नौकरानी को मौत की सजा दी लेकिन एक शर्त रखी कि अगर वह राजकुमारी को उसका सही रूप लौटा दे तो उसे छोड़ दिया जायेगा. ऐसा ही हुआ. जब राजकुमारी अपने असली रूप में आयी तो राजकुमार ने पूछा मेरे उदास रहने पर तुम अकसर मेरे पास क्यों आ जाया करती थी? यही सवाल मेरे साथ है. जो अभी तक उसकी समझ में नहीं आया और शायद जो अभी तक गुस्सा नहीं थी, सच में गुस्सा हो गई वह. नहीं भी हुई हो, लेकिन मुझे कैसे पता? शायद अभी यह बताने का वक्त का नहीं था. नहीं, तो वह बता चुकी होती. लेकिन मैं जो ठहरा अधीर, मां भी कहती थी तुम्हें सारी मिठाइयां एक-साथ चाहिए. एक-एक करके खाओ फिर और दूंगी. लेकिन नहीं, मुझे तो एक-साथ पांच-छह चाहिए थी. अभी मुझे पांच-छह तो नहीं बस एक ही चाहिए, लेकिन वह धीरज या धैर्य कहां से लाऊं, ताकि मैं इंतज़ार कर सकूं. और अकसर यही होता है अंत में मैं फ्रस्ट्रेट होकर परेशान हो जाता हूं. कुछ दिनों तक डिस्टर्ब रहता हूं और धीरे-धीरे वह भी कहानी बन जाती है. क्या इस बार भी यही होगा?

सेक्स ही सत्य है, बाकी सब सिंघवी है!

$
0
0
कांग्रेस प्रवक्ता मनु सिंघवी
हमारी अदालतें भी चुतियापा करती हैं. मनु भैया की सेक्स सीडी पर पाबंदी लगी दी. हम सभी जानते हैं और जो नहीं जानते हैं वो जान लें कि सेक्स करना क़ानूनी तौर पर तब तक अपराध की श्रेणी में नहीं आता जब तक कि दो व्यस्क आपसी रजामंदी से करते हैं. यानी यदि दो व्यस्क आपसी सहमति से सेक्स करते हैं या सभ्य भाषा में कहें तो संबंध बनाते हैं वह क़ानूनी तौर पर अपराध नहीं माना जाएगा. फिर अदालत ने इस पर पाबंदी क्यों लगायी, यह सोचने वाली बात है. उससे भी बड़ी बात कि अदालत की पाबंदी के बावजूद यह सेक्स सीडी यू-ट्यूब (अब हटा लिया गया), फेसबुक (मैंने यहीं देखी सीडी)और मोहल्ला लाइव वेबसाइट (जहां से अभी-अभी लिंक को डिरेल कर दिया गया)पर मौजूद हैं या थीं. अगर अदालती फरमान के बावजूद यह देखी और दिखायी जा रही है तो कोर्ट की अवमानना का मामला बनता है. अब अदालत क्या करेगी? किसके ख़िलाफ़ अवमानना का नोटिस जारी करेगी? इसीलिए कहता हूं कि अदालत का फ़ैसला उसी तरह है जैसे there is something rotten in Indian judiciary. मनुसिंघवी ने जो किया वह बिल्कुल ग़लत (क़ानूनी तौर पर) नहीं है. लेकिन, बड़ा सवाल तो न्यायपालिका पर उठता है. मनु सिंघवी की जो सेक्स सीडी है, उससे हॉलीवुड फिल्मों के बीच में अक्सर आ जाने वाली ''तरह-तरह की आवाजों'' की तरह आवाजें नहीं आती हैं. लेकिन, भाव-भंगिमाओं को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि क्या हो रहा है? ख़ैर अपन को इससे भी क्या लेना-देना? दरअसल, जो महिला सिंघवी साहब के साथ हैं, वह ख़ुद को जज बनवाने की वकालत और सिफ़ारिश की बात करती हैं. मनुसिंघवी कहते हैं कि सिफ़ारिश कर दी गयी है. ऐसे में सवाल उठता है कि हमारी न्यायपालिका में जज बनने के लिए या विभिन्न नियुक्तियों के लिए योग्यता के साथ या योग्यता के बग़ैर बिस्तर पर सोना पड़ता है. फिर से उसी सवाल पर लौटता हूं अदालत को क्यों ज़रूरत आ पड़ी इस सीडी पर पाबंदी लगाने की. अमर सिंह की सीडी मामले में भी यही हुआ था. देख सभी लेते हैं और पता सभी को होता है कि इस तरह की रहस्यात्मक (जिसका पता सबको होता है, सिर्फ अदालत समझती है कि उसके अलावा किसी को पता नहीं है) सीडी में है क्या? एक दूसरा सवाल, किसी डीपीएस या अन्य स्कूल के लड़की की एमएमएस के आने पर इस तरह के कदम नहीं उठाए जाते. क्या वो मामला इससे अलग होता है. मीडिया भी सहूलियत के हिसाब से ख़बरों का चयन करता है. हमारे नेता भी अपनी सहूलियत के हिसाब से कभी करप्शन तो कभी सेक्स करते रहते हैं. सत्ता के साथ बहने का मज़ा ही कुछ और है. बहते जाइए. मनु सिंघवी बनते जाइए. आख़िर सेक्स ही तो सत्य है. सेक्स ही तो शाश्वत है. बाक़ी सब माया है.

महामहिम की माफ़ी

$
0
0
राष्ट्रपति कोई भी हो देश की जनता को कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता है. शायद इसलिए कि हमारे लोकतंत्र में उनकी भूमिका ही कुछ ऐसी है. लेकिन कुछ मामले हैं, जिससे एक राष्ट्रपति के तौर पर यह भूमिका इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है कि सिस्टम पर सवाल खड़ा हो जाता है. यूं तो किसी क़ानूनी और आपराधिक मामलों पर फ़ैसला करने का अधिकार न्यायपालिका का होता है, लेकिन राष्ट्रपति के पास भी कुछ फ़ैसले माफ़ी के लिए चले जाते हैं. अभी राष्ट्रपति चुनावों की गहमागहमी के बीच प्रतिभा पाटील को लेकर कुछ विवादास्पद मामले भी सामने आए. सेना की ज़मीन पर अपने लिए मकान बनाने के लिए. ज़रूरत से ज्यादा ज़मीन उन्होंने अपने लिए आवंटित करवा लिए. हालांकि, सदाशयता दिखाते हुए उन्होंने ज़मीन लौटा दी. शायद इसलिए कि ख़बरें मीडिया में तेज़ी से उछल गयी थी. इसके अलावा विदेश भ्रमण को लेकर भी विवाद सामेन आया. लेकिन इन विवादों को एक तरफ़ रख दें तो सबसे हैरान करने वाली बात है वह यह कि प्रतिभा पाटील ने माफ़ी की याचिकाओं में कुछ ऐसे अपराधियों को माफ़ी दी है, जो उसके हक़दार थे या नहीं यह तो लोगों की विचारों पर निर्भर करेगा. पर कुछ मामले देखें तो साफ़ ज़ाहिर हो जायेगा कि वे कितना हक़ादर थे. दरअसल, पाटील ने इस मामले में खतरनाक हत्यारों, बलात्कारियों पर दया करने के मामले में एक रिकॉर्ड ही बना दिया है. उन्होंने पांच साल के कार्यकाल में कुल 30 हत्यारों की फांसी माफी दी है. माफी पाने वालों में 6 साल की बच्ची के साथ रेप और हत्या का दोषी सतीश भी शामिल है.सतीश ने 6 साल की बच्ची विशाखा (जो सर्वोदय पब्लिक स्कूल की छात्रा थी) के साथ रेप करके उसकी निर्मम हत्या कर दी थी. विशाखा की क्षत-विक्षत लाश गन्ने के खेत में पड़ी मिली थी.  यह घटना 2001 में मेरठ में हुई थी. सतीश को पिछले सप्ताह गुरुवार को माफी मिली है. जिन 30 अपराधियों की फांसी की सजा आजीवन कैद में बदली गई है, वे 60 लोगों की निर्मम हत्या के अपराध में सुप्रीम कोर्ट से दोषी ठहराए जा चुके थे और उनमें से 22 ने महिलाओं और बच्चों को निशाना बनाया था. हैरानी की बात है कि सरकार ने इन घृणित अपराध के मामलों को भी दया के लायक समझा और इन मामलों को राष्ट्रपति के विचारार्थ भेजा. तभी राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल पिछले 28 महीनों में विचाराधीन मामले निपटाने का रिकॉर्ड बना सकीं. राष्ट्रपति पाटिल की दया के पात्र बने 2 अन्य अपराधी हैं मोलाई राम और संतोष यादव. इन दोनों ने जेलर की 10 साल की बेटी से जेल परिसर में ही गैंग रेप किया था और फिर उसकी हत्या कर दी थी. तब ये दोनों एक अन्य मामले में मध्य प्रदेश की जेल में बंद थे. धर्मेंद्र सिंह और नरेंद्र यादव ने मिलकर 5 लोगों के एक परिवार को मौत के घाट उतार दिया था. जिन लोगों की हत्या हुई थी उनमें पति-पत्नी और उनके 3 बच्चे (12 साल के दो बेटे और 15 साल की एक लड़की) शामिल थे. लड़की के साथ रेप भी किया गया था. मामला यह था कि नरेंद्र ने इस घटना से कुछ दिन पहले स्कूल से लौट रही 15 साल की लड़की से रेप करने की कोशिश की थी. वह इसमें कामयाब नहीं हो पाया था. इससे बौखलाए नरेंद्र ने धर्मेंद्र के साथ मिलकर पूरे परिवार को मौत के घाट उतार दिया था. माफी पाने वालों में 6 ऐसे लोग हैं जिन्होंने वहशी अंदाज में 4 लोगों को मौत के घाट उतारा था। इनमे से तीन पीड़ितों का इन लोगों ने सरेआम गला काट दिया था और एक 10 साल के बच्चे को जिंदा ही आग में झोंक दिया था. जिन लोगों को दया मिली है उनमें पंजाब के प्यारा सिंह और उसके 3 बेटे भी शामिल हैं. इन लोगों ने व्यक्तिगत दुश्मनी के कारण एक शादी के दौरान 17 लोगों की हत्या कर दी थी. 1991 की इस घटना में 4 बच्चे भी मारे गए थे.

तो भारत में ऐसे बसती हैं ''शंघाई'' जैसी शहरें

$
0
0
दिल्ली को पेरिस और कोलकाता को लंदन बनाने की कहानी है...शंघाई. विकास और कंक्रीट का शहर बसाने के नाम पर लोगों से उनकी ज़मीन जबरन लेने की कोशिश की जाती है. सिंगूर और नंदीग्राम में इसी तरह का ख़ूनी खेल खेला गया. जब पॉश इलाक़े में वही जगह तब्दील हो जाती है तो कभी उस जगह के मूल मालिक रहे लोगों को वहां आने तक की इजाजत नहीं होती है. हिंदुस्तान में ऐसे उदाहरण कई मिल जाएंगे.  गुजरात में भी इसी तरह बांध बनाने और उससे जनहित होने के नाम पर लोगों को उनकी ही ज़मीन से धकेलने की कहानी है शंघाई. एक मायने में मुंबई के आदर्श हाउसिंग घोटाले की कहानी है शंघाई. आज देश में हर जगह शंघाई की घटना घट रही है. जो इनके हित की बात कर रहे हैं उन्हें मारा जा रहा है. हत्या को आत्महत्या या दुर्घटना बताकर मामला रफ़ा-दफ़ा किया जा रहा है. जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण पर आदर्श हाउसिंग घोटाले की छींटे पड़ी तो आलाकमान को उनसे इस्तीफा लेना पड़ा. शंघाई में भी जब पता चलता है कि भारत नगर में आईबीपी बसाने के विरोधी डॉ अहमदी की हत्या में मुख्यमंत्री साहिबा का हाथ है तो उनसे भी इस्तीफा ले लिया गया. जांच बिठा दी गयी. सबसे मज़ेदार तो ख़ुद मुख्यमंत्री द्वारा अहमदी की हत्या की जांच के लिए आयोग का बनाना है. ऐसा ही होता है इस देश में. फिल्म में मुख्यमंत्री साहिबा को इस्तीफा देना पड़ता है. अशोक चव्हाण ने भी इस्तीफा दिया. बस इन बड़े लोगों की सजा उनका पद से इस्तीफा ही है. जबकि अगर इसी अपराध कोई और करे तो वर्षों जेल में सड़ता रह जाए. शायद हर देश में होता होगा ऐसा. दिबाकर बनर्जी ने अच्छा कॉन्सेप्ट डेवलप किया. मेरे एक सिनेमा के जानकार मित्र हैं, रोहित वत्स उनका हमेशा से मानना रहा है कि फिल्में अगर कोई संदेश न दे तो वह बेकार हैं. मेरे हिसाब से यह फिल्म उसी कड़ी में आती है. एक तरफ़ मार-धाड़ से भरपूर दक्षिण के एक्शन स्टाइल की फिल्में बॉलीवुड में भी हिट हो रही हैं, जिसे ब्लैक जैसी फिल्में बनाने वाली संजय लीला भंसाली भी बनाते हैं. तो दूसरी ओर नयी पीढ़ी के फिल्मकार दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप जैसे फिल्मकार वास्तविक और समकालीन घटनाक्रमों पर फिल्में बनाने का रिस्क ले रहे हैं. रिस्क इसलिए कि हमारी जो नयी पीढ़ी है उसका एकमात्र नहीं तो प्राथमिक लक्ष्य पैसा ही है. चाहे वह जिस भी तरीक़े से आये. लेकिन लोगों के अंदर जिस प्रकार की कुंठा और गुस्सा है, उसे आवाज़ देने का काम करती है शंघाई जैसी फिल्में. ज़मीन अधिग्रहहण के नाम पर किस तरह राजनीतिक और बिजनेस वर्ग खेल खेलता है, उसकी सारी परतें सामने लाकर रख देती है यह फिल्म. ऐसे में पुलिस, प्रशासन और सरकार सभी अपना ही हित साधने में लगे रहते हैं. अगर कोई आकर सहानुभूति भी जताता है तो लगता है अपना ही हित साध रहा है. हालांकि, फिल्म की कमजोर कड़ी के तौर पर अगर कोई पात्र है तो कल्की कोचलिन. एक ठहराव-सा लगता है यह पात्र. हां, इमरान हाशमी से उनकी पहली फिल्म फुटपाथ की याद आ गयी. पहली फिल्म के बाद अभी तक उन्होंने अपनी छवि के बिल्कुल उलट तो नहीं, लेकिन उससे हटकर काम किया है. अभय देओल टिपिकल दक्षिण भारतीय आइपीएस की भूमिका में हैं. बिल्कुल ईमानदार, लेकिन अपने लक्ष्यों के प्रति समर्पित. बाद में, उनका आख़िरी फ़ैसला अलग साबित होता है. फारुख शेख इस उम्र में इसी भूमिका में अच्छे लगते हैं. दिलचस्प कैरेक्टर है, उनका न तो आपको वो भ्रष्ट लगते हैं और न ही ईमानदार. कुलमिलाकर फिल्म का कलाइमेक्स बेहतर हो सकता है. ऐसा लगा जैसे निपटाने के चक्कर में क्लाइमेक्स को रफ़ा-दफ़ा किया गया हो.

सीरिया में शांति की चुनौती

$
0
0
सीरियाई राष्ट्रपति बशर-अल-असद अपनी पत्नी असमा के साथ
सीरियामेंबदलावकीमांगकोलेकरविपक्षीदलऔरआमजनतासड़कोंपरआंदोलनकररहीहै. प्रदर्शनकारीचार दशकसेभीअधिकसमयसेसत्तापरकब्जा जमायेराष्ट्रपतिबशरअलअसदकेपरिवारकेशासनकाअंतचाहतेहैं. लंबेसमयसे जारीइसविद्रोहनेअबहिंसकरूपअख्तियारकरलियाहैऔरआयेदिनहोरहीनरसंहार कीघटनाओंसेस्थितिऔरगंभीरहोतीजा रहीहै. संयुक्त राष्ट्रकेमुताबिक, सुरक्षाबलों कीकार्रवाईमेंअबतक 9,000 सेअधिक लोगमारेजाचुकेहैंऔर14,000 से अधिक कोगिरफ्तार कियाजाचुकाहै. सीरियामेंअशांतिऔरहिंसकघटनाओंकोबंदकरवानेकीसंयुक्त राष्ट्रमहासचिवबानकी मूनसेलेकरअरबलीगतककीकोशिशें असफलरहीहैं. इतनाकुछहोनेकेबादभीराष्ट्रपतिबशरअलअसदकिसीभीकीमत परझुकनेकोतैयारनहींहैं.
विद्रोहकीकैसेहुईशुरुआत : सीरियामेंविद्रोहकीकहानीकीशुरुआत मिस्रऔरट्यूनीशियाकीक्रांतिसेजुड़ीहै. यहविद्रोहमार्चमेंदक्षिणसीरियाईशहरडेरा मेंशुरूहुआ. उसवक्तस्थानीयलोगउन14 स्कूलीबच्चोंकीरिहाईकीमांगकोलेकर इकट्ठाहुए, जिन्होंनेमिस्रऔरट्यूनीशियामेंक्रांतिकेप्रतीककहेजानेवालेमशहूर स्लोगनजनतासरकारकापतनचाहतीहैकोदीवारोंपरलिखदियाथा. इसकारणइन स्कूलीबच्चोंकोयातनाभीदीजारहीथी. बादमेंप्रदर्शनकारियोंनेलोकतंत्रऔर व्यापकआजादीकीभीमांगशुरूकी. हालांकि, शुरूमेंप्रदर्शनकारियोंनेराष्ट्रपति असदकेइस्तीफेकीमांगनहींकीथी. हिंसककार्रवाईसेविद्रोहव्यापकयहविरोधप्रदर्शनशांतिपूर्णतरीकेसेहोरहा था, लेकिनसरकारइससेघबरागयी. जब 18 मार्चकोदोबाराप्रदर्शनहुआ, तोसुरक्षाबलोंनेलोगोंपरखुलेआमगोलियांचलायीं, जिसमेंकईलोगोंकीमौतहोगयी. इसघटना केएकदिनबादलोगमृतकोंकोश्रद्धांजलि देनेपहुंचे, तोसुरक्षाबलोंनेवहांभीफायरिंग की, जिसमें एऔरशख्सकीमृत्युहोगयी. इसकेचंददिनबादहीविद्रोहव्यापकहो गया. इसेकुचलनेकेलिएराष्ट्रपतिअसदके भाईमाहेरकीअगुवाईमेंसेनाकीएकटुकड़ीभेजीगयी. कार्रवाईमेंसेनानेप्रदर्शनकारियों परटैंकचलाये, जिससेदर्जनोंप्रदर्शनकारियोंकीमृत्युहोगयी. उनकेघरोंकोनष्टकरदिया गया. सरकारीकीहिंसककार्रवाईकेबावजूदविद्रोहथमानहीं, बल्किदूसरेशहरोंमेंभी
प्रदर्शनहोनेलगे. बादमेंसेनानेइसप्रदर्शनके पीछेआतंकियोंऔरसशस्त्रअपराधियोंकेहाथहोनेकाआरोपलगानाशुरूकरदिया.
लोगोंकीमांग, राष्ट्रपतिकावादा : पिछलेसालकेशुरूमेंप्रदर्शनकारीअन्य अरबदेशोंकीतरहसीरियामेंभीलोकतंत्र औरव्यापकआजादीकीमांगकररहेथे. लेकिन, सुरक्षाबलोंकीहिंसककार्रवाईके बादअबवेराष्ट्रपतिअसदकेइस्तीफेकीभी मांगकरनेलगेहैं. असदनेइस्तीफेकीमांगकोसिरेसेखारिजकरदिया, लेकिनउन्होंने प्रशासनमेंसुधारकावादालोगोंसेकिया. प्रदर्शनकासिलसिलाशुरूहोनेकेबाद असदनेदेशमेंकरीब 48 वर्षोंसेचलेरहे आपातकालकोपिछलेसालअप्रैलमेंही खत्मकरदियाथा. नयेसंविधानकेतहत बहुदलीयचुनावोंकेलिएफरवरी 2012 में जनमतसर्वेक्षणकेजरिएमंजूरीमिलगयी.
लेकिन, प्रदर्शनकारियोंपरसुरक्षाबलोंद्वारा गोलीबारीजारीथी. नतीजतन, वेअसदके इस्तीफेकीमांगपरअड़ेगये. इसेदेखतेहुएअसदनेइसविद्रोहकोशांतकरानेकेलिएसेनाकोसड़कपर उतारनेकेअलावाजनतासेएकऔरवादा किया. इसकेमुताबिकमौजूदाकार्यकालखत्महोनेकेबादआनेवालीसरकारके चुनावकेलिएतोवहखुददावेदारहोंगे औरहीइसपदकोअपनेबेटेकोसौंपेंगे. लेकिन, लोकतंत्रकीमांगकोलेकरसड़क परउतरेलोगोंकोसंतुष्टकरनेकेलिएयह काफीनहींथा. इसकेअलावाराष्ट्रपतिअसद नेविद्रोहमेंशामिललोगोंकोमाफीदेनेका भीदावंखेला, लेकिनउसेविपक्षीमुसलिम ब्रदरहुडसहितसभीदलोंनेखारिजकर दिया. दरअसल, विपक्षसहितविद्रोहियोंकी मांगहैकिपिछले44 वर्षोंसे राजकररही सरकारअपनासत्ताछोड़दे
अंतरराष्ट्रीयसमुदायकीभूमिका : मध्यपूर्वकेदेशोंमेंसीरियाकीभूमिकाकाफीमहत्वपूर्णमानीजातीहै. यहांकिसीभीतरह कीउथल-पुथलकाअसरलेबनानऔर इजरायलजैसेदेशोंपरपड़ताहै. इससे प्रॉक्सीसमूहों, जैसेचरमपंथीहिजबुल्लाहऔरहमासकीगतिविधियांकाफीबढ़होजातीहैं. अमेरिका, इजरायलऔरसऊदी अरबकेमुख्यविरोधीऔरशियाबहुलईरान केसाथसीरियाकाकरीबीसंबंधहै. नतीजतन, चरमपंथीसंगठनोंकासक्रियहोना मध्यपूर्वमेंइनदेशोंकेलिएपरेशानीकासबबबनसकताहै. ‘अरबलीगनेइसविद्रोहकेलिए सीरियाकेसरकारीतंत्रकोजिम्मेदारठहरायाहै. हालांकि, शुरूमेंअरबलीगसीरियाके मुद्देपरचुपरहा, जबकिइसनेलीबियामेंनागरिकोंकोबचानेकेलिएकर्नलगद्दाफीकी सरकारकेखिलाफनाटोकीअगुआईमें बमबारीकासमर्थनकियाथा. 22 देशोंकेइस संगठननेसीरियामेंहिंसाखत्मकरनेकीमांग की, लेकिनकूटनीतिकऔरराजनीतिक वजहोंसेकिसीभीठोसकार्रवाईपरचुप्पीही साधेरखी. हालांकि, बादमेंसभीको आश्चर्यचकितकरतेहुएइसनेसीरियाकोअरबलीगसेनिलंबितकरदिया. इसके अलावाजबसीरियानेशांतिबहालीकेलिए पर्यवेक्षकोंकीतैनातीकोमंजूरीनहींदीतो अरबलीगनेउसपर   आर्थिकप्रतिबंधभी लगाये. दिसबंर2011 मेंपर्यवेक्षकोंको सीरियाआनेकीमंजूरीमिलगयी, लेकिन शांतिबहालीकाकोईरास्तानहींनिकलपाया. जनवरी2012 मेंअरबलीगने महत्वाकांक्षीयोजनाकेतहतराजनीतिक सुधारकेलिएराष्ट्रपतिकेअधिकार उपराष्ट्रपतिकोसौंपनेऔरविपक्षसेसमुचित वार्ताकीप्रक्रियाशुरूकरनेएवंदोमहीनेके भीतरनयीसरकारकेगठनकाप्रस्तावरखा.लेकिन, इसकेचंदसप्ताहबादहीनाटकीय ढंगसेहिंसाबढ़नेलगी. नतीजतन, अरब लीननेअपनेअभियानकोस्थगितकरदिया.फिर, अरबलीगनेअपनीसुधारवादीयोजनालागूकरनेकेलिएसंयुक्तराष्ट्रसुरक्षापरिषद सेमददमांगी. लेकिन, संयुक्तराष्ट्रसमर्थित इसप्रस्तावकोरूस(रूसकासीरियाकेसाथ महत्वपूर्णआर्थिकऔरसैन्यसाझेदारीहै) औरचीननेवीटोकरदिया. सुरक्षापरिषदमेंयहउनकादूसरावीटोथा. रूसनेकहाकि इसप्रस्तावकेकारणसीरियामेंसैन्यहस्तक्षेप बढ़जायेगा. सीरियाकीसमस्याकेसमाधानकीजोकड़ी गायबहैवहहैरूस. रूसऔरसीरियाके बीचआपसीसंबंधकाफीमजबूतहैं. शांति बहालीकेलिएसंयुक्तराष्ट्रप्रस्तावके खिलाफवीटोकरकेरूसनेहीसीरियाकीमददकीथी. ऐसेमेंअगरकोफीअन्नान(सीरिया में शांति बहाली के लिए नियुक्त अरब लीग और संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत) की छहसूत्रीयशांतियोजनाकोलागूकरानाहै, तोउसकेलिएसीरियापररूसकादबावजरूरीहोगा.

सियाचिन की समस्या और भारत-पाकिस्तान का रवैया

$
0
0
सियाचिन ग्लेशियर करीब 6,000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित दुनिया का सबसे ऊंचा युद्ध क्षेत्र है. तकरीबन तीन दशक से भारत और पाकिस्तान की सेनाएं इस निर्मम युद्ध क्षेत्र में एक अंतहीन लड़ाई लड़ रही हैं. यहां तापमान शून्य से 55 डिग्री सेल्सियस (- 55 डिग्री सेल्सियस) से भी नीचे चला जाता है. यहां जितने सैनिक गोलियों से नहीं मरते उससे कहीं अधिक हिमस्खलन के कारण शहीद हो जाते हैं. कई सैनिक अकेलेपन के कारण अवसाद का शिकार हो जाते हैं. ऐसी घटनाओं का शिकार सिर्फ भारतीय सैनिकों को ही नहीं होना पड़ता, बल्कि पाकिस्तानी सैनिकों की स्थिति भी यही है. इस युद्ध क्षेत्र को याद करते हुए एक सैनिक ने कहा था, ‘मुझे कौए पसंद हैं, क्योंकि हमारे अलावा वे ही एकमात्र जीवित प्राणी होते हैं, जिन्हें हम यहां देख सकते हैं. भीषण ठंड के मौसम में जब वे चले जाते हैं तो उस दौरान के अकेलेपन को मैं बयां नहीं कर सकता. यह बहुत ही भयावह जगह है, जहां हमारे अलावा न कोई दूसरा आदमी है और न कोई अन्य साधन. यह सीमाओं की रक्षा की जंग नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व और खुद को जीवित बचाए रखने की जंग है. हाल में हिमस्खलन के कारण लगभग 120 पाकिस्तानी सैनिकों की मृत्यु इस बात की ओर इशारा भी करती है. कश्मीर क्षेत्र में स्थित इस ग्लेशियर पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद काफी पुराना है. यहां कोई भी कार्रवाई करना अकसर आत्मघाती साबित होता है, क्योंकि ऑक्सीजन के अभाव में सैनिक सिर्फ पांच मीटर की ही चढ़ाई कर सकता है. उसके बाद उसे सांस लेने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती है. अगर आप शरीर के किसी अंग को महज 15 सेकंड तक बिना ढके रखते हैं तो वह अंग जम जायेगा. यही वजह है कि कई जानकार सियाचिन की इन ऊंची चोटियों पर जंग को एक पागलपन ही करार देते हैं.
विवाद की वजह : सियाचिन की समस्या करीब 28 साल पुरानी है. 1972 में भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद जब शिमला समझौता हुआ तो सियाचिन के एनजे-9842 नामक स्थान को युद्ध विराम की सीमा तय कर दिया गया. इस बिंदु के आगे के हिस्से के बारे में कुछ नहीं किया गया. अगले कुछ वर्षों के बाद बाकी हिस्सों में दोनों तरफ से कुछ-न-कुछ गतिविधियां होने लगी. 1970 और 1980 के दशक में पाकिस्तान ने इस ग्लेशियर की ऊंची चोटी पर पर्वतारोहण को मंजूरी भी दी. यह पाकिस्तान द्वारा इस क्षेत्र पर अपना अधिकार जताने जैसा था, क्योंकि पर्वतारोहियों ने पाकिस्तान सरकार से अनुमति लेकर चढ़ाई की थी. 1978 के बाद से भारतीय सेना भी इस क्षेत्र की निगरानी काफी सघनता से करने लगी. भारत भी अपनी तरफ से पर्वतारोहण के लिए दल भेजने लगा. लेकिन, जब 1984 में पाकिस्तान ने जापानी पर्वतारोहियों को महत्वपूर्ण रिमो चोटी पर पर्वतारोहण के लिए मंजूरी दी तो इस घटना ने भारत को ग्लेशियर की सुरक्षा के लिए कुछ करने पर विवश किया. यह चोटी सियाचिन के पूर्व में स्थित थी और यहां से पूर्वी क्षेत्र अक्साई चीन पर नजर रखी जा सकती थी.सैन्य जानकारों के मुताबिक, इस क्षेत्र में सैनिकों का रहना जरूरी नहीं है, लेकिन इस पर अगर किसी दुश्मन का कब्जा हो तो फिर दिक्कत हो सकती है. यहां से लेह, लद्दाख और चीन के कुछ हिस्सों पर नजर रखने में भारत को मदद मिलती है.
विवाद से सैन्य कार्रवाई तक का सफर :पाकिस्तान के कुछ मानचित्रों में इस भाग को उनके हिस्से में दिखाया गया तो भविष्य में पाकिस्तान की ओर से पर्वतारोहण को रोकने के लिए भारत ने इस ग्लेशियर अपना दावा किया. भारतीय सेना ने उत्तरी लद्दाख, कुमाऊं रेजिमेंट और कुछ अर्द्ध सैनिक बलों को ग्लेशियर पर भेजने के लिए बुला लिया. इनमें अधिकांश वैसे सैनिक थे जिन्हें ऐसी परिस्थिति में रहने के लिए 1982 में अटांर्कटिका प्रशिक्षण के लिए भेजा गया था. उधर, पाकिस्तान के रावलपिंडी सेना मुख्यालय ने भी ग्लेशियर की ऊंची चोटी पर नियंत्रण की रणनीतिक महत्ता को समझा. उन्होंने इस रणनीतिक चोटी पर नियंत्रण के लिए मिलिट्री फर्म स्थापित करने की योजना बनायी. लेकिन, पाकिस्तान ने तब बहुत बड़ी खुफिया गलती कर दी. पाकिस्तान ने आर्कटिक की ठंड मौसम में रहने की खातिर पोशाक के लिए लंदन की उसी कंपनी को ऑर्डर दिया, जिसे भारत पहले ही ऑर्डर दे चुका था.                                                                                  ऑपरेशन मेघदूत : पाकिस्तानी ऑपरेशन के बारे में पुख्ता खुफिया जानकारी जुटाने के बाद भारत ने पाकिस्तान से चार दिन पहले 13 अप्रैल 1984 में ऑपरेशन मेघदूत शुरू किया.वायुसेना के जरिये सैनिकों को सियाचिन की ऊंची चोटी पर पहुंचाया गया. इस तरह भारतीय सेना ने एनजे-9842 के उत्तरी हिस्से पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया. जब पाकिस्तानी सेना वहां पहुंची तो भारत के तीन सौ सैनिक पहले से ही दुनिया के इस सबसे ऊंचे रणक्षेत्र में मौजूद थे.
पाकिस्तान का पक्ष : सियाचिन विवाद को लेकर पाकिस्तान अकसर यह आरोप भारत पर लगाता रहा है कि 1989 में दोनों देशों के बीच यह सहमति हुई थी कि भारत आॅपरेशन मेघदूत से पुरानी वाली स्थिति पर वापस लौट जाये. लेकिन भारत ने इसे मंजूर नहीं किया. पाकिस्तान का कहना है कि सियाचिन ग्लेशियर में जहां पाकिस्तानी सेना हुआ करती थी, वहां भारती सेना ने 1984 में कब्जा कर लिया था. उस समय पाकिस्तान में जनरल जियाउल हक का शासन था. पाकिस्तान तभी से कहता रहा है कि भारतीय सेना ने 1972 के शिमला समझौते और उससे पहले 1949 में हुए   कराची समझौते का उल्लंघन किया है. पाकिस्तान की मांग रही है कि भारतीय सेना 1972 की स्थिति पर वापस जाए और उन इलाकों को खाली कर दे जिन पर उसने कब्जा कर रखा है.
मौजूदा स्थिति : इस ऊंची चोटी पर भारतीय सेना का नियंत्रण है. ग्लेशियर के अधिकांश हिस्से पर भारत का कब्जा है. पश्चिम का कुछ भाग पाकिस्तान के पास है. ग्योंग ला क्षेत्र पर पाकिस्तान का अधिकार है, जहां से वह ग्योंग, नुब्रा नदी घाटी और लेह में भारतीय प्रवेश पर नजर रखता है. सियाचिन का ही कुछ भाग चीन के पास भी है. एनजे-9842 ही दोनों देशों के बीच लाइन आॅफ एक्चुअल कंट्रोल यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा का काम करता है. भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाओं की तैनाती भी इस क्षेत्र में अलग- अलग है. एक रिपोर्ट के मुताबिक, दोनों तरफ से लगभग 10,000 सैनिकों की तैनाती इस ग्लेशियर पर की गयी है. वहीं, एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया के इस ठंडे रणक्षेत्र में सियाचिन की सुरक्षा के लिए पाकिस्तान की तीन बटालियनें मौजूद है, तो भारत की सात बटालियन.
भारत की चुनौती : पाकिस्तान इस ऊंची चोटी पर अपने सैनिकों के लिए रसद-पानी की आपूर्ति सड़क मार्ग से कर सकता है. भारत को इसके लिए हेलीकॉप्टर पर निर्भर रहना पड़ता है. भारत ने यहां सोनम में विश्व का सबसे ऊंचा हेलीपैड (20,997 फीट) बनाया है. 1984 के बाद संघर्ष 1984 के बाद से पाकिस्तान ने भारतीय सैनिकों को हटाने के लिए कई कोशिशें की.1987 में जनरल परवेज मुशर्रफ की अगुवाई में पाकिस्तान सेना में गठित किये गये नये एसएसजी कमांडो ने अमेरिकी स्पेशल ऑपरेशन फोर्स की मदद से कार्रवाई शुरू की. खापलु क्षेत्र में 8,000 सैनिकों के साथ मोर्चाबंदी की गयी. इसका लक्ष्य बिलाफोंड ला पर कब्जा करना था और शुरू में पाक सेना को आंशिक सफलता भी मिली. लेकिन, जब भारतीय सेना से आमना-सामना हुआ तो पाकिस्तानी सेना को मजबूरन पीछे हटना पड़ा. सियाचिन पर नियंत्रण की अगली कोशिश पाकिस्तान द्वारा 1990, 1995, 1996 और 1999 के शुरू में लाहौर सम्मेलन से ठीक पहले की गयी. लेकिन, इन सभी प्रयासों में पाकिस्तान को सफलता नहीं मिली और सियाचिन पर पहले की ही तरह भारत का नियंत्रण बना रहा. फिर, 2003 में पाकिस्तान ने सियाचिन में एकतरफा संघर्षविराम की घोषणा की. भारत ने भी इसका सकारात्मक जवाब दिया.
मानवीय और वित्तीय समस्या : वर्षों से रहते हुए भारतीय सेना ने इस ऊंची चोटी और अत्यधिक ठंड वाले इलाके में खुद को बचाए रखने की कुशलता विकसित कर ली है. लेकिन, 1980 के दशक में ठंड, ऊंचाई पर रहने के कारण कमजोरी और हिमस्खलन के कारण सैकड़ों सैनिकों को जान गंवानी पड़ी. अब भी हर साल लगभग 20-22 सैनिकों की मृत्यु इन कारणों से होती है. भारत को सियाचिन में सैनिकों की सप्लाई और रखरखाव पर हर दिन लगभग पांच करोड़ रुपये खर्च करना पड़ता है. इसके बावजूद भारत में कुछ आलोचक दोनों देशों की बीच सोमवार से सियाचिन मसले पर शुरू हो रही वार्ता को असफल करने के पीछे कारण भारतीय सेना द्वारा सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति को मानते हैं. हालांकि, उनके तर्क को करगिल के अनुभव से करारा जवाब मिला है. जब पाकिस्तान ने उस पर कब्जा कर लिया था. एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन (एजीपीएल) की मंजूरी के बिना भारतीय सेना की वापसी बहुत बड़ी भूल हो सकती है. क्योंकि इससे पाकिस्तान दोबारा सियाचिन पर नियंत्रण की कोशिश कर सकता है और भारत का उस पर कब्जा करना बहुत ही मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि ऊंची चोटी से भारतीय सेना को निशाना बनाना आसान हो जायेगा. साथ ही, अगर सियाचिन पर पाकिस्तान का कब्जा हो जाता है तो इसका मतलब यह भी होगा कि पाकिस्तान पाक अधिकृत कश्मीर और चीन के बीच सीधा संपर्क बना सकता है वह भी भारत की नाक के ऊपर से. 
वार्ताओं का असफल दौर : सियाचीन विवाद को सुलझाने के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच कई दौर की वार्ता हो चुकी है. लेकिन अभी तक इनका कोई ठोस नतीजा नहीं निकल पाया है. पाकिस्तान बिना शर्त पूरे सियाचिन से सैनिकों की वापसी की मांग करता है. वह 1984 के पहले की स्थिति की भी बहाली चाहता है. जबकि भारत, एक्चुअल ग्राउंड पोजीशन लाइन यानी एजीपीएल (वह रेखा जिसके दोनों ओर भारत- पाकिस्तान की सेना फिलहाल मौजूद है.) का सत्यापन चाहता है. यह पाकिस्तान की किसी कार्रवाई के रोधक के तौर पर काम करेगा.

साइबर युद्ध : सबसे बड़ा खतरा और हमारी असफलता

$
0
0
ऐसा बहुत ही कम होता है कि कोई अपनी असफलता को स्वीकार लेता है. और ऐसा तो शायद ही कभी हुआ होगा कि किसी क्षेत्र या उद्योग विशेष से जुड़ी सभी कंपनियां एक साथ अपनी असफलता स्वीकार कर ले. लेकिन, ऐसी असफलता आज की कड़वी हकीकत है और साइबर क्षेत्र पर पूरी तरह लागू होती है. आज भारतीय जांच एजेंसी सीबीआइ से लेकर अमेरिकी रक्षा विभाग का मुख्यालय पेंटागन तक साइबर हमलों के शिकार रहे हैं. नये तरह के खतरनाक वायरस से ईरान के न्यूक्लिर प्रतिष्ठानों को निशाना बनाया जा रहा है और ऐसे वायरस की काट ढूंढ़ने में एंटी वायरस कंपनियां पूरी तरह असफल साबित हो रही हैं.  
फ्लेम यानी साइबर जासूस :यह एक स्पाइवेयर सॉफ्टवेयर है, जिसे कुछ इस तरह डिजाइन किया गया है कि यदि आप अपने कंप्यूटर के की-बोर्ड पर अंगुलियां रखते हैं तो उसकी आवाज से ही यह चोरी-छिपे आपके कंप्यूटर की सारी जानकारियां रिकॉर्ड कर लेगा और उसे ट्रांसमिट भी कर देगा. फ्लेम नाम का यह वायरस जानकारी चुराता है, इसलिए इसे साइबर जासूस का नाम दिया गया है. यह ऑडियो बातचीत पर भी नजर रख सकता है. यह कंप्यूटर के स्क्रीनशॉट लेकर हमलावर को भेज देता है. इतना ही नहीं, यह डिवाइस का ब्लूटूथ ऑन करके आसपास रखे अन्य ब्लूटूथ डिवाइस से भी जानकारी चुराता है.
स्टक्सनट के आगे भी घुटने टेके : स्टक्सनट भी फ्लेम की ही तरह एक और वायरस है. इस वायरस के हमले की गंभीरता उस वक्त पता चली, जब 2010 में इसने ईरानी इंफ्रास्ट्रक्चर को निशाना बनाया और उसके यूरेनियम संवर्धन प्रोग्राम को बाधित किया, साथ ही कई जानकारियां इसके हमलावर तक पहुंचा दी. लेकिन, इस वायरस की खोज के दो साल बाद भी इसका कोई एंटी-वायरस विकसित नहीं किया जा सका है. फ्लेम के बाद यह दूसरा ऐसा वायरस है, जिसके लिए हम एंटी वायरस विकसित करने में अब तक असफल रहे हैं. यह खतरे की घंटी की तरह है. यदि आपके न्यूक्लियर प्रोग्राम पर किसी अप्रत्यक्ष डिजिटल हमले का खतरा मंडरा रहा है और पुलिस भी कोई कार्रवाई करने में लाचार और बेबस है, तो ऐसी में स्थिति की गंभीरता को समझा जा सकता है. हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि मौजूदा वैश्‍विक परिप्रेक्ष्य में साइबर हमलों की क्षमता को भी सामरिक क्षमता का एक अंग माना जाने लगा है. एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक सिर्फ ईरान ने ही हाल के महीनों में अपनी साइबर क्षमताओं की सुरक्षा और अन्य देशों पर साइबर हमलों की क्षमता विकसित करने के लिए करोड़ों डॉलर खर्च किये.
पांच सबसे बड़े साइबर खतरे : वायरस किसी भी कंप्यूटर के लिए सबसे बड़ी समस्या के तौर पर जाना जाता है. पिछले कुछ वर्षों में यह समस्या काफी जटिल हो गयी है. रूसी कंप्यूटर सुरक्षा फर्म कास्पर्सकी के मुताबिक, आने वाले समय में इनसे ये पांच सबसे बड़े ख़तरे हो सकते हैं.
कंप्लीट डार्कनेस :पिछले दिनों ईरानी कंप्यूटर सिस्टम में वायरस के हमले के कारण उसके प्रमुख तेल संस्थानों के कंप्यूटर अचानक ही ऑफलाइन हो गये. आने वाले समय में ऐसा हमला और भी व्यापक स्तर पर हो सकता है. इससे पूरा बिजली संयंत्र ही प्रभावित हो सकता है और हमारे पास इस समस्या का कोई तात्कालिक समाधान नहीं होगा. यदि ऐसा होता है तो हम कंप्लीट डार्कनेस के साथ दो सौ साल पहले की स्थिति यानी पूर्व विद्युत युग में पहुंच जाएंगे.
बदल देगा हमारी सोच :सोशल नेटवर्किंग सिस्टम के माध्यम से लोगों के सोच को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया जा सकता है. कंप्यूटर सुरक्षा फर्म कास्पर्सकी के प्रमुख इजीन कास्पर्सकी का कहना है कि द्वितीय विश्‍व युद्धके दौरान हवाई जहाजों से शत्रु देशों में अपने प्रोपेगेंडा के प्रचार-प्रसार के लिए पर्चे गिराये जाते थे. आज यही काम सोशल नेटवर्किंग साइटों के जरिए हो रहा है. पिछले महीने चीन में ब्लॉग पर यह खबर तेजी से फैली कि देशमें विद्रोह हो गया है और सेना की टैंक सड़कों पर तैनात हैं. बाद में यह खबर झूठी निकली. अरब क्रांति के दौरान सोशल साइटों ने प्रदर्शन को सफल बनाने में अहम भूमिका निभाई.
वेब किड्स : तीसरा सबसे बड़ा खतरा यह हो सकता है कि इंटरनेट पीढ़ी इसी के साथ व्यस्त हो जायेगी. आज के बच्चे डिजिटल वर्ल्ड में बड़े हो रहे हैं. कुछ समय बाद वे बड़े हो जाएंगे और उन्हें वोट भी देना होगा. अगर ऑनलाइन वोटिंग सिस्टम की सुविधा नहीं होगी, तो वे वोट देने ही नहीं जाएंगे. इस तरह तो पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया ही बिगड़ जायेगी. इसके अलावा बो और अभिभावक के बीच की खाई भी बढ.ती जायेगी.
अकाउंट हैकिंग :किसी भी कंप्यूटर यूजर के लिए साइबर अपराध वर्षों से चिंता की बात रही है. कोई भी कंप्यूटर वायरस से सुरक्षित नहीं है. साइबर अपराधी प्रतिदिन पूरी दुनिया में हैकिंग के वायरस फैला रहे हैं. हाल में यह खतरा स्मार्टफोन तक फैल गया है.
निजता (प्राइवेसी) का खतरा :आजकल प्राइवेसी खत्म-सी हो रही है. गूगल स्ट्रीट व्यू, सीसीटीवी कैमरा और कृत्रिम उपग्रह के जरिए सभी की नजर हम पर होती है. इमेल, सोशल वेबसाइट आदि के इस्तेमाल में भी निजी सूचनाओं का आदान-प्रदान होता है, जिसके सार्वजनिक होने का खतरा रहता है. वायरस के जरिए इन सूचनाओं के साथ छेड़छाड़ भी की जा सकती है.
तो इसलिए है खतरा :फ्लेम नामक वायरस का सबसे पहले पता लगाने वाली कंपनी रूस की कास्पर्सकी का कहना है कि सभी देशों को इस तरह के हमलों की विभीषिका को समझते हुए उन पर रोक के लिए प्रयास करना चाहिए. जिस तरह से फ्लेम जैसे वायरस का हमला बढ़ा है और एंटी वायरस कंपनियां उसका काट ढूंढने में अब तक नाकाम रही हैं, उससे खतरा और बढ़ता जा रहा है. सबसे बड़ी चिंता तो इस बात की है कि हैकर समूह के अलावा कई देश भी इस तरह के साइबर हमले करने लगे हैं, लेकिन कोई भी देश या समूह ऐसे हमलों की जिम्मेदारी नहीं लेता. साइबर जासूसी का यह हथियार पारंपरिक हथियारों की तरह नहीं है. यदि एक बार ने इन्हें छोड़ दिया गया तो यह नियंत्रण से बाहर हो जाता है और अपने लक्षित उद्देश्यों के साथ-साथ अन्य चीजों को भी निशाना बना सकते हैं. उसमें बदलाव करके उसे दोबारा भी छोड़ा जा सकता है. ये वायरस भस्मासुर की तरह हैं, जो बाद में इन्हें छोड़ने वाले को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं.

मौजूदा समय की राष्ट्रीय चिंता

$
0
0
आज पूरी दुनिया में जिस तरह से आर्थिक संकट बढ.ता जा रहा है, उस स्थिति में भारत के पास भी इस संकट से खुद को बचाकर रखने के लिए बहुत कम विकल्प बचे हैं. यह बात कोई और नहीं सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु कह चुके हैं. सवाल सिर्फ यूरोजोन संकट के कारण बदतर होती वैश्‍विक आर्थिक स्थिति का ही नहीं है, अपने घरेलू मोर्चे पर भी हम कमजोर नजर आ रहे हैं. लगभग सभी महत्वपूर्ण आर्थिक पैमाने पर भारत का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है. डॉलर के मुकाबले रुपये की लगातार गिरती कीमत, घटता औद्योगिक उत्पादन और घरेलू विकास और बढ.ते घाटे ने सभी की चिंताओं को बढ़ा दिया है. सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि की मंद रफ्तार और अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा साख कम करने के कारण विदेशी निवेश पर नकारात्मक असर पड़ा है और देश से पूंजी पलायन शुरू हो गया है. पिछले दिनों अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने चेतावनी दी कि यदि समय रहते आर्थिक सुधार और वित्तीय ढांचे को दुरुस्त करने के उपाय नहीं किये गये, तो देश में निवेश पर बुरा असर पड़ सकता है. उधर, वैश्‍विक बैंक एचएसबीसी ने मौजूदा वित्त वर्ष में भारत की जीडीपी वृद्धि दर के अनुमान को 7.5 फीसदी से घटाकर 6.2 फीसदी कर दिया है. जाहिर है ऐसे में उद्योग जगत और नीति-निर्माता, सभी का चिंतित होना लाजिमी है.
चारों तरफ से आलोचना के स्वर : संकट के बीच जरूरी फैसले लेने में सरकार नाकाम नजर आ रही है. उद्योग जगत सरकार से नीतिगत स्तर पर सुधारवादी कदम उठाने का दबाव बना रही है, लेकिन सरकार है कि गंठबंधन की मजबूरियों में इतनी गहरी धंसी है कि उससे निकल ही नहीं पा रही. और इस मजबूरी को देखकर गंठबंधन के दल सरकार को हर तरह से दुहने की कोशिश में ही ज्यादा लगे हुए हैं. सरकार की आलोचना करने वालों में अंतरराष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसियां भी शामिल हो गयी हैं. क्रेडिट एजेंसिया लगातार देश की वित्तीय साख को डाउनग्रेड करती जा रही हैं. स्टैंडर्ड एंड पुअर्स ने पिछले दिनों कहा कि मंत्रिमंडल में मंत्रियों की नियुक्ति में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और सहयोगी दल की भूमिका अधिक है. नतीजतन प्रधानमंत्री अपनी उदारवादी आर्थिक नीतियों को लेकर मंत्रिमंडल को प्रभावित नहीं कर पाते. इसे सरकार को लेकर दुनियाभर में नकारात्मक माहौल के तौर पर देखा जा सकता है.
कई सत्ता केंद्रों ने बढ़ायी समस्या : मौजूदा समस्या का सबसे बड़ा कारण केंद्रीय स्तर पर कई सत्ता केंद्रों के उदय को माना जा रहा है. केंद्र की नीतियां दिल्ली के नॉर्थ ब्लॉक में नहीं कोलकाता और चेत्रई में ज्यादा तय की जा रही है. तय नहीं भी की जा रही हों, वहां से बदली जरूर जा रही हैं. और ऐसा हम कई मामलों में देख भी चुके हैं. इस टकराव को जब-तब देखा जा सकता है. चाहे वह राष्ट्रीय आतंकरोधी केंद्र (एनसीटीसी) का मुद्दा हो या फिर रिटेल क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) का मामला राज्यों के क्षत्रप इनमें अपना हस्तक्षेप करते दिखते हैं. पेंशन बिल से लेकर अन्य विधेयकों पर तृणमूल कांग्रेस और डीएमके जैसी सहयोगी पार्टियां सरकार को आ.डे हाथों लेती रहती हैं. नतीजतन, सरकार एक कदम आगे बढ.ना चाहती है और चार कदम पीछे पहुंच जाती है. जानकारों के मुताबिक, मौजूदा सरकार की नीतियां प्रोग्रेसिव (प्रगतिशील) न होकर रेग्रेसिव (प्रतिगामी) लगने लगी हैं. इस समस्या का उपाय यही है कि सहयोगी दल ही नहीं विपक्षी दल भी साथ मिलकर राष्ट्रीय हित में फैसले लेने की शुरुआत करें. लेकिन फिलहाल ऐसे आसार नजर नहीं आ रहे. क्योंकि अभी तक तो सहयोगी दल ही केंद्र सरकार को हलकान किये हुए हैं. इस मुश्किल हालात को देखते हुए सबसे बड़ी पार्टी होने और केंद्र सरकार का नेतृत्व करने के नाते कम से कम कांग्रेस को अपने भ्रमों और अनिर्णय की स्थिति से निकलने की जरूरत है, लेकिन वह भी इसमें नाकाम नजर आ रही है.
राष्ट्रीय नीति बनाने में नाकामी :  आर्थिक क्षेत्र में सुधार बड़ी चुनौती है. एक एकल गुड्स एंड सर्विस टैक्स(जीएसटी), प्रत्यक्ष कर संहिता सुधार, अंतरराज्यीय बाधाओं को दूर करते हुए एकल कृषि बाजार प्रबंधन, बीमा, बैंकिंग, टेलीकॉम, उड्डयन और खुदरा क्षेत्र में उदार विदेशी निवेश, उदार श्रम कानून, पारदश्री भू-अधिग्रहण, खनन और पर्यावरण कानून के मसले प्रमुख हैं. लेकिन ये सब राजनीतिक लड़ाई के कारण अटके प.डे हैं. निकट भविष्य में भी इन पर कोई फैसला होता नहीं दिखता.

''अंतरिक्ष युद्ध'' में चीन से हारता भारत

$
0
0
महाशक्ति बनने की चीन की महत्वाकांक्षा किसी से छिपी नहीं है. चीन धरती से आसमान तक अपनी शक्ति का प्रदर्शन करना चाहता है. चीन के अंतरिक्ष कार्यक्रम को इस महत्वाकांक्षा की मिसाल कहा जा सकता है. चीन ने शनिवार को शेंझोउ-9 नामक मानवयुक्त यान अंतरिक्ष में भेजकर दुनिया को यह संदेश देने की भले उसने अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम अमेरिका और रूस के काफी बाद शुरू किया हो, लेकिन वह अब उनके बराबर पहुंच चुका है. शेंझोउ-9 मिशन एक महिला सहित तीन यात्रियों को लेकर 16 जून 2012 को अंतरिक्ष की ओर रवाना हुआ. शेंझोउ-9 चीन का चौथा मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन है. चीन का अंतरिक्ष कार्यक्रम भारत और दुनिया के लिए बड़ी चुनौती है. अभी तक सिर्फ अमेरिका और रूस ने अंतरिक्ष में मानवयुक्त मिशन भेजा था. अब चीन ऐसा करने वाला दुनिया का तीसरा देश बन गया है. अंतरिक्ष में अपनी शक्ति प्रदर्शित करने की इस दौड़ में भारत चीन से काफी पीछे नजर आ रहा है. अंतरिक्ष में बादशाहत की जंग को देखें तो भारत ने भी पिछले कुछ वर्षों में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं. 22 अक्तूबर 2008 को चंद्रयान-1 के सफल प्रक्षेपण के बाद अब चंद्रयान-2 को अंतरिक्ष में भेजने की तैयारी है. यह अंतरिक्ष में भारत के बढ.ते कदम को बतलाता है. लेकिन, इसके बावजूद इस क्षेत्र में भारत चीन से मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है. हां अगर इस आपसी रेस से अलग अंतरिक्ष में विकासशील देशों के बढ.ते दखल के हिसाब से देखें तो चीन और भारत की उपलब्धियां इस बात का सबूत हैं कि अंतरिक्ष विज्ञान में अमेरिका-रूस के प्रभुत्व वाले दिन खत्म हो गये हैं.
स्पेस रेस का वह दौर : स्पेस में में वर्चस्व कायम करने होड़ 1950 के दशक में दो महाशक्तियों अमेरिका और सोवियत संघ के बीच देखने को मिली थी. इसे स्पेस रेस के नाम से जाना गया. सोवियत संघ ने 4 अक्तूबर 1957 को पहला कृत्रिम उपग्रह स्पुतिनक-1 पृथ्वी की कक्षा में प्रक्षेपित किया था. इसके बाद अमेरिकी अपोलो-11 अंतरिक्ष यान को चंद्रमा पर 20 जुलाई 1969 को उतारा गया था. हालांकि, दोनों देशों को इस होड़ की कीमत भी चुकानी पड़ी. 1960 में सोवियत संघ की नेडेलीन नामक त्रासदी स्पेस रेस की सबसे भयावह दुर्घटना थी. दरअसल, 24 अक्तूबर 1960 को मार्शल मित्रोफन नेडेलीन ने प्रायोगिक आर-16 रॉकेट को बंद और नियंत्रित करने की गलत प्रक्रिया निर्देशित की. नतीजतन, रॉकेट में विस्फोट हो गया, जिससे लगभग 150 सोवियत सैनिकों और तकनीकी कर्मचारियों की मौत हो गयी. उधर, 27 जनवरी 1967 को अमेरिकी यान अपोलो-1 ते ग्राउंड टेस्ट के दौरान केबिन में आग लग गयी और घुटन के कारण तीन क्रू सदस्यों की मौत हो गयी. इसके अलावा दोनों देशों को अंतरिक्ष रेस की बड़ी आर्थिक कीमत चुकानी पड़ी है.
भारत और चीन में प्रतिद्वंद्विता: भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की योजना वर्ष 2025 तक मानवयुक्त अंतरिक्ष यान भेजने की है. इसकी योजना सुरक्षा के लिए उपग्रह आधारित कम्युनिकेशन और नेविगेशन सिस्टम इस्तेमाल करने की भी है. लेकिन, भारत का प्रतिद्वंद्वी पड़ोसी चीन का अंतरिक्ष के उपयोग को लेकर भारत से थोड़ा अलग एजेंडा है. इसरो के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, भारत के पास 21 उपग्रह हैं. इनमें से 10 संचार और 4 तसवीर लेने की क्षमता से लैस निगरानी करने वाले उपग्रह हैं. बाकी सात भू-पर्यवेक्षण उपग्रह हैं. इनका इस्तेमाल दोहरे उद्देश्यों के लिए किया जा सकता है. ये रक्षा उद्देश्यों के लिए भी प्रयोग में आ सकते हैं. चीन से यदि प्रत्यक्ष तुलना करें तो भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम अपनी सफलताओं के बावूद चीन से पीछे नजर आता है, जबकि हकीकत यह है कि दोनों देशों ने एक साथ 1970 के दशक में अपना अंतरिक्ष कार्यक्रम गंभीरता से शुरू किया था. खासकर मानवयुक्त मिशन को लेकर दोनों देशों के बीच फासला काफी बड़ा नजर आता है. भारत के लिए ऐसे किसी मिशन की संभावना अगले दशक में ही है, जबकि चीन ने 2003 में ही मानव को अंतरिक्ष में भेज दिया था.
हम कहां रह गये पीछे : वर्ष 1992 में भारत जब आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का सामना कर रहा था, उस वक्त चीन में प्रोजेक्ट-921 की शुरुआत हुई. यह मिशन इंसान को अंतरिक्ष में ले जाने से संबंधित था. 2003 तक इसके तहत पांच मिशन अंतरिक्ष में भेज चुके थे. अभी तक नौ चीनी नागरिक अंतरिक्ष की सैर कर चुके हैं. इसकी तुलना में भारत अभी दोबारा इस्तेमाल में आने वाले स्पेस व्हीकल तकनीक के विकास में ही लगा है. इसरो जीएसएलवी-मार्क-3 विकसित कर रहा है. जबकि भारत में इस तरह के प्रोग्राम का कहीं कोई जिक्र नहीं है. आज अंतरिक्ष में चीन के 57 से अधिक उपग्रह हैं, जबकि भारत के मात्र 21 उपग्रह ही हैं. चांद के बारे में जानकारी हासिल करने के लिए भारत चंद्रयान-1 भेज चुका है. साल 2008 में देश का पहला मानवरहित यान भेजा गया था और 2016 तक चंद्रयान-2 को भेजने की योजना है. चीन ने 2020 तक अंतरिक्ष में स्पेस स्टेशन स्थापित करने की घोषणा की है. शेंझोउ-9 नामक अंतरिक्ष यान उसकी इसी योजना की कड़ी का हिस्सा है.
बढ.ती महत्वाकांक्षा : चीन का हालिया अंतरिक्ष मिशन अभी तक की सबसे महत्वाकांक्षी योजनाओं में एक है. यह बतलाता है कि बीजिंग किस तरह अपनी तकनीकी क्षमताओं को बढ.ा रहा है और इस मामले में संयुक्त राज्य अमेरिका एवं रूस के साथ इस खाई को पाट रहा है. शेंझोउ-9 को तीन अंतरिक्ष यात्रियों के साथ गोबी मरुस्थल से रवाना किया गया. सबसे बड़ी बात की इस मिशन पर पहली चीनी महिला अंतरिक्ष यात्री को भी भेजा गया है. यह मिशन चीन के लिए एक लंबी छलांग है, जिसकी शुरुआत 1999 में शेंझोउ-1 से हुई. इस पहले मिशन पर किसी भी क्रू मेंबर को नहीं भेजा गया. इसके दो साल बाद शेंझोउ-2 को अंतरिक्ष में रवाना किया गया. इसके साथ प्रयोग के तौर पर छोटे जानवरों को अंतरिक्षयान के साथ भेजा गया. और, साल 2003 में चीन ने शेंझोउ-5 अभियान में चीन अंतरिक्ष में अपना पहला अंतरिक्षयात्री भेजा. 2008 में शेंझोउ-7 स्पेस मिशन में चीनी यात्रियों ने स्पेस वाक को भी अंजाम दिया. पिछले साल मानवरहित अंतरिक्ष यान शेंझोउ तियांगोंग-01 से अंतरिक्ष में जोड़ा (डॉक) किया गया. लेकिन, अभी जिस मिशन पर चीनी अंतरिक्षयात्री गये हैं, यह तकनीकी तौर पर और अधिक चुनौतीपूर्ण है, क्योंकि अंतरिक्षयात्रियों को इसे मैन्युअली डॉक करना होगा.
ऑस्ट्रेलियाई अंतरिक्ष विशेषज्ञ मॉरिस जोन्स के मुताबिक, यह अभी तक का चीन का सबसे महत्वाकांक्षी अंतरिक्ष मिशन है. यह बतलाता है कि चीन अंतरिक्ष में अपने दूरगामी उद्देश्यों के प्रति कितना गंभीर है. अगर इस मिशन पर अंतरिक्ष यात्री यान को सफलतापूर्वक डॉक करने में कामयाब हो जाते हैं तो चीन 2020 तक अपना अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने की दिशा में एक कदम और आगे बढ. जायेगा.
वैश्‍विक अंतरिक्ष महाशक्ति : चीन अपना अंतरिक्ष स्टेशन बना लेने के बाद यही नहीं रुकने वाला है. इस मिशन के बाद वह चंद्रमा पर पहुंचने के अलावा सैटेलाइट ऑब्र्जवेशन और ग्लोबल पोजिशिनिंग सिस्टम (जीपीएस) जैसे अभियानों की तैयारी में है. उसका सीधा लक्ष्य भारत नहीं, बल्कि अंतरिक्ष के क्षेत्र में अमेरिका को टक्कर देना है. क्योंकि भारत अभी उससे काफी पीछे है. इसी क्रम में साल 2016 तक चीन विकास और अर्थव्यवस्था की जरूरतों को पूरा करने के लिए उपग्रहों के उपयोग को भी बढ़ाने वाला है. उसने 2011 मेंउसने यूएस-जीपीएस का चीनी प्रारूप लॉन्च भी किया. इस सिस्टम से उसे नेविगेशन में मदद मिलेगी. इस साल तक यह सैटेलाइट पूरे एशिया को कवर कर लेगा और 2020 तक पूरी दुनिया इसके जद में आ जायेगी.
अमेरिका से आगे निकलने की तैयारी : 1980 के दशक तक चीन सिर्फ उपग्रहों को ही विकसित करने पर ध्यान देता था और इसके लिए वह रूस और अमेरिकी मदद लेता था. लेकिन, अब जिस रफ्तार से वह अंतरिक्ष में अपनी पैठ बढ़ाता जा रहा है, उससे वह बहुत जल्द ही अमेरिका और रूस के बराबर खड़ा हो जायेगा. हालांकि, इसमें उसे कम से कम दस साल का वक्त लग जायेगा. गौरतलब है कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की परियोजना से दूर रहा है और अब साबित करना चाहता है कि वह अपने बूते इसी तरह का स्टेशन स्थापित करने में सक्षम है.
अमेरिकी-रूसी वर्चस्व को चुनौती : अंतरिक्ष के क्षेत्र में साल 2011 चीन के लिए सबसे अधिक सफल रहा. इस दौरान उसने अंतरिक्ष में रूस और अमेरिका के एकछत्र राज्य को चुनौती देते हुए पूरी तरह से स्वदेशी तकनीक पर निर्भर अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने की दिशा में पहला कदम बढ़ाया. पिछले साल ही चीन ने तियांगोंग परियोजना के तहत सितंबर के आखिरी में तियांगोंग श्रेणी के पहले मॉड्यूल को अंतरिक्ष में रवाना किया. इसके रवाना होने के कुछ ही दिन बाद मानवरहित अंतरिक्ष यान शेंझोउ-8 को भी प्रक्षेपित किया गया. इस अंतरिक्ष यान को तियांगोंग-01 से अंतरिक्ष में जोड़ा (डॉक) किया गया. चीन के मुताबिक, वह इन परीक्षणों के आधार पर 2016 तक अंतरिक्ष में अपनी खुद की एक प्रयोगशाला स्थापित करेगा, जहां भारहीनता की स्थिति में बहुत से प्रयोग किये जा सकेंगे. फिलहाल चीन का स्वदेशी तकनीक से बना यह अंतरिक्ष स्टेशन मौजूदा समय में रूस, अमेरिका और दूसरे देशों के सहयोग से बने अंतराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आइएसएस) के बाद दूसरे स्थान पर होगा.2003 में पहली बार चीन ने मानवयुक्त अंतरिक्षयान भेजा था. अभी तक नौ अंतरिक्ष मिशन.2016 में भारत चंद्रयान-2 को प्रक्षेपित करेगा, पहले इसे 2014 में ही प्रक्षेपित करना था.2020 तक चीन की योजना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन स्थापित करने की है.2025 में भारत के इसरो की योजना मानवयुक्त अंतरिक्षयान भेजने की है.

केशुभाई की नाराज़गी और राष्ट्रीय राजनीति में नीतीश-ममता

$
0
0
नरेंद्र मोदी के विरोध को लेकर लोगों की अलग-अलग राय है. ज्यादातर लोगों को उनकी छवि से नफरत है. वैसे भी गुजरात नरसंहार को भला कौन भूल सकता है. भूलने योग्य है भी नहीं. लेकिन गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल का दर्द कुछ और ही है. हर पांच साल पर विधानसभा चुनाव होता है और यह बताया जाता है कि केशुभाई मोदी से नाराज़ हैं. वह नाराज़ पिछली बार भी थे, लेकिन मोदी की जीत के बाद पांच साल तक चुप रहे. फिर गुजरात में चुनाव होने हैं, तो केशुभाई फिर से नाराज़ हो गये हैं. दिल्ली में आला नेताओं को मोदी के प्रति अपनी नाराज़गी बता रहे हैं. पिछली बार तो केशुभाई के अलावा संघ के लोग भी मोदी से खुश नहीं थे. वजह मोदी संघी लोगों को भाव नहीं दे रहे थे. लेकिन यही संघी अब मोदी को प्रधानमंत्री की दावेदारी में आगे बढ़ा रहे हैं. इधर, नीतीश का राग अलग ही है. नीतीशजी अगर यह सोच रहे हैं कि धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार की बात करके खुद को आगे बढ़ाना चाहते हैं तो यह उन्हें मालूम होना चाहिए कि देश की राजनीति में अब एचडी देवगौड़ा जैसा वाकया कभी नहीं दोहराया जाने वाला है. हालांकि ख़ुद को वह प्रधानमंत्री पद की रेस से अलग बता चुके हैं, फिर भी मन में महत्वाकांक्षा हिलोरे तो ज़रूर मार रही होगी. यही वजह है कि प्रणब दा के बहाने कांग्रेस की ओर झुकाव बढ़ता जा रहा है. वह अच्छी तरह जानते हैं कि अगले चुनाव में कांग्रेस की हालत ख़राब होने वाली वाली है. एनडीए में ख़ुद सर फुटव्वौल हो रहा है. ऐसे में उनकी चाहत यही है कि इतनी सीट लाने में सफल हो जाएं कि तोल-मोल या अलग मोरचे की नौबत में खुद को आगे बढ़ाने में कामयाब हो जाएं. लेकिन, उनकी यह मंशा भी काम नहीं आने वाली.यहां पर दो बातें समझना बहुत जरूरी है कि नीतीश अपनी रणनीति-कूटनीति में क्यों कामयाब नहीं पाएंगे. पहली बात तो यह कि कांग्रेस पहले तृणमूल के दबाव वह हर बात माने जा रही थी, जो वह मानना नहीं चाहती थी. क्षेत्रीय पार्टी होने का गरूर जो ममता दिखा रही थीं, वह पानी सर के ऊपर से गुजरने लगा था. सभी कांग्रेस नेतृत्व पर सवाल उठाने लगे थे कि राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां, जिस तरह से क्षेत्रीय दलों के सामने घुटने टेक रही हैं, उससे देश की राजनीति को गलत दिशा मिल रही है. सभी नीतियां प्रभावित हो रही हैं. अंततः कांग्रेस ने तमाम नखरे झेलने के बाद दीदी को उनकी हैसियत बता दी. हालांकि, दीदी की सराहना इस बात को लेकर की जा सकती है कि वह अपनी बातों से हटी नहीं. मुलायम सिंह गिरगिट की तरह रंग बदलते रहे. पाला बदलते रहे. मुलायम यह सोच रहे थे कि अगर ममता यूपीए से बाहर होती हैं, तो उनका कद बढ़ जायेगा और वह इसकी मुंहमांगी क़ीमत वसूल सकते हैं. लेकिन उनकी भी मंशा पूरी नहीं हुई. यानी कांग्रेस ने एक तीर से दो शिकार किया. दोनों क्षेत्रीय दलों को बता दिया कि कुएं के मेढ़क को कभी कुएं से नहीं निकलना चाहिए. अब दूसरी बात यह कि, नीतीश ने जिस तरह से भाजपा-एनडीए पर दबाव बनाना शुरू किया था, उससे लग रहा था कि पार्टी की बिहार इकाई की तरह राष्ट्रीय स्तर पर भी भाजपा उसके पीछे दुब हिलाने लगेगी. यही सोचकर उन्होंने धर्मनिरपेक्ष प्रधानमंत्री उम्मीदवार का दांव खेला. उनका काम सबसे पहले मोदी को अपने रास्ते से हटाना था. वह जानते हैं कि अगर मोदी उनके रास्ते से हट गये तो भले ही उन्होंने खुद को प्रधानमंत्री उम्मीदवार की रेस से बाहर बताया हो, वह रेस में दोबारा शामिल हो सकते हैं. क्योंकि राजनीति में हमेशा हर बात की संभावना बनी रहती है.पॉलिटिक्स इज़ ऑलवेज़ प्रिगनेंट विद पॉसिबिलिटीज़.नीतीश को पता है कि भाजपा में प्रधानमंत्री बनने की चाहत कई लोगों में है, लेकिन मोदी इस दावेदारी की तरफ़ बहुत तेज़ी से आगे बड़ रहे हैं. अगर उन्हें रोका नहीं गया तो उनकी रही-सही संभावना खत्म हो जायेगी. लेकिन, नीतीश का दावं गलत पड़ा. उन्होंने प्रणब दा को समर्थन देकर एक-तीर से दो शिकार करना चाहा. भाजपा पर तीखे प्रहार और यह कदम नीतीश के लिए घातक रहा. उन्हें यक़ीन नहीं था कि भाजपा की तरफ़ से उन्हें इस तरह जवाब मिलेगा, पहले तो उनके ही मंत्रिमंडल में भाजपा के कोटे के मंत्री गिरिराज सिंह ने करारा जवाब दिया. फिर, बलबीर पुंज ने और लगे हाथ सुषमा स्वराज ने भी इशारों ही इशारों में उन्हें बता दिया कि उनका बयान कितना ग़लत था और उनके किसी भी बयान को भाजपा तवज्जो नहीं देती. यानी एक तरफ कांग्रेस और दूसरी तरफ भाजपा ने क्षेत्रीय दलों उनकी हैसियत बता दी.

एक रहस्य है वो

$
0
0
आख़िरी मैसेज मैंने ही भेजा था. क्योंकि उसने जवाब देना सही न समझा. मैंने ख़ुद को समझाने की कोशिश की थी. इस बार दिल से नहीं दिमाग से सोचने का फ़ैसला किया था. दिमाग तो मान गया पर दिल वहीं उलझा रहा और इस उलझन ने कंफ्यूज्ड कर दिया. जवाब तो उसने नहीं दिया था, पर उदास थी वो या ऐसा जताना चाहती थी कि वो उदास है. नहीं-नहीं वो उदास ही थी. उसने उदासी का सिंबल पोस्ट किया था. कुछ लाइक और कमेंट थे उसी के ख़ास दोस्तों के. वजह मुझे पता थी, लेकिन फिर मैंने जानना चाहा था. दिल की मजबूरी थी, लेकिन दिमाग के कहने पर उसे बाद में डिलीट कर दिया. कुछ इसी तरह मन को मनाने की कोशिश जारी रही...आज एकबार फिर उसका स्टेटस देखा, शिकायत के अल्फाज़ डाले थे इस बार उसने अपने मैसेज में. शिकायत, लेकिन किससे? मुझसे तो कतई नहीं. मैं तो शायद याद भी न होऊं. शायद होऊं भी. नहीं-नहीं कभी नहीं. लेकिन वो मीठा-सा एहसास अभी भी याद है मुझे, किस तरह हुई थी बात, फिर बढ़ती गई बेसब्री. बढ़ा बातों का अंतराल. फिर आई वो कुछ मेरे करीब, लेकिन अचानक कट गई डोर पतंग की. वहीं मान-मर्यादा, परंपरा, समाज, घर-द्वार, मम्मी-पापा. उसके फ़ैसले में सभी थे. लेकिन अपने जीवन के इस फ़ैसले में वो कहीं नहीं थी. नहीं थी. हां, बिल्कुल ही नहीं थी. आज जब देखा उसका मैसेज तो फिर वही लम्हा याद आया. कौन-सा लम्हा? नहीं, तुम नहीं समझ सकते उसने यही कहा था. एक नहीं कई बार. पता नहीं क्या जताना चाहती थी वो. जताना तो मैं भी चाहता था. लेकिन इगो. घमंड. इस इगो को मारने के चक्कर में शायद मैंने सेल्फ रेसपेक्ट से भी समझौता किया हो. लेकिन इसका मलाल नहीं मुझे. अगर किसी को कुछ बातों से खुशी मिलती है, तो वह खुश ही सही. अपने हिस्से में ग़म का दरिया है, जो बहता जाता है. बहता जाता है, तब तक जब तक कि वह सागर में नहीं मिल जाता. लेकिन, मैं जानता हूं सागर बहुत दूर है. उतनी ही दूर जितनी दूर आज वो है मुझसे. फिर भी याद आती हो उसकी. पता नहीं लोग क्यों कहते हैं, वक्त हर जख्म को भुला देता है. लेकिन कुछ जख्म ऐसे भी तो होते हैं, जो वक्त के साथ और हरा होता जाता है. रिसता रहता है.
''कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है,
कि जिंदगी तेरी ज़ुल्फों की नर्म छांव में गुजरने पाती
तो शादाब हो भी सकती थी,
ये रंजो-ग़म की स्याही जो दिल पे छाई है
तेरी नजर की शुआओं में खो भी सकती थी,
मगर ये हो न सका और अब ये आलम है कि
तू नहीं, तेरा ग़म, तेरी जुस्तजू भी नहीं.
गुज़र रही है कुछ इस तरह ज़िंदगी जैसे,
इसे किसी के सहारे की आरज़ू भी नहीं.
न कोई राह, न मंज़िल और न रोशनी का सुराग,
इन्हीं अंधेरों में भटक रही है, ज़िंदगी मेरी.
रह जाऊंगा इन अंधेरों में कभी खोकर,
मैं जानता हूं मेरे हम-नफ़स मगर यूं ही,
कभी-कभी मेरे दिल में ख्याल आता है।.......''(कभी-कभी, साहिर लुधियानवी)

''भारतीय सिनेमा का पहला सुपरस्टार''

$
0
0
एक सुपरस्टार के तौर पर राजेश खन्ना का उदय और अस्त जिस नाटकीय अंदाज़ में हुआ, शायद ही ऐसा किसी कलाकार के साथ हुआ हो! 1969 से 1972 तक, राजेश खन्ना नामक एक फेनोमना ने बॉलीवुड को कदमों पर लाकर रख दिया. उन्होंने जो हिस्टीरिया  पैदा किया, वैसा फिल्म इंडस्ट्री में न पहले कभी देखा गया और न ही बाद में. दरअसल, 1969 से 1973 के इन तीन वर्षों में राजेश खन्ना ने एक के बाद एक 15 लगातार हिट फिल्में दीं. यह अभी तक एक रिकॉर्ड है. अभी तक यह कीर्तिमान कोई कलाकार या एक्टर नहीं तोड़ पाया है. ऑल इंडिया टैलेंट प्रतियोगिता जीतकर फिल्म इंडस्ट्री में कदम रखने वाला राजेश खन्ना की पहली फिल्म थी, आख़िरी ख़त. यह फिल्म 1966 में आयी थी. इसके बाद आयी राज़. लेकिन दोनों फिल्में ज्यादा नहीं चली. ऐसा कहा जाता है कि राजेश खन्ना एकमात्र स्ट्रगलिंग एक्टर थे, जो उन दिनों फिल्म निर्माताओं से काम मांगने अपनी कार से जाते थे. उनकी शुरुआती फिल्मों से करियर को कुछ ख़ास फायदा नहीं हुआ. लेकिन, 1969 में आयी आराधनाने उन्हें रातों-रात सुपरस्टार बना दिया. बाप और बेटे के डबल रोल वाले किरदार ने उनके चाहने वालों को दीवाना बना दिया. आरडी बर्मन के संगीतों ने मेरे सपनों की रानी, कोरा काग़ज़ था ये मन मेरा, रूप तेरा मस्ताना, गुनगुना रहे हैं भंवरे, गानों के साथ आराधना को गोल्डन जुबली हिट बना दिया. राज खोसला की दो रास्तेभी गोल्डन हिट रही. उन दिनों आलम यह था कि बांबे में एक सड़क के दोनों किनारे वाले थिएटर में से एक ओपेरा हाउसमें आराधना लगी थी, तो दूसरी तरफ रॉक्सीमें दो रास्ते. अब बांबे में किसी एक एक्टर के लिए इससे बड़ी बात उन दिनों कुछ नहीं हो सकती थी. 1969 तक तो हाल ये था कि लगता कि राजेश खन्ना कुछ भी ग़लत नहीं कर सकता है. एक के बाद एक फिल्में बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा रही थीं. अभी तक उनकी फिल्मों एक मैनरिज्म झलकता था. लेकिन, उनमें इस मैनरिज्म से भी अधिक काफी कुछ था. 1969 की ख़ामोशी, सफर (1970) औरआनंद (1970) में उन्होंने दिल से बेहद संवेदनशील किरदारों को निभाया. कैंसर से पीड़ित, लेकिन मरने से पहले अपनी पूरी ज़िंदगी जीने की चाहत रखने वाले शख्स के तौर आनंद संभवतः उनकी सबसे महान परफॉरमेंस वाली फिल्म थी. आनंद में राजेश खन्ना फ्रैंक काप्रा के अमर्त्य संबंधी विचारों को जस्टीफाइ की परिकल्पना से भी आगे ले गये...,ट्रैजडी वह नहीं है, जब एक्टर रोता है. ऑडिएंस का रोना ही ट्रैजडी है.फ़िल्म के अंत में जब अमिताभ राजेश खन्ना के मृत शरीर के बगल में बैठे होते हैं और टेपरिकॉर्डर से राजेश खन्ना की आवाज़ आती है, तो उस वक्त आपकी आंखे भर आती हैं और आप उस आंसू को रोक नहीं पाते. वह एक के बाद एक हिट फिल्में देते गये. यहां तक कि अंदाज (1971)में आयी फिल्म में उनकी मेहमान भूमिका को भी लोगों ने मुख्य हीरो शम्मी कपूर से अधिक पसंद किया. यह शम्मी कपूर काल के अंत और राजेश खन्ना काल के शीर्ष पर होने का प्रतीक था. हालांकि, राजेश खन्ना ने अपने दौर की शीर्ष अभिनेत्रियों वहीदा रहमान, नंदा, माला सिन्हा, तनुजाऔर हेमामालिनीके साथ काम किया, लेकिन उनकी जोड़ी सुपरहिट रही शर्मिला टैगोरऔर मुमताज़के साथ. बीबीसी ने 1973 में अपने डॉक्यूमेंट्री सिरीज़ मैन अलाइव में राजेश खन्ना के बारे में बांबे सुपरस्टार नामक कार्यक्रम पेश किया. यह पहली बार था जब बीबीसी ने बॉलीवुड के किसी एक्टर पर डॉक्यूमेंट्री बनाने का फ़ैसला किया था. राजेश खन्ना ने निर्देशक शक्ति सामंत, संगीतकार आरडी बर्मन और गायक किशोर कुमार के साथ जबरदस्त तालमेल बनाया. यह तिकड़ी और राजेश खन्ना के साथ का ही नतीजा था कि लोगों को कटी पतंग (1970)और अमर प्रेम (1971)जैसी फिल्में देखने को मिली. ह्रषिकेश मुखर्जी के साथ बावर्जी (1972) में राजेश खन्ना के हरमनमौला रसोइया का किरदार कौन भूल सकता है, वहीं नमक हरामने तो अमिट छाप छोड़ी. करियर के शीर्ष काल में राजेश खन्ना को देखने के लिए भीड़ का पागल हो जाना आम बात थी. कहा तो यहां तक जाता है कि लड़कियां उन्हें ख़ून से ख़त लिखा करती थी. उनकी तसवीर से शादी करती थीं. भारतीय सिनेमा में सुपरस्टार शब्द पहली बार राजेश खन्ना के लिए ही इस्तेमाल हुआ था. वह वाकई हमारे सुपरस्टार थे और रहेंगे.
                                                          (राजेश खन्ना मेरी नज़र से)
Viewing all 59 articles
Browse latest View live




Latest Images