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पानीवाली बाई ''मृणाल गोरे''

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भारतीय सिनमा के पहले सुपरस्टार के ग़म में हम इस कदर डूब गये कि मृणाल गोरेको भूल ही गये. यह बदलते दौर का प्रतीक है. हमारे हक़ की लड़ाई लड़ने वाली महिला ने जब आख़िरी सांसें ली, तो मुख्यधारा मीडिया से सोशल मीडिया सबने खा़मोशी बरती. यह लवर ब्वॉय के जाने का मातम था या उस मातम में हम इतने मशगूल हो गये कि एक ज़मीनी लड़ाई लड़ने वाली गोरे हमें याद ही नहीं आयीं. 17 जुलाई 2012 को अंतिम सांस लेने वाली 83 वर्षीय गोरे एक खांटी समाजवादी नेता थी. वह सांसद भी रह चुकी थीं. मुंबई उपनगरीय क्षेत्र के गोरेगांव इलाके में पीने के पानी की सुविधा मुहैया कराने की उनकी कोशिशों की वजह से ही उन्हें पानीवाली बाई के नाम से जाना जाता है.1977 में छठे लोकसभा के लिए चुने जाने से पहले वो महाराष्ट्र विधानसभा में नेता विपक्ष थीं. 1977 का साल वही साल था, जब इंदिरा गांधी की करारी हार हुई थी.  लोकसभा का चुनाव जीतने के बाद जब वह दिल्ली लोकसभा पहुंची तो एक स्लोगन काफी मशहूर हुआ था, ''पानीवाली बाई दिल्ली में, दिल्ली वाली बाई पानी में''यह इंदिरा गांधी की हार के बाद उन पर किया गया सबसे तीखा व्यंग्य था. आज जबकि नेता मंत्री पद पाने के लिए जोड़-घटाव और तमाम तरह के गुना-भाग का सहारा लेते हैं. आज कृषि मंत्री शरद पवार को जब यूपीए में नंबर दो का पावर नहीं मिला तो वे रूठ गये. वहीं तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने जब गोरे को स्वास्थ्य मंत्री बनने की पेशकश की, तो उन्होंने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया. यह उनके जनता के लिए काम करने की इच्छाशक्ति को बतलाता है. आज अन्ना हजारे जो लोकपाल के मुद्दे पर लोगों से अपने-अपने सांसदों का घेराव करने की बात कहते हैं, यह अनूठा तरीक़ा मृणाल गोरे ने ही अपनाया था. वह विरोध के तौर पर मंत्रियों और प्रशासन का घेराव करने का नायाब फॉर्मूला अपनाया, जो कारगर भी हुआ. महंगाई से लेकर कई मुद्दों पर सरकार को उन्होंने कठघरे में खड़ा किया. 1974 में जब जॉर्ज फर्नांडीस ने रेलवे में हड़ताल का आह्वान किया था, तो उस वक्त सारे नेताओं को गिरफ्तार किया गया. फर्नांडीज की गिरफ्तारी वाली वह तसवीर आज भी लोगों को याद है. इस दौरान आंदोलन को जारी रखने के लिए गोरे किसी तरह गिरफ्तारी से बचने में सफल रही थीं. आज जबकि महाराष्ट्र के मंत्रियों-मुख्यमंत्रियों पर भ्रष्टाचार का आरोप है, ऐसे में मृणाल गोरे याद आती हैं जिन्होंने संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलनसे लेकर गोवा लिबरेशन मूवमेंटके बाद अपने जीवन को आम आदमी के हितों के लिए लगा दिया. आज भले ही हमें मीडिया के जरिए हमारे सरोकारों के लिए लड़ने वालों का पता चलता हो, लेकिन उस वक्त मीडिया भी आज की तरह नहीं था. उसका दायरा सिमटा था. लोग अपने नेता की पहचान करने में सक्षम थे. आज जबकि मीडिया के बूते कोई आंदोलन खड़ा होता है, गोरे ने यह साबित किया अगर उद्देश्य जनहित है, तो मीडिया की ज़रूरत नहीं लोग खुद-ब-खुद जुड़ते चले आते हैं.
                                  मृणाल गोरे की शख्सियत को सलाम!

दलीलों से आगे बढ़ने का वक्त

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प्रणब मुखर्जी भ्रष्ट हैं. वह राष्ट्रपति तो बन गये, लेकिन इसके लिए उन्हें कई तरह के कुचक्र रचने पड़े. घोटालों के जरिए वह राष्ट्रपति बनने में सफल हो पाये. इस तरह के कई आरोप आपको सुनने को मिल सकते हैं. टीम अन्ना से लेकर कई फेसबुकिया क्रांतिकारियों तक भी. लेकिन, क्या वजह है कि ये लोग सिर्फ दलील देते हैं, कोई ठोस सबूत नहीं. तर्क-कुतर्कों के सहारे किसी को भ्रष्ट बनाने में इन्होंने जी-जान लगा दिया है. प्रणब दा भ्रष्ट हैं, क्योंकि उन्होंने ए राजा, कलमाडी जैसों की रक्षा की. अरे कैसे की बाबा. अगर वो दोषी हैं, तो सुप्रीम कोर्ट ने संज्ञान क्यों नहीं लिया. क्या सुप्रीम कोर्ट भी बिका हुआ है. सिर्फ कोरे तर्कों के आधार पर बकवासबाजी करना आसान है. क्योंकि आपको सिर्फ किसी पर आरोप लगाना होता है. आरोप लगाने बहुत आसान है, लेकिन जब उसे साबित करने की बात आती है तो पता नहीं किस बिल में छिप जाते हैं ये लोग. इस ीतरह राम जेठमलानी हैं, दशकों से कहते आ रहे हैं कि (संकेतों में ही सही) पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी का ब्लैक मनी स्विस बैंक में जमा है. उनका अकाउंट है. अभी तक साबित नहीं कर पाये हैं, वह. देश के सबसे बड़े वकील माने जाते हैं, पूरा संविधान और कानून की हर बारीकियां कंठस्थ है उन्हें, फिर भी इस तरह की बचकानी हरकत वह जारी रखते हैं. उन्हें पता होना चाहिए वकील के पास दमदार तर्क होता है, जिससे वह जज और लोगों को प्रभावित कर सकता है. लेकिन, जज सिर्फ उस तर्क के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराता. उसे सबूत चाहिए. यही सबूत आजतक जेठमलानी नहीं दे पाये हैं. जबतक कोई ठोस सबूत आपके पास, नहीं हो तब तक आप किसी को कानून दोषी नहीं ठहरा सकते है. यहां एक समस्या यह भी है कि तथाकथित फेसबुकिया और चुरकुटिया क्रांतिकारी चोर का खुन्नस उसके रिश्तेदारों पर निकालने लगते हैं.अगर कुछ लोगों को प्रणब दा के राष्ट्रपति बनने में भी घोटाला दिख रहा है, तो फिर मैं इसे उनका मानसिक दिवालियापन ही कहूंगा. अभिव्यक्ति की सही आजा़दी आजकल यही मानी जा रही है, आप कुछ भी किसी पर बकर-बकर आरोप लगाते रहिए. ज़रूरत है, दलीलों और आरोपों के दौर से आगे बढ़ने का और हर बात में नुक्ताचीनी से बचने का. साथ में, फेसबुकिया क्रांति से बाज आने का भी.

'जन'लोकपाल पर फिर घमासान !

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लोकपाल पर घमासान शुरू होने वाला है. दिल्ली जंतर-मंतर फिर होगा युद्धस्थल. अरविंद केजरीवाल होंगे इस बार के महायोद्धा. अन्ना चार दिनों पर फस्ट डाउन बैंटिंग करेंगे. केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, गोपाल राय ने नये बल्लेबाज़ के तौर पर पहले ख़ुद मोरचा संभाला है. क्या होगा इस मैच में. कौन सी टीम हारेगी और कौन जीतेगी. आंखो देखा हाल आप भारतीय न्यूज़ चैनल पर देख सकते हैं. लेकिन, सबसे बड़ा सवाल कि क्या नये योद्दा टिक पाएंगे. टिकेंगे तो कितना. लेकिन इन सबके सवालों के बीच सबसे बडी़ बात यह कि टीम अन्ना ने जिन 15 लोगों के ख़िलाफ भ्रष्टाचार का आरोप लगाया है, उसमें निर्वाचित राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भी नाम शामिल है. ऐसे में यह सवाल उठ सकता है कि अब टीम अन्ना प्रणब दा का नाम इस तरह उछालकर देश के सर्वोच्च पद का अपमान नहीं कर रही. ऐसे लोगों को यह पता होना चाहिए कि टीम अन्ना प्रणब दा पर उनके राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन दाखिल करने से पहले ही यह आरोप लगा रही है. ऐसे में यह कतई नहीं माना जाना चाहिए कि यह राष्ट्रपति पद की गरिमा का अपमान है. अगर लोगों को ऐसा लगता है तो उन्हें प्रणब दा के पास जाना चाहिए था और उनसे यह अनुरोध करना चाहिए कि प्रणब दा आप पर कुछ आरोप हैं, उसकी जांच हो जाने के बाद ही आप इस चुनाव के लिए नामांकन करिए, नहीं तो देश के सर्वोच्च पद का अपमान हो जायेगा. ख़ैर, इस बात को भी छोड़ दिया जाये तो सरकार यह तर्क भी दे सकती है कि टीम अन्ना को कमेटियों का इंतजार करना चाहिए. हर काम के लिए एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया होती है, उसका पालन ज़रूरी है. सरकार कहती है कि लोकपाल पर कमेटी काम कर रही है. इंतज़ार करिए. सरकार बख़ूबी जानती है कि जब उसे कोई काम टालना होता है, तो एक कमेटी के बाद दूसरी कमेटी बनाती है. जनलोकपाल पर पहले स्टैंडिंग कमेटी, फिर सेलेक्ट कमेटी. ''आरटीआई फाइल करके मैं सरकार से पता करने वाला हूं कि इस देश में कितनी कमेटियां काम कर रही हैं.' मैंने सरकार द्वारा बनायी गयी कमेटियों का हिसाब-किताब जानने के लिए आरटीआई फाइल करने का प्लान ख़ारिज कर दिया है. अभी-अभी पता चला है कि सरकार की इतनी कमेटियां है कि अगर वो उनकी फोटो स्टेट आपको भेजें तो दो रुपये प्रति पेज के हिसाब से आपको रिपोर्ट लेने में अपना घर तक बेचना पड़ सकता है. यानी आपको रिपोर्ट 2 रुपये प्रति पेज के हिसाब से मिलेगी और अगर उस रिपोर्ट को आप रद्दी में बेचने जाएं तो वह 2 रुपये प्रति किलोग्राम बिकेगा. 2 रुपये प्रति पेज से 2 रुपये प्रति किलोग्राम....बाप-रे-बाप...

क्यूबा में 26 जुलाई की क्रांति के कुछ पहलू

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26 जुलाई, 1953 को ही क्यूबाई क्रांति की शुरुआत हुई थी. फिदेल कास्त्रो की अगुवाई में शुरू हुई यह एक सशस्त्र-क्रांति थी, जो तानाशाह शासक फुल्जेंसियो बतिस्ता के शासन के खिलाफ थी. अपने भाई राउल कास्त्रो और मारियो चांस सहित सर्मथकों के साथ फिदेल ने एक भूमिगत संगठन का गठन किया. इस क्रांति की शुरुआत कास्त्रो द्वारा मोनकाडा बैरक पर हमले से हुई, जिसमें कई की मौत हो गयी. हालांकि, तख्तापलट की कोशिश में लगे कास्त्रो और उनके भाई पक.डे गये. 1953 में कास्त्रो पर मुकदमा चला और उन्हें 15 साल की सजा हुई. लेकिन, 1955 में व्यापक राजनीतिक दबाव के कारण बातिस्ता को सभी राजनीतिक बंदियों को छोड़ना पड़ा. इसके बाद कास्त्रो बंधु निर्वास में मेक्सिको चले गये, जहां उन्होंने बतिस्ता की सत्ता का तख्ता पलट करने की योजना बनायी. जून, 1955 में फिदेल कास्त्रो की मुलाकात अज्रेंटीना के क्रांतिकारी चे ग्वेरा से हुई. 26 जुलाई को शुरू हुई क्रांति का अंत बतिस्ता के तख्तापलट से हुई. एक जनवरी, 1959 को फिदेल कास्त्रो ने क्यूबा में नयी सरकार बनायी. जनवरी 1959 में जब फिदेल कास्त्रो क्यूबा की राजधानी हवाना पहुंचे, तो उस वक्त क्यूबा ही नहीं पूरे लैटिन अमेरिकी में खुशी की लहर थी. एक अलोकप्रिय तानाशाही शासन को उखाड़ फेंका जा चुका था और अब सत्ता क्यूबाई आबादी समर्थित युवा क्रांतिकारियों के हाथों में थी. उस वक्त कास्त्रो का मुख्य एजेंडा भूमि सुधार और देश की अर्थव्यवस्था पर अच्छी खासी पकड़ था. कुल मिलाकर पूरे देश में सुधारवादी नज़रिया झलक रहा था. हालांकि, चुनौतियां भी कम नहीं थी. पहले ही दिन इस सरकार को अमेरिकी राजनीति और शहरी एलीट तबके से खतरा था. इन सबके पीछे उनका अपना आर्थिक हित छिपा था. 1959 की क्रांति की विचारधार पूरी तरह से स्पष्ट नहीं थी. वह पूरी तरह फिडेल कास्त्रो के रंगों में रंगी थी. उसके बाद निकारगुआ में भी सैंडिनिज्मो और शावेज का वेनेजुएला बोलिवारियाई क्रांति का प्रतीक बना. लेकिन, अपने पहले ही दिन से कास्त्रो की नीतियों ने अमेरिकी हितों पर चोट पहुंचाना शुरू कर दिया था. तेल से लेकर गन्ना, दूर संचार तक सभी क्षेत्र में. अमेरिकी ने कास्त्रो को कम्युनिस्ट के तौर पर पेश किया जिसने अपनी क्रांति और क्यूबा की जनता को धोखा दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनआवर के मुताबिक, क्यूबा ने किसी भी लैटिन अमेरिकी देशों के हितों का प्रतिनिधित्व नहीं किया. वह सिर्फ सोवियत संघ की हाथों का कठपुतली बन गया. 1961 तक सिर्फ मेक्सिको और कनाडा ही ऐसे देश बने, जिसने अमेरिकी दबाव का विरोध किया और साथ में क्यूबा के साथ राजनीतिक संबंध बनाये हुए था. सोवियत संघ से करीबी संबंध विकसित करने से पहले क्यूबा राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर तमाम सुविधाओं के लिए इन पर निर्भर था. इसके बाद अमेरिकी को नाराज़ करने की क़ीमत भी क्यूबा को चुकानी पड़ी. अप्रैल 1961 में बे ऑफ पिग्स का हमला किसे नहीं याद है. अमेरिका ने कास्त्रो की हत्या के लिए पूरी रणनीति बना ली थी. उसके बाद अक्तूबर 1962 का मिसाइल संकट सामने आया. 1965 में उसने सोवियत संघ की तरह का सांस्थानिक ढांचा देश में विकसित किया. एक ऐसी पार्टी, जिसमें महासचिव जेनरल कमेटी आदि सभी थे. लेकिन इसमें भी महत्वपूर्ण पद कास्त्रो के करीबियों और 26 जुलाई के आंदोलन में शामिल लोगों के पास ही था. सीमित संसाधनों और बढ़ते अमेरिकी दबावों के बावजूद क्यूबा ने गन्ना निर्यात के लिए सोविय संघ और पूर्वी यूरोपीय देशों के साथ संपर्क बढ़ाया. शिक्षा और स्वास्थ क्षेत्र को अधिक प्राथमिकता दी गयी. इसके अलावा अमेरिकी खतरे का सामना करने के लिए क्यूबा की सेना आधुनिक हथियारों से लैस हो चुकी थी. जब फिदेल कास्त्रो ने दक्षिणी अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला के शपथ ग्रहण समारोह में हिस्सा लिया, तो सभी ने क्यूबा की क्रांति के बाद उसकी सफलता को व्यापक संदर्भ में देखना शुरू कर दिया. वहां शिक्षा और स्वास्थ्य से लेकर तमाम बुनियादों क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता से सभी प्रभावित थे. इसके बाद अंगोला में क्यूबा के सैन्य हस्तक्षेप से अन्य देश अनभिज्ञ थे. यह बहुत बड़ी विडंबना थी कि क्यूबा लैटिन अमेरिका में गुरिल्ला जंग से क्रांति लाने में असफल रहा, जबकि ख़ुद गुरिल्ला जंग से उसकी क्रांति सफल हुई थी. 1980 में जब रोनाल्ड रीगन अमेरिकी राष्ट्रपति बने तो उन्होंने साम्यवाद के खात्मे की घोषणा की. इसके लिए उसने हर तरकीब अपनायी. मध्य अमेरिका और कैरेबियाई देशों में सैन्य हस्तक्षेप तक किया. सोवियत संघ ने शुरू में अमेरिका को चुनौती देनी चाही, लेकिन सोवियत संघ के सहयोगी देश आर्थिक रूप से दिवालिया हो रहे थे. यहां तक कि उसकी भी हालत कुछ सही नहीं थी. 1989 से 1991 तक सोवियत संघ से जुड़े तमाम देशों की हालत खस्ता हो चुकी थी. यहां तक कि सोवियत संघ का भी विघटन हो गया. 1990 के शुरुआत में क्यूबा की आयात क्षमता, निवेश, निर्यात से मुनाफा और लोगों का जीवन स्तर बुरी तरह प्रभावित हो गया. बेरोजगारी बेतहाशा बढ़ गयी. इसके बावजूद क्यूबा ने शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपना दबदबा बनाये रखा. हालांकि, सरकार की आमदनी बहुत कम हो गयी थी. आर्थिक तौर पर खुद को बचाए रखने के लिए ऐसे में क्यूबा ने अपनी नीतियों में व्यापक बदलाव किये. पर्यटन से लेकर माइनिंग तक के क्षेत्र में विदेशी निवेश को मंजूरी दी. इसका असर यह हुआ कि 2000 तक क्यूबा की अर्थव्यवस्था पटरी पर लौट चुकी थी. 2000 का साल लैटिन अमेरिका के लिए भी काफी अहम रहा. ह्यूगो शावेज वेनेजुएला में सत्ता में थे. उसके बाद एक दौर आया जब फिदेल कास्त्रो ने खुद सत्ता की कमान अपने भाई राउल कास्त्रो को सौंप दी. पहले कास्त्रो की अगुवाई में अब राउल कास्त्रो की अगुवाई में क्यूबा तरक्की के रास्ते पर है. एक 26 जुलाई का दिन वह था, जब क्यूबा की क्रांति की शुरुआत हुई थी और आज फिर 26 जुलाई है. क्यूबा एक स्वतंत्र और आर्थिक, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में कई विकसित देशों से अव्वल है.

म्यांमार की जातीय हिंसा, नागरिकता का सवाल और विस्थापन

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म्यांमार में सांप्रदायिक हिंसा की घटना ऐसी कोई खबर नहीं, जिसे सुनने को दुनिया अधीर हो। दरअसल, जम्हूरियत की तरफ मुल्क के डगमगाते कदम बढ़ रहे हैं और ‘बदलाव की इस प्रक्रिया’ की निगरानी कर रही हैं नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की। लेकिन बदकिस्मती देखिए, पिछले कुछ दिनों से रखिन सूबे में बौद्ध अनुयायियों व रोहिंग्या मुसलमानों के बीच हुई सांप्रदायिक हिंसा को लेकर म्यांमार सुर्खियों में है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों की हालत बदतर है। उन्हें नागरिक मानने से इनकार किया जाता रहा है। दरअसल, म्यांमार की नस्लीय संरचना बेहद पेचीदा है। आधिकारिक तौर पर वहां 135 नस्ली समूहों की पहचान की गई है। लेकिन इसमें रोहिंग्या लोगों का नाम नहीं है, जबकि ये रखिन बौद्ध, चिटगांव के बंगाली और अरब सागर से आए कारोबारियों की संतानें हैं। वे बांग्ला की एक बोली का बतौर भाषा इस्तेमाल करते हैं। न्यूयॉर्क की ह्यूमन राइट्स वॉच संस्था के मुताबिक, वे दशकों से रखिन बौद्ध के साथ म्यांमार में रह रहे हैं। जब ब्रिटिश हुकूमत ने हिन्दुस्तान और म्यांमार की सरहद का डिमार्केशन किया, उससे भी पहले के तत्कालीन बर्मा में उनकी मौजूदगी थी। फिलहाल, मुल्क में उनकी आबादी अंदाजन आठ लाख है। दो लाख तो बांग्लादेश में भी हैं। रिपोर्टे यह भी कहती हैं कि म्यांमार का एक बड़ा तबका रोहिंग्या विरोधी है। यही संकट की जड़ है। म्यांमार में रोहिंग्या मुसलमानों को घुसपैठी माना जाता है. सबसे पहले मई में हिंसा की छिटपुट घटनाएं हुईं. इसके बाद हिंसक आग पूरे इलाके में फैल गई. 10 जून को राखिल प्रांत में इमरजेंसी लगा दी गई. शुरुआती दौर की हिंसा में दोनों पक्षों को नुकसान हुआ लेकिन एमनेस्टी इंटरनेशनल के मुताबिक अब मुसलमानों को ही निशाना बनाया जा रहा है. इस मामले में अंतरराष्ट्रीय राजनीति भी शुरू हो गई. ईरान ने संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील की है कि वह इस मामले में दखल दे और म्यांमार सरकार से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा रोकने के लिए कहे. संयुक्त राष्ट्र में ईरान के राजदूत मुहम्मद काजी ने यूएन सचिव बान की मून को एक पत्र लिख कर हस्तक्षेप की मांग की है. म्यांमार में जातीय हिंसा का इतिहास पुराना है. हालांकि नई सरकार ने कई गुटों के बीच सुलह की कोशिश की है लेकिन कई मसले अभी भी अनसुलझे हैं. सरकार और विद्रोही गुटों के बीच देश के उत्तरी इलाके में जब तब हिंसक झड़पें होती रहती हैं. रोहिंग्या लोग मूल रूप से बंगाली हैं और ये 19वीं शताब्दी में म्यांमार में बस गए थे. तब म्यांमार ब्रिटेन का उपनिवेश था और इसका नाम बर्मा हुआ करता था. 1948 के बाद म्यांमार पहुंचने वाले मुसलमानों को गैरकानूनी माना जाता है. उधर, बांग्लादेश भी रोहिंग्या लोगों को नागरिकता देने से इनकार करता है. बांग्लादेश का कहना है कि रोहिंग्या कई सौ सालों से म्यांमार में रहते आए हैं इसलिए उन्हें वहीं की नागरिकता मिलनी चाहिए. संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक म्यांमार में करीब 8 लाख रोहिंग्या हैं. ये हर साल हजारों की तादाद में या तो बांग्लादेश या फिर मलेशिया भाग जाते हैं. मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि इस समुदाय के लोगों को जबरन काम में लगाया जाता है. उन्हें प्रताड़ित किया जाता है और उनकी शादियों पर भी प्रतिबंध लगाया गया है. अंतरराष्ट्रीय कानून के मुताबिक दुनिया का कोई आदमी बिना किसी देश की नागरिकता के नहीं रह सकता. अगर हुकूमत इस संकट को खत्म करना चाहती है, तो उसे अलोकप्रिय और सख्त फैसले लेने होंगे.

नेटवर्क-18 : अमीरों का नौकर बन गया है मीडिया

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सोवियत संघ और इसके सैटेलाइट के लंबे अनुभव ने यह साबित किया कि अभिव्यक्ति, सूचना और तर्क-वितर्क की आजादी के लिए फ्री इंटरप्राइजेज (मुक्त बाजार) की आवश्कता है. उन दिनों टेलीविजन पूरी तरह राज्य सत्ता पर निर्भर था. टेलीविजन की इस निर्भरता से यूरोपीय देशों में सभी यह मानने लगे थे कि प्रतिद्वंद्विता के अभाव में मीडिया का स्तर लगातार गिरता जा रहा है. उसके बाद एक दौर वह भी आया जब अमेरिका में तीन कॉमर्शियल नेटवर्क और एयरवेव पर एकाधिकार हो गया. यानी मीडिया का मोनोपोलाइजेशन हुआ. मीडिया की राज्यसत्ता पर निर्भरता से लेकर बाजारवादी युग में प्रतिद्वंद्विता का समय भी आया. मीडिया पर किसी एक घराने का वर्चस्व भी हम देख रहे हैं. भारत में लगभग तमाम बड़े बिजनेस घरानों ने मीडिया में मोटा माल निवेश कर रखा है. मुकेश अंबानी ने इ-टीवी समूह को ही खरीद लिया, तो सीएनएन आईबीएन, आईबीएन-7 और सीएनबीसी आवाज में अंबानी का बड़ा शेयर है. इस बात को समझना कतई मुश्किल नहीं है कि आखिर बिजनेस घराने क्यों मीडिया में निवेश कर रहे हैं या उन्हें खरीद रहे हैं. तमाम तरह के कॉरपोरेट घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले को मीडिया अमूमन सामने लेकर आता है. जब उसी मीडिया के मालिक अंबानी और तमाम बिजनेश घराने होंगे, तो फिर अपने मालिक पर भौंकने की हिम्मत किसी होगी. पत्रकारों के लिए दुम हिलाने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा. दक्षिण भारत में तो मीडिया के मालिकाना हक की कहानी तो और दिलचस्प है. आंध्रप्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक सत्तारूढ़ और विपक्षी पार्टियों के अपने-अपने मीडिया हाउस हैं, जिनकी टीआरपी और जनता के बीच अच्छी पकड़ है. आंध्रप्रदेश में कांग्रेस से टूटकर अलग हुए वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख जगन मोहन रेड्डी का साक्षी चैनल हो या तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार के मालिकाना हक वाला कलइनार टीवी (इसका नाम टूजी स्पेक्ट्रम घोटाले के दौरान भी आया) या फिर दयानिधि मारन का सन टीवी. दक्षिण भारत में नेताओं का एकछत्र राज्य मीडिया पर है. नेता और बिजनेस घरानों के हाथ में मीडिया का चाबुक हो, तो फिर अभिव्यक्ति की आजादी और खबरों की हकीकत का अंदाजा आप लगा सकते हैं. नेटवर्क-18 से आज अगर सैकड़ों पत्रकारों को धकियाया गया है, तो इसलिए नहीं कि इनका प्रदर्शन बेहतर नहीं था. यह कॉस्ट कटिंग का सीधा मसला है. लेकिन, मीडिया किसी की निजी संपत्ति नहीं है. पैसा बिजनेस घरानों या नेताओं का भले ही हो, लेकिन मीडिया का बिजनेस जनहितों का बिजनेस है. ऐसे में हम भला यह कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि चंद मुट्ठीभर बिजनेस घरानों के मालिक जनहित के सबसे बड़े माध्यम को नियंत्रित करने लगे और वह भी उसकी बेहतरी नहीं, बल्कि सिर्फ अधिक मुनाफा कमाने के लिए. नेटवर्क-18 के साथ यही मसला है. ऐसे में भला हम संविधान के उस विश्वास और सरकार के उस दावे पर कैसे यकीन कर लें कि प्रेस पूरी तरह आजाद है. हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि मीडिया अल्पसंख्यक अमीरों का नौकर बन गया है. सभा और सेमिनारों में तो बड़े-बड़े संपादक लच्छेदार और लुभावनी बातों से मीडिया की आजादी की पुरजोर वकालत करते हैं. लेकिन, अपने पत्रकारों के लिए लड़ने का वक्त आता है, तो ट्विट करते नजर आते हैं. अगर सभी सहमत ही हैं कि मीडिया को स्वतंत्र होना चाहिए, तो फिर एक कानून क्यों नहीं बनाना चाहिए. और, उस कानून में पत्रकारों की नौकरी की सुरक्षा से लेकर खबरों की स्वतंत्रता को लेकर विस्तृत चर्चा हो. लेकिन, नहीं अगर मीडिया से संबंधित किसी कानून को लाने की बात होती है, तो सभी संविधान याद आने लगता है. अभिव्यक्ति की आजादी याद आने लगती है. लेकिन, आज जब सैकड़ों पत्रकार एक बिजनेस घराने की मनमर्जी और अधिक मुनाफा कमाने के लालच का शिकार हो रहे हैं, तो कहीं कोई शोर नहीं है. कल तक जो रणभेरी बजाया करते थे, आज आवाज उनकी धीमी हो गई है या वे गूंगे हो गए हैं. हमें अब कुछ नहीं लड़ने की जरूरत है. अपने ही नहीं अपनों के लिए भी...पाश भी यही कहते हैं कि बिना लड़े यहां कुछ मिलता नहीं...

                  हम लड़ेंगे,

                   जब तक दुनिया में लड़ने की जरूरत बाकी है,

                   जब तक बंदूक न हुई, तब तक तलवार होगी

                   जब तक तलवार न हुई, लड़ने की लगन होगी

                   लड़ने का ढंग न हुआ, लड़ने की जरूरत होगी

                   और हम लड़ेंगे साथी
                   हम लड़ेंगे कि बगैर लड़े कुछ नहीं मिलता।

ईश्वर-अल्लाह ''किसका''नाम

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मलेशिया की अदालत ने वर्ष 2009 में हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए फैसला दिया है कि देश में गैर-मुस्लिम अल्लाह शब्द का प्रयोग नहीं कर सकते हैं. वर्ष 2009 में मलेशिया की उच्च न्यायालय ने भगवान को संबोधित करने के लिए अल्लाह शब्द के इस्तेमाल की इजाजत दी थी, लेकिन अब कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए यह फैसला दिया. तीन न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से हाईकोर्ट द्वारा 2009 में दिए गए उस फैसले को पलट दिया, जिसने मलय भाषा में छपने वाले अखबार 'द हेराल्ड' को अल्लाह शब्द के इस्तेमाल की अनुमति दी थी. इस फैसले के पीछे मुख्य न्यायाधीश का तर्क था कि अल्लाह शब्द का प्रयोग ईसाई समुदाय की आस्था का अंग नहीं है. इस शब्द के इस्तेमाल से समुदाय में भ्रम की स्थिति उत्पन्न होगी. मामले की सुनवाई के दौरान सरकार ने दलील दी थी कि अल्लाह शब्द मुस्लिमों के लिए बहुत विशिष्ट है. 
गौरतलब है कि 2008 में तत्कालीन गृहमंत्री ने अखबार को इस शब्द के इस्तेमाल की इजाजत देने से इन्कार कर दिया था. इसके बाद अखबार ने इसके खिलाफ अदालत में अपील की. 2009 में अदालत ने उसके पक्ष में फैसला सुनाया. इस फैसले के बाद चर्चों और मस्जिदों को निशाना बनाया गया था. गौरतलब है कि मलेशिया की 2.8 करोड़ की आबादी में दो तिहाई मुसलमान हैं, जबकि नौ प्रतिशत आबादी ईसाइयों की है. ऐसे में अदालत के फैसले से चार साल पुराने विवाद को हवा मिलेगी. विवाद अल्लाह से जुड़ा है. वहां मलय जाति समूह के लोग कैथोलिक ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द के इस्तेमाल को लेकर विरोध करते रहे हैं. इन लोगों को लगता है कि अल्लाह शब्द का इस्तेमाल सिर्फ़ वही कर सकते हैं, न कि कैथोलिक ईसाई. अधिकारों के इस लड़ाई की सुनवाई कोर्ट में भी हुई थी. कोर्ट ने भी ईसाइयों को अल्लाह शब्द के इस्तेमाल की इजाज़त दे दी थी. हालांकि सरकार ने कोर्ट के फ़ैसले को ख़ारिज़ कर दिया. सरकार ने सर्वोच्च कोर्ट के फ़ैसले को चुनौती देने के इरादे से ऐसा नहीं किया है. बल्कि सारा विवाद भावनात्मक तौर पर इस क़दर उलझ चुका है कि इसे राजनीतिक तौर पर सुलझाना मुश्किल हो रहा है. सारा विवाद उस व़क्त सामने आया था, जब एक चर्च ने गॉड (ईश्वर) शब्द का अनुवाद अल्लाह शब्द के तौर पर किया. इस विवाद की वजह से हिंसा भी हुई. कुछ दिन पहले तीन चर्चों पर हमला किया गया. साठ के दशक मलयों और चीनियों के बीच हुई हिंसक घटनाओं को छोड़ दें, तो कुल मिलाकर वहां हमेशा शांति बनी रही है. लेकिन, एकबार फिर मलय-ईसाई एवं मलय-हिंदुओं के बीच संबंध बिगड़ने लगे हैं. इसी से तनाव पैदा हुआ है. जब ईसाइयों ने अल्लाह शब्द का इस्तेमाल किया तो मलयों ने इसकी मुख़ालफ़त की. उनके मुताबिक़ इससे भ्रमकी स्थिति पैदा होगी. वहीं ईसाई मिशनरी के मुताबिक वे अल्लाह शब्द का इस्तेमाल कर सकते हैं. यह उनका अपना तर्क हो सकता है. पर दिक्कत यह है कि कुछ राजनेता इन विवादों को अपने फ़ायदे के हिसाब से भुनाना चाहते हैं. 
दरअसल, जो लोग ईसाइयों द्वारा अल्लाह शब्द के इस्तेमाल का विरोध कर रहे हैं, उनके पास विरोध की वाजिब वजह नही है. अल्लाह एक हैं और उसने हम सभी को बनाया है. इसलिए इसके इस्तेमाल परकिसी एक मजहब का हक़ नहीं हो सकता है. यदि ग़ैर मुसलमान भी गॉड या ईश्वर के लिए अल्लाह शब्द का इस्तेमाल करते हैं, तो मुसलमानों को इसका स्वागत करना चाहिए. उन्हें यह समझना चाहिए कि इसके ज़रिए लोग इस्लाम को समझने की कोशिश कर रहे हैं, न कि इस्लाम पर अपना कब्जा कर रहे हैं. इसलिए होना तो यह चाहिए कि मलयों को उदारवादी बन कर इस्लाम के उदार चेहरे से लोगों को वाक़िफ करांए. आज जबकि हर तरफ आतंकवाद की बात हो रही है और लोग आतंकवाद का मतलब इस्लामिक आतंकवाद से ही लगा रहे हैं, जो कि कतई सही नहीं है. ऐसे में इस तरह के नज़ीर से सकारात्मक संदेश लोगों तक पहुंच सकेगा.

ओड़िशा: आदिवासियों, वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को माओवादी बना देती है नवीन पटनायक सरकार

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फर्जी एनकाउंटर और मामलों की यह कहानी नरेंद्र मोदी के गुजरात की नहीं, बल्कि ओड़िशा के साफ और स्वच्छ छवि के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की है. लगभग 530 लोग फर्जी और झूठे माओवादी व अन्य मामले में विभिन्न जेलों में बंद हैं. इनमें 400 से अधिक गरीब आदिवासी हैं. पिछले 10 वर्षों में पुलिस फायरिंग में 30 लोग मारे गए. माओवाद के नाम पर फर्जी एनकाउंटर में 75 लोग मारे जा चुके हैं. 170 लोग बिना ट्रायल के अब भी जेल में हैं. राज्य मानवाधिकार आयोग के पास 17 से अधिक फर्जी एनकाउंटर के मामले जांच के लिए लंबित हैं.
http://hindi.gulail.com/how-navin-patnaik-government-makes-tribals-lawyers-and-social-activists-a-maoist-in-odisha/

(hindi.gulail.com)

आइए हम सभी केजरीवाल से नफ़रत करें...!

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बेहद ही अजीब है हमारा देश. नफ़रत करना हमें पसंद है. हम अपनी समस्याओं और सरकार की नाकामियों से इतने आजिज आ चुके हैं कि अब हमें नफ़रत करने के लिए मीडिया द्वारा उठाए गए मुद्दों की ज़रूरत पड़ गई है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में बिना किसी तर्क, औचित्य और सहिष्णुता के किसी को निशाना बनाया जा रहा है.

आम आदमी पार्टी (आप) के नेता अरविंद केजरीवाल ने हालिया लोकसभा चुनावों में बेहद सादगी से चुनाव लड़ा. अन्य दलों की तरह प्रचार-प्रसार का युद्ध नहीं छेड़ा, बस जनता से संपर्क की कोशिश की. इसके बावजूद आप के सिर्फ चार सांसद ही संसद पहुंच सके और खुद केजरीवाल प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी से बनारस में तीन लाख 37 हज़ार से भी अधिक वोटों से हार गए. अगर ईमानदारी से कहूं, तो बनारस में मोदी को चुनौती देना केजरीवाल का मूर्खतापूर्ण कदम था. वे अपने लोकसभा क्षेत्र से लड़ सकते थे और अपनी सीट जीतकर संसद में जा सकते थे और अगले पांच वर्षों तक संसद में जाकर बहुत बड़ा अंतर पैदा कर सकते थे. क्या यह वही रास्ता नहीं था, जिसके आधार पर पहली नज़र में वे अन्ना हज़ारे से अलग हुए

अरविंद केजरीवाल के प्रति नफ़रत पिछले साल उस वक्त शुरू हुई, जब उन्होंने 49 दिनों के भीतर ही दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा दे दिया. हां, उन्होंने दिल्ली और पूरे देश के विश्वास के साथ धोख़ा किया, क्योंकि सबकी निगाहें केजरीवाल पर थी. यह निराशा नफरत में बदल गई और हम उसे फर्जीवाल, फेकरीवाल और भगोड़ा कहने लगे. यहां तक कि हिंदी के कुछ ऐसे पारंपरिक शब्दों का इस्तेमाल केजरीवाल के खिलाफ किया जाने लगा, जिसे शायद ही कोई सार्वजनिक तौर पर प्रयोग कर सकता है. अगर अधिक नहीं, तो कई बार उसे जस्टीफाई भी किया गया.

केजरीवाल ने इस सप्ताह लोगों से ज्यादा से ज्यादा से माफ़ी और एक और मौक़ा ही मांगा था. केजरीवाल ने दिल्ली और देश की जनता से माफ़ी मांगी. उन्होंने अपनी ग़लती और अनुभवहीनता को स्वीकार किया. उन्होंने इसकी वजह भी बताई और अपनी ग़लतियों को सुधारने के लिए एक और मौक़ा मांगा.

और हम क्या करते हैं?हमसोशलमीडियापरकेजरीवालकोभला-बुराकहरहेहैं, नाटकबाजबतारहेहैंऔरइसतरहकीतमामआरोपलगारहेहैंऔर सार्वजनिक तौर पर उनके पीटे जाने के बारे में बाते कर रहे हैं और क्या नहीं. यहां यह भी बताने की ज़रूरत है कि उनके समर्थकों को अंग्रेजी में आपटर्ड्स (जो अंग्रेज़ी की गाली का स्वरूप है) और हिंदी में आपिए (जो हिंदी में एक गाली का स्वरूप है) कहा जा रहा है. गनीमत है उन्हें नस्लभेदी नहीं कहा जा रहा.

चुनाव से पहले अरविंद केजरीवाल को कोई छूना नहीं चाहता था. केजरीवाल आए और उन्होंने देश के सर्वाधिक प्रभावशाली लोगों के खिलाफ भ्रष्टाचार और कालेधन का आरोप लगाया और इन आरोपों को ख़ारिज करने और केजरीवाल पर ही ऐसे आरोप लगाने के अलावा किसी ने कुछ नहीं किया. लेकिन, अब चुनावों में भाजपा भारी बहुमत से जीत चुकी है. नितिन गडकरी ने जो मानहानि का केस उन पर किया हुआ है. यह केस चुनावों से पहले किया गया था, लेकिन फिर भी वैसे तमाम अपराध जो लोग कर सकते हैं उन सभी मामलों में किसी को भ्रष्टाचारी कहने पर उसके ख़िलाफ़ केस दर्ज का मतलब समझा जा सकता है.

केजरीवाल ने जमानत या बेल बॉन्ड के 10 हजार रुपए की राशि जमा करने से इनकार कर दिया और उन्हें न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया. हम केजरीवाल को कानून से ऊपर होने का आरोप क्यों लगाते हैं?किसी भी प्रतिवादी के पास बेल की राशि जमा न करने का अधिकार है. यह एक विकल्प है, न कि कोई क़ानून. उन्होंने कहा कि अदालती सुनवाई में वह अपना पक्ष रखेंगे. हालांकि, इसमें कोई शक़ नहीं कि उन्हें अदालत के फ़ैसले का सम्मान करना चाहिए था, जैसा कि उन्होंने हाईकोर्ट के कहने के बाद किया. केजरीवाल सोशल मीडिया पर ऐसे लोगों के सवालों का जवाब देने के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं. लोगों को यह समझने की आवश्यकता है. केजरीवाल के प्रति नफ़रत की भावना रखने से उन्हें कुछ नहीं मिलने वाला है.

अगर 2011 में जाएं, तो उस वक्त भी इन्हीं आरोपों के आधार पर वे जेल गए थे. उस वक्त वे महज एक्टिविस्ट थे, राजनीतिक नेता नहीं. उन्हें फंसाना आसान था. फिर भी उन्होंने इस वक्त भी जमानत की राशि नहीं दी. उसके बाद वे लोगों के बीच नायक की तरह पसंद किए जाने लगे. तब केजरीवाल को कानून से ऊपर क्यों नहीं माना गया. हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी खुद अंग्रेजों द्वारा कई बार जेल भेजे गए, उन्हें जमानत के तौर पर 1 रुपए की राशि देने को कहा गया, लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया.

हम हर बार अपराधियों को चुनकर संसद में भेजते हैं. भ्रष्टाचार के गंभीर मामलों में शामिल लोग, काले धन कमाने वाले बड़ी ठाठ से अपनी जिंदगी जीते हैं. सभी को माफ़ कर दिया जाता है और उन्हें दोबारा चुनकर संसद भेज दिया जाता है.

फिर केजरीवाल क्यों नहीं?एक स्वच्छ छवि, शिक्षित और बेदाग इतिहास एवं काम करने की ईमानदारी इच्छा वाले क्यों नहीं. आज कांग्रेस और भाजपा आप और केजरीवाल के बारे में जो हमें दिखाना चाह रही है हम वहीं देख रहे हैं. जो सुनाना चाह रही है, हम वहीं सुन रहे हैं. लेकिन, ज़रूरत है कि एक बार सोचने की. केजरीवाल को एक और अवसर देने की.

तब मास्क न पहनना अपराध था, और यूं 5 करोड़ जान लेने वाले स्पेनिश फ्लू से जीती जंग

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Photo: wsj.com
कोरोना वायरसमहामारी की वजह से पांच अप्रैल रात 1 बजे तक 64 हजार 51 लोगों की मौत हो चुकी है। 11 लाख 87 हजार 846 लोग इससे बीमार हैं। सबसे ज्यादा मौतें इटली में 15,362 हुई हैं। वहीं, अमेरिका में अकेले तीन लाख से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हो चुके हैं। जबकि इस वायरस ने जहां जन्म लिया यानी चीन इसे लगभग पूरी तर नियंत्रित करने में सफल दिख रहा है। हालांकि, हम बात इस कोरोना वायरस से जंग और उसके तौर तरीके पर करेंगे। आखिर हम कैसे एक वायरस से जंग अपनी ही लापरवाही की वजह से हारते चले जा रहे हैं। इसमें सबसे बड़ी बात आती है, खुद को सुरक्षित रखना। खुद को सुरक्षित रखने में एक तरीका है मास्क पहनना। इसे लेकर अमेरिका में कई तरह के विवाद चल रहे हैं। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप शुरू से मास्क पहनने के आदेश देने के खिलाफ रहे हैं, लेकिन अब उन्होंने भी हार मान ली है। हालांकि, उन्होंने खुद मास्क न पहनने का फैसला किया है।
अमेरिका की सिएटल पुलिस 1918 में मास्क पहनी नजर आई...तस्वीरः सीएनएन
हमारी कहानी यह भी नहीं है। हमारी बात यह है कि मौजूदा कोरोना वायरस से भी भयानक एक महामारी आई थी स्पेनिश फ्लू। वह भी 1918 में। तब पहला विश्वयुद्ध खत्म हुआ ही था या खत्म होने की कगार पर था। वैसे स्पेनिश फ्लू का मतलब यह नहीं है कि इसकी उत्पत्ति स्पेन में हुई थी। इसका पहला केस अमेरिका में आया। लेकिन, अमेरिका, जर्मनी, इंग्लैंड जैसे देशों ने प्रथम विश्वयुद्ध की वजह से कई खबरों या कहें मीडिया पर कई तरह की पाबंदियां लगाई हुई थीं। लेकिन स्पेन में मीडिया न्यूट्र्ल था। वहां इसकी रिपोर्टिंग हुई औऱ आगे चलकर इसी वजह से इसका नाम स्पेनिश फ्लू हुआ। दुनिया की एक तिहाई आबादी इसकी चपेट में आई थी। तकरीबन 5 करोड़ से ज्यादा लोगों की मौत हुई थी। ख़ैर हमारी कहानी यह भी नहीं है।
हम लौटते हैं अपनी मूल बात पर कि कैसे कोरोना महामारी में लोगों ने लापरवाही बरती। लापरवाही यह कि मास्क न पहनना। स्पेनिश फ्लू जब फैला, तब भी दुनियाभर में लोग मास्क पहने नजर आए थे। इसी मास्क ने दुनिया के लोगों को संक्रमण से बचाया था। कहा तो यह भी गया कि अमेरिका में तब कुछ हिस्सों में मास्क न पहनना गैरकानूनी था। यानी अगर आप मास्क नहीं पहनते हैं, तो समझिए आप अपराध कर रहे थे। अगर लेकिन इस बार आख़िर क्या बदला सा दिख रहा है। तब मास्क न पहनना अपराध था, और यूं 5 करोड़ जान लेने वाले स्पेनिश फ्लू से जीती जंग। तब और अब में फिर अंतर क्या है?

तो यह था अंतर। जब कोरोनो वायरस महामारी ने एशिया को चपेट में लेना शुरू किया, तो पूरे महाद्वीप में लोग मास्क पहनने लगे। ताइवान और फिलीपींस जैसे कुछ देशों में तो इसे अनिवार्य कर दिया गया। लेकिन, पश्चिमी देशों में इसे लेकर एक लापरवाही-सी रही। इंग्लैंड के मुख्य चिकित्सा अधिकारी क्रिस व्हिट्टी ने तो दावा तक किया कि मास्क पहनना कोई जरूरी नहीं है। लेकिन आप जानते हैं स्पेनिश फ्लू और कोरोना वायरस महामारी में यहीं एक बात अहम हो जाती है। स्पेनिश नियंत्रित होने के बाद अक्टूबर 1918में अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को में महामारी फिर तेजी से फैलने लगी। अस्पतालों में संक्रमितों की संख्या में वृद्धि होने लगी। इसके बाद 24अक्टूबर, 1918को सैन फ्रांसिस्को ने मास्क अध्यादेश पारित किया। यह पहली बार था, जब सार्वजनिक रूप से मास्क पहनना अमेरिकी धरती पर अनिवार्य किया गया। सैन फ्रांसिस्को में सार्वजनिक रूप से मास्क अनिवार्य करने के बाद जागरूकता अभियान शुरू हुआ। लोगों को बताया गया कि "मास्क पहनें और अपना जीवन बचाएं! एक मास्क स्पेनिश फ्लू से बचाव की 99% गारंटी है।"मास्क पहनने के बारे में गाने तक लिखे गए। यहां तक कि बिना मास्क के बाहर पाए जाने वाले को जुर्माना या जेल भी हो सकती थी। (आगे जारी...)

मास्क पहनकर यूं 5 करोड़ जान लेने वाले स्पेनिश फ्लू से जीती जंग, अब कोरोना को हराने की बारी

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1918 में जब स्पेनिश फ्लू महामारी फैली, तो इससे अमेरिका सहित यूरोपीय देशों में मास्क पहनने की संस्कृति ने जन्म ली। इससे तब 5 करोड़ से अधिक लोगों की जान लेने वाली इस महामारी पर काबू पाने में उम्मीद से अधिक मदद मिली। लेकिन लगता है 100 साल बाद अमेरिका और यूरोपीय देश इस मास्क संस्कृति को भूल गए, जिससे अमेरिका और इटली, स्पेन, जर्मनी, इंग्लैंड, फ्रांस जैसे में कोरोना वायरस का कहर बरप रहा। कोरोना वायरस की वजह से रविवार रात 1:38बजे तक कुल 68,499 में से 51878 मौतें इन्हीं छह देशों में हुई हैं। अब शायद फिर इन्हें मास्क कानून लागू करना पड़े...

फोटोः इंटरनेट
तो हम बातें कर रहे थे स्पेनिश फ्लू की। आख़िर कैसे मास्क कल्चर ने इस महामारी को हराने में मदद की। अभी तक हमने बातें की कि अमेरिका में पहली बार कानून लागू किया गया कि मास्क न पहनना एक अपराध होगा। पॉपुलर कल्चर में इसे लेकर जागरूकता अभियान शुरू किए गए। महामारी से डर के चलते हर कोई मास्क पहन रहा था। इस अभियान ने काम करना शुरू कर दिया। अमेरिका के कई राज्यों जैसे कैलिफोर्निया वगैरह ने भी यही कदम उठाया। मास्क को लेकर अनिवार्यता सिर्फ अमेरिका तक ही सीमित नहीं रही। अटलांटिक देश भी इसी राह पर चले और स्पेनिश फ्लू से बचाव का उपाय मास्क में ही ढूंढ़ा। फ्रांस में एक समिति ने नवंबर 1918की शुरुआत में मास्क पहनने की सिफारिश की। वहीं, इंग्लैंड का मैनचेस्टर भी इसमें आगे आया। स्पेनिश फ्लू से बचने के लिए जापान में स्टूडेंट प्रोटेक्टिव मास्क पहनकर स्कूल जाते थे। उधर, लॉस एंजिल्स के मेयर ने सरकारी तौर पर मास्क की खरीदारी की और लोगों से मास्क पहनने को कहा।
अब दिसंबर 1918 तक धीरे-धीरे पूरे यूरोप और उत्तरी अमेरिका में मास्क के इस्तेमाल में तेजी आई। इस दौरान मास्क की मांग इतनी बढ़ गई कि इसे बनाने वाली कंपनियां आपूर्ति को पूरा नहीं कर पा रही थीं।

फिर भी मास्क का चलन हर जगह बढ़ गया। यहां तक कि सफाई कर्मचारी से लेकर पुलिस भी बिना मास्क के नजर नहीं आती थी। युद्ध के मैदानों में सैनिक चेहरे पर मास्क और हाथों में हथियार लिए नजर आते। तब एक मशहूर जुमला चला था कि सैनिक युद्ध के दौरान गैस मास्क पहनें और घरों पर इन्फ्लुएंजा मास्क। दरअसल, जंग के मैदान में गैस चैंबर और इस तरह के खतरनाक गैसों से बचने के लिए सैनिक गैस मास्क पहनते थे। फिर स्पेनिश फ्लू आया, तो उससे बचने के लिए इन्फ्लुएंजा मास्क। तब वॉशिंगटन टाइम्स ने एक रिपोर्ट छापी थी कि घर लौटने वाले सैनिकों के लिए 45 हजार मास्क दिए जाएंगे।

जब 11नवंबर 1918 को पहला विश्वयुद्ध खत्म हुआ, तो गैस-मास्क बनाने वाली कंपनियों का कारोबार ठप हो गया। ऐसे में उन्होंने स्पेनिश फ्लू से बचाव के लिए इन्फ्लुएंजा मास्क बनाना शुरू कर दिया। उस वक्त अमेरिकी अखबार सैन फ्रांसिस्को क्रॉनिकल ने फ्रंट पेज पर शहर के शीर्ष जजों और नेताओं की मास्क पहने तस्वीर छापी थी। शायद वह 25 अक्टूबर 1918 के दिन का अखबार था।

जल्द ही ऐसा वक्त आ गया कि कोई भी बिना मास्क के नजर नहीं आता। हर तरफ सभी मास्क पहने ही दिखते। बेशककुछ ऐसे भी थे जिन्होंने नियमों की धज्जियां उड़ाईं। तब का एक किस्सा है कि एक बॉक्सिंग मैच के दौरान कैलिफोर्निया में लगभग 50 फीसदी पुरुष दर्शकों ने मास्क नहीं पहन रखे थे। आज की तरह हर जगह सीसीटीवी या कैमरे नहीं होते थे। तब इनकी एक फोटो फोटोग्राफर ने ले ली थी। पुलिस ने उस वक्त फोटो को एनलार्ज यानी बड़ा किया और उस तस्वीर का इस्तेमाल करके मास्क न पहनने वालों की पहचान की। सभी को सजा के तौर पर "चैरिटी के लिए दान"करने और फिर चेतावनी देकर छोड़ दिया गया।

तो मास्क पहनने से फायदा हुआ?

दिसंबर 1918 की शुरुआत में लंदन के टाइम्स अखबार ने बताया कि अमेरिका में डॉक्टरों ने साबित किया कि स्पेनिश फ्लू लोगों के संपर्क में आने और संक्रमण की वजह से फैलता है। उस वक्त लंदन के एक अस्पताल में सभी कर्मचारियों और मरीजों को हमेशा मास्क पहने रहने का निर्देश जारी किया गया। अखबार ने एक जहाज के हवाले से इसकी सफलता की कहानी पेश की। टाइम्स ने बताया कि अमेरिका और इंग्लैंड के बीच न्यूयॉर्क से आने वाले जहाजों पर संक्रमण दर अधिक थी। इसके बाद जहाज के सभी चालक दल और यात्रियों को अमेरिका लौटते वक्त मास्क पहनने का आदेश दिया गया। इसके बाद जब जहाज अमेरिका पहुंचा, तो कोई भी यात्री संक्रमित नहीं पाया गया। कुछ इस तरह स्पेनिश फ्लू से बचाव में मास्क की जरूरत और सफलता की कहानी पेश की गई। इस तरह की खबरें तब दुनिया के कई देशों जापान, चीन के अखबारों में सामने आई, जिसमें बताया गया कि मास्क पहनने से संक्रमण की दर कम हो गई।

दिसंबर 1918 आते-आते स्पेनिश फ्लू का दूसरा दौर समाप्त हो गया। अमेरिकी शहरों और राज्यों में स्पेनिश फ्लू के मामले में अनिवार्य रूप से मास्क पहनने के कानून को खत्म करने की जरूरत महसूस की गई और अंततः 10 दिसंबर, 1918 को शिकागो के एक अखबार में इसकी खबर छपी कि अब इस मास्क कानून की जरूरत नहीं रह गई है। संभवतः ऐसा इसलिए था कि मास्क ने संक्रमण से फैलने वाले स्पेनिश फ्लू को पूरी तरह न सही, तो बहुत हद तक या इससे कहीं अधिक काबू पाने में मदद की थी।

अब आज क्या, कोरोना वायरस और फिर वही मास्क की जरूरत

1918 में अमेरिका ने सख्ती और तत्परता से मास्क को अपनाया था। लेकिन, एक सदी बाद अमेरिका ही अपनी सफलता से सबक नहीं सीख पाया। उस सबक को सीखा है, एशियाई देशों ने। संभवतः यही वजह है कि आज अमेरिका सहित यूरोप के तमाम देशों को चीन सहित कई देशों से मास्क और दास्तानों का आयात बड़ी संख्या में करना पड़ रह है। एशियाई देशों ने इस वजह से भी मास्क को अपनाया, एक सदी के बीच-बीच में इसने हैजा, टाइफाइड और अन्य संक्रामक रोगों के प्रकोपों ​​से निपटा है। इन संक्रामक रोगों के प्रकोप ने मास्क पहनने वाली संस्कृति जिंदा रखने में मदद की है। वहीं, अमेरिका और यूरोप में ऐसा नहीं देखा गया। अब लगता है कि कोरोना वायरस महामारी से फिर से उनकी सोच में बदलाव आए।

कोरोना वायरस, हिंदू-मुसलमान और श्वेत-अश्वेत

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कोरोना वायरस।पूरी दुनिया इस महामारी से लड़ रही है। लेकिन इसके साथ-साथ एक दूसरी लड़ाई भी चल रही है। सांप्रदायिकता की। नस्लवाद की। श्वेत-अश्वेत की और हिंदू-मुसलमान की। भारत में जब तक हजरत निजामुद्दीन में तबलीगी जमात के मामला सामने नहीं आया था, तब तक कोरोना से हमारी जंग सही चल रही थी। टीवी चैनलों और कुछ अखबारों ने दिल्ली दंगों के बाद हिंदू-मुसलमान बंद ही किया था कि यह एक नई महामारी आ गई। उनकी मेहनत और ऊर्जा वैसी नहीं दिख रही थी, क्योंकि देश एकजुट होकर इस वैश्विक आपदा का सामना कर रहा था। सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम की मीडिया तक में हम एकजुट होकर लड़ रहे थे, लेकिन तभी नया मसाला मिला। तबलीगी जमात का। यहीं से कोरोना से जंग ने रुख मोड़ लिया।
अमेरिका में बंदूक की दुकान पर कतार में लोग। फोटोः इंटरनेट
पूछा जाने लगा कि आख़िर यही 'चंद लोग'हमेशा 'अल्लाहु अकबर'कह कर क्यों फट जाते हैं? कश्मीर से लेकर गाजा तक और नाइजीरिया से लेकर सीरिया तक, यही 'चंद लोग'दशकों से कत्लेआम क्यों मचा रहे? अगर आप कहते हैं कि कौम या मजहब को गाली मत दो तो आपको एक और सवाल का जवाब देना पड़ेगा।"जमात वालों ने अपनी करतूतों से बिरादरों के लिए एक नया शब्द गढ़ा है- थूकलमान। इसकी कड़ी निंदा करता हूं।अब थूकलमान शब्द का प्रयोग किसके लिए किया गया है, आपको समझ आ रहा होगा। हालांकि, जिसके लिए और जिस संदर्भ में किया गया, उसकी पुष्टि हो नहीं पाई। आज चप्पे-चप्पे पर सीसीटीवी लगे हैं। फिर अस्पतालों से ऐसे वीडियो नहीं आए। ख़ैर मेरी चिंता यह नहीं है।
दरअसल, दिक्कत यह नहीं है कि यह सब भारत में हो रहा है। पूरी दुनिया में यही खेल चल रहा है। भारत में हिंदू-मुसलमान चल रहा है, तो अमेरिका में ब्लैक और व्हाइट यानी अश्वेत और श्वेत। हमारे यहां सांप्रदायिकता है, तो अमेरिका में भी एक तरह सांप्रदायिकता है, जिसे रेसिज्म यानी नस्लवाद कहते हैं। वह कैसे आइए देखिए। आज अमेरिका कोरोना वायरस की वजह से सबसे अधिक प्रभावित देश है। यहां (भारतीय समय के अनुसार रात 12:56तक 24 घंटे में 1529 से ज्य़ादा मौतेंहुईं, जबकि कुल मौत 12,400वहीं, कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या 3 लाख 90 हजार तक पहुंच गई। इतनी मौतों और संक्रमण के लोगों में भय सताने लगा है कि अगर राशन और खाने-पीने का सामान खत्म हुआ, तो फिर अराजकता की स्थित हो जाएगी। ऐसे में लोग गन कल्चरयानी बंदूक का रुख कर चुके हैं। यहां बंदूकों की दुकानों पर लोगों की कतारें देखी जा सकती हैं। यह खौफ खासतौर पर अफ्रीकी और एशियाई मूल के अमेरिकियों में देखा जा रहा है।

कोरोना संक्रमण से सर्वाधिक प्रभावित इलाकों कैलिफोर्निया,  न्यू यॉर्क और वॉशिंगटन में बंदूक और हथियारों की बिक्री में भारी वृद्धि देखी गई है। ऑनलाइन हथियार बेचने वाली दुकान एम्मो डॉट कॉम के मुताबिक, 23फरवरी के बाद से बिक्री में 68प्रतिशत की तेजी आई है। कुछ खरीदारों ने बताया कि उन्हें डर है कि कामबंदी के हालात में देश में जरूरी वस्तुओं की कमी आ सकती है। इससे भोजन, दवा आदि के लिए लूटपाट मच सकती है। ऐसी स्थिति में परिवार की सुरक्षा के लिए हथियार ही विकल्प होंगे। कई राज्यों में टॉइलेट पेपर से ज्यादा मांग बंदूकों और कारतूसों की हो गई। गन स्टोर्स के बाहर ग्राहकों की वैसे ही लाइन लगने लगी जैसे कि सुपर मार्केट्स में लग रही थी। 20मार्च को ओरेगन पुलिस ने इंस्टेंट चेक सिस्टम के तहत 3189आवेदन क्लियर किए। इलिनोय राज्य में भी पांच दिन में बंदूक खरीदने की 19 हजार अर्ज़ियां आ गईं। तुलना करें तो पिछले साल 9 से 20 मार्च के बीच बंदूक खरीदने के 17136 आवेदन आए थे, जबकि इस साल इन्हीं दिनों में 35473 आवेदन आए। कैलिफोर्निया में तो बंदूकों की बिक्री 800 फीसदी बढ़ गई है।

इसी बीच नस्लवाद भी बढ़ने लगा है। कुछ वैसे ही जैसे हमारे यहां एक खास वर्ग इन दिनों हावी है। उसी तरह अमेरिका में ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के श्वेत-अश्वेत खाई बढ़ी है। एक रिपोर्ट की मानें, तो ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के दो महीने के भीतर ही 1052मामले नस्लवाद के दर्ज किए गए। यह मौजूदा समय में भी दिख रहा है, जब कोरोना महामारी की वजह से अमेरिका में अनिश्चितता तेजी से बढ़ी है और लोग अपनी सुरक्षा के लिए बंदूकों की दुकान पर कतारबद्ध होने लगे हैं, जिसमें अधिकांश अश्वेत अमेरिकी हैं। (अगले लेख में विस्तार से...)

कोरोना वायरस से जंग में हिंदू-मुसलमान और थूकने, छिपने, वायरस फैलाने की खबर... सब फेक न्यूज़ है !

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यह सच है किदिल्ली के निजामुद्दीन में तबलीगी जमात की वजह से देश में कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ जंग को नुकसान पहुंचा। इसकी वजह से कोरोना के हज़ारों मरीजों की संख्या बढ़ गई। कुछ अप्रत्याशित ख़बरें भी आईं। ऐसी ख़बरें आईं, जो साफ़ बताती है कि हमारा मीडिया कैसे इस्लामोफोबिया से ग्रसित है। इसकी वजह से वह फेक न्यूज़फैलाने से भी बाज नहीं आता। ट्विटर पर दो मामलों में तो उत्तर प्रदेश पुलिस को बाकायदा चेतावनी तक देनी पड़ी। 
पहला मामलासहारनपुर का है, यहां ख़बर चलाई/छापी गई कि यहां क्वारंटीन किए गए तबलीगी जमात केलोग खाने में नॉनवेज न मिलने पर हंगामा कर रहे हैं। बाहर खुले में ही शौच कर देरहे हैं। सहारनपुर पुलिस ने बाकायदा नोटिस चस्पा करके इसका खंडन किया। पुलिस ने साफ कहा की ख़बर के बाद मामले की जांच की गई जो ग़लत निकली। फेक न्यूज़ थी। लेकिन इसका खंडन कहीं छपा नहीं। वैसे भी इस तरह एक धर्म विशेष के ख़िलाफ़ ख़बरे प्रमुखता से छपती हैं और खंडन कोने में। खंडन की यही विडंबना है। वैसेऐसी महामारी में झूठी खबरें फैलाने वाले किस जमात के लोग हैं? इनकी खबर कौन लेगा?
इसी तरह उत्तर प्रदेश के औरेया ज़िले का एक मामला है। यहां वॉट्सऐप के जरिए अफवाह फैलाई गई कि दिल्ली से आए 4-5जमाती छिपे रहे और बाद में गायब हो गए। पुलिस ने इस मामले में कार्रवाई की तो ख़ुद को पत्रकार कहने वाले एक शख्स को गिरफ्तार किया।
एक मामला है मशहूर न्यूज एजेंसी एएनआई का। एजेंसी ने डीसीपी के हवाले से ख़बर चलाई कि उत्तर प्रदेश के ही नोएडा के सेक्टर-5के हरोला में तबलीगी जमात के संपर्क में आने वाले लोगों को क्वांरटीन किया गया है। बाद में डीसीपी नोएडा ने इसका खंडन किया और कहा कि हमने तबलीगी जमात का नाम नहीं लिया था। कोरोना पॉजिटिव के संपर्क में आने वाले लोगों को नियमों के हिसाब से क्वारंटीन किया गया है।डीसीपी नोएडा ने साफ कहा कि आप (न्यूज़ एजेंसी) गलत बात को कोट कर रहे हैं और फेक न्यूज फैला रहे हैं।
इसी तरह ज़ी न्यूज के उत्तरप्रदेश/उत्तराखंड ट्विटर हैंडल से ट्वीट किया गया कि फिरोजाबाद में चार तबलीगी जमाती कोरोना पॉजिटिव पाए गए हैं औऱ जब उन्हें लेने मेडिकल टीम गई, तो उन पर पथराव किया गया। इस पर फिरोजाबाद पुलिस ने ट्विटर पर जवाब दिया कि आपके द्वारा असत्य और भ्रामक खबरे फैलाई जा रही हैं। फिरोजोबाद में न ही किसी मेडिकल टीम और न ही किसी एम्बुलेंस पर पथराव किया गया है। फिरोजाबाद पुलिस ने तत्काल जी न्यूज को ट्वीट डिलीट करने को कहा। इसके बाद जी न्यूज की तरफ से ट्वीट डिलीट भी कर दिया गया। यानी फेक न्यूज फैलाने वाले को बैकफुट पर आना पड़ा।
बात यहीं नहीं थमती। यह तो मेन स्ट्रीम मीडिया का हाल है। सोशल मीडिया पर भी इस तरह की कई बातें फैलाई जा रही हैं, जिनका सच्चाई से दूर-दूर तक लेना नहीं है। फैक्ट चेक वेबसाइट ऑल्ट न्यूज के मुताबिकफेसबुक पेज हिंदुस्तान की आवाज़ लाइवने एक वीडियो शेयर करते हुए लिखा है, देखिए 14दिन के एकांतवास में भी इन तबलीगी जमात के लोगों ने अश्लीलता और आतंक मचा रखा है…… क्वारंटीन में जमकर किया हंगामा। #सरम नाम की सारी हदें कर दी पार #खेला नंगा नाच. वीडियो हुवा वाइरल# प्रशासन है इन लोगो से परेशान#”ऑल्ट न्यूज ने जब फैक्ट चेक किया तो पता चला कि मामला तो पाकिस्तान का है। वहां के एक पुराने वीडियो को इस गलत दावे से शेयर किया जा रहा था कि आइसोलेशन वॉर्ड में तबलीगी जमात के लोग नंगा घूम रहे हैं और तोड़-फोड़ कर रहे हैं।

यह सारा शुरू हुआ निजामुद्दीन वाला मामला सामने आने के बाद। जब से जमात वाली ख़बर आई, तब से #CORONAJIHAD और #NizamuddinIdiot जैसे हैशटैग से मुसलमानों के खिलाफ तरह-तरह की फर्जी खबरें यानी फेक न्यूज और अफवाहें फैलाई जा रही हैं। फेक न्यूज़ ऐसी बाढ़ आई कि एक डॉक्यूमेट्री फिल्ममेकर यूसुफ सईद ने सोशल मीडिया पर पिछले कुछ सप्ताह के दौरान इन तमाम फेक न्यूज की लिस्ट बनानी शुरू कर दी। वह कहते हैं, ‘हम उनकी लापरवाही के लिए तबलीगियों का बचाव नहीं कर रहे हैं।लेकिन, इस तरह की फेक न्यूज़ का मकसद क्या है? सईद ने 5अप्रैल को अपने फेसबुक पेज पर कुछ फर्जी यानी फेक न्यूज की रिपोर्ट और उससे जुड़े स्पष्टीकरण को पब्लिश किया है।

इनमें से एक उदाहरण देता हूं कि कैसे तबलीगी जमात का मामला सामने आने के बाद मुसलमानों से संबंधित पुराने वीडियो शेयर करने की बाढ़ आ गई है। जैसे- एक वीडियो खूब वायरल हुआ, जिसमें कुछ मुसलमान बर्तन को थूक से जूठा कर रहे हैं। वीडियो शेयर करने के दौरान कहा गया कि कोरोनो वायरस फैलाने के लिए जानबूझकर ऐसा किया जा रहा है। बाद में पता चला कि यह वीडियो 2018का था। इसमें दाउदी बोहरा संप्रदाय के सदस्यों ऐसा कर रहे थे। दरअसल, दाउदी बोहरा संप्रदाय अनाज का एक भी दाना बर्बाद न करने में विश्वास करता है। इस वीडियों में वे बर्तन नहीं चाट रहे थे या जूठा कर रहे थे, बल्कि उसे धोने से पहले साफ कर रहे थे।
तो आप अंदाजा लगा सकते हैं कि आख़िर कोरोना वायरस के नाम पर हम क्या कर रहे हैं? दरअसल, हमारे देश में जब तक हजरत निजामुद्दीन में तबलीगी जमात का मामला सामने नहीं आया था, तब तक कोरोना से हमारी जंग सही चल रही थी। टीवी चैनलों और कुछ अखबारों ने दिल्ली दंगों के बाद हिंदू-मुसलमान बंद ही किया था कि यह एक नई महामारी आ गई। उनकी मेहनत और ऊर्जा वैसी नहीं दिख रही थी, क्योंकि देश एकजुट होकर इस वैश्विक आपदा का सामना कर रहा था। सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम की मीडिया तक में हम एकजुट होकर लड़ रहे थे, लेकिन तभी नया मसाला मिला। तबलीगी जमात का। यहीं से कोरोना से जंग ने रुख मोड़ लिया।

ईरान-पाकिस्तान में धार्मिक ज़िद, कोरोना का रिलिजयस कनेक्शन

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कोरोना वायरस महामारीपूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले चुका है। लेकिन एक देश है तुर्कमेनिस्तान, जो ईरान से सटा। हर देश कोरोना वायरस संक्रमण खत्म करने में जुटा है। पर तुर्कमेनिस्तान में कुछ अलग ही तरीका अपनाया गया है। यहां कोरोना शब्द पर ही बैन लगा दिया गया है। यहां कोरोना बोलने और लिखने वालों पर कार्रवाई हो रही है। मास्क पहनने पर पहले ही बैन है। अगर कोई नियमों को तोड़ता है, तो उसे जेल हो सकती है। दरअसल, तुर्कमेनिस्तान ईरान के दक्षिण में है। ईरान में कोरोना से 4110 लोगों की मौत हो चुकी है। 66 हजार से ज्यादा संक्रमित हैं। (10 अप्रैल 2:22 बजे तक) लिहाजा, तुर्कमेनिस्तान में इस तरह की पाबंदी पर कई देशों ने नाराजगी जाहिर की है।
फोटोः इंटरनेट
लेकिन, एक कहानी यही से शुरू होती है कि जब ईरान सटे तुर्कमेनिस्तान का रवैया कुछ अजीब है, तो यहां से पाकिस्तान की हालत कैसे ख़राब होती जा रही है।हम उस पर भी बात नहीं करेंगे। हम बात करेंगे ईरान की, जो एशिया में कोरोना वायरस की उत्पत्ति माने जाने वाले देश चीन को भी मौतों के मामले में पीछे छोड़ चुका है। साथ ही, इसी बहाने पाकिस्तान वाले कुछ इलाकों की भी बात करेंगे। तो फरवरी 2020 के अंतिम सप्ताह में बलूचिस्तान प्रांत की सीमा चौकी तफ्तान से 6,500 तीर्थयात्रियों को अपने-अपने घर पाकिस्तान लौटने की इजाजत दी गई. ये सभी कोरोना के संदिग्ध बताए जा रहे थे। ये सभी शिया तीर्थयात्री थे, जिन्होंने ईरान में क़ौम और मशहद जैसे पाक जगह की यात्रा की थी।
चीन ने फरवरी की शुरुआत में ही कोरोना वायरस संक्रमण के बारे में आगाह किया था। लेकिन ईरान ने कोई ध्यान नहीं दिया और चीन से लोगों का आना जारी रहा। यहां कौम में दुनिया भर से इकट्ठा हुए लोगों को क्वांरटीन करने का कोई बंदोबस्त नहीं किया गया। इस तरह ईरान ने अपने इस शहर को कोरोना वायरस का केंद्र या गढ़ बनने की एक तरह से इजाजत दे दी थी। भले ही अनजाने में। इसके अगले ही महीने यानी मार्च में पूरे मध्य पूर्व में लगभग 17,000 मामले कोरोना वायरस के दर्ज किए गए। इन 17 हजार मामलों में से 90 प्रतिशत का ताल्लुक ईरान से था। ईरान को सर्वोच्च नेता अयातुल्ला खामेनई ने 3 मार्च को कहा था कि कोरोना कोई बड़ी त्रासदी नहीं है। इस त्रासदी पर लोगों की दुआएं और पवित्र स्थल कहीं अधिक भारी है। लेकिन ईरान के 13 आला अधिकारियों की मौत और 30 के संक्रमित होने के बाद खामेनई ने महामारी के लिए अमेरिका को कोसना शुरू कर दिया।

उधर, तफ्तान में पाकिस्तान की ओर से क्वारंटीन में रखे गए हजारों लोगों की वायरस से सुरक्षा का शायह ही ध्यान रखा गया। लोगों भेड़ों की तरह एक टेंट में ठूस कर रखा गया। इससे जो लोग संक्रमित नहीं थे, वे भी वायरस की चपेट में आ गए। सारे के सारे शिया मुसलमान थे और अधिकांश का ताल्लुक पाकिस्तान के सिंध प्रांत से था। सिंध में ही 2.2 करोड़ की आबादी वाला पाकिस्तान का सबसे बड़ा शहर कराची है। चूंकि इनमें से किसी भी तीर्थयात्री में वायरस संक्रमण की जांच नहीं की गई, तो एक तरह से ये पूरे पाकिस्तान में वायरस फैलाने का जरिया बन गए। आज पाकिस्तान में 4489 लोग (हालांकि टेस्टिंग कम होने से आंकड़ा कम है) संक्रमित हैं औऱ 65 की जान जा चुकी है।
जिस तरह तबलीगी जमात को दिल्ली के निजामुद्दीन में धार्मिक कार्यक्रम किया। उस तरह जमात ने पाकिस्तान में भी अपना सालाना कार्यक्रम किया था। पाकिस्तानी अख़बार 'डॉन'की रिपोर्ट के अनुसार, 10 मार्च को हुए कार्यक्रम में 70 से 80 हजार लोगों ने शिरकत की थी। हालांकि, तबलीगी जमात ने दावा किया कि उनके कार्यक्रम में ढाई लाख से ज्यादा लोग पहुंचे थे। इसमें 40 देशों से करीब 3000 लोग शामिल थे। पाकिस्तान की तबलीगी जमात ने भी न सिर्फ पाकिस्तान बल्कि दूसरों देशों में भी वायरस फैलाने का काम किया। इसमें शामिल किर्गिस्तान के कम-से-कम दो नागरिकों और दो फिलिस्तीनियों ने वापस देश के लिए उड़ान भरी। उनकी वजह से फिर गाजा पट्टी में वायरस फैला। इसी तरह, मलेशिया में तबलीगी जमात की धार्मिक सभा की वजह 620 लोगों को कोरोना हुआ। बाद ये सभी दक्षिण एशिया लौटे और फिर क्या हुआ होगा, आप सोच सकते हैं। 
पाकिस्तान में कोरोना वायरस संक्रमण के लिहाज से सबसे असुरक्षित जगह मस्जिद है, जहां लोग दिन में पांच बार नमाज के लिए आते हैं और कंधे-से-कंधा सटाकर खड़े होते हैं। पाकिस्तान में तकरीबन 5 लाख मस्जिद हैं। यहां 1947 के बाद के शुरुआती दिनों में ज्यादातर शुक्रवार को ही मस्जिदों में नमाज पढ़ते थे, लेकिन आज अधिकांश लोग पड़ोस की मस्जिदों ही हर रोज दिन में पांच बार नमाज करते हैं। अब लोग इतनी बार मिलेंगे और भीड़ में इकट्ठा होंगे, तो वायरस का संक्रमण किस रफ्तार से होगा?जब पाकिस्तान ने लॉकडाउन का फैसला किया, तो मस्जिद की सभाओं को नजरअंदाज करना पड़ा, क्योंकि अधिकांश मौलवी इसके ख़िलाफ़ थे। न्यूजवीक पाकिस्तान के खालिद अहमद बताते हैं कि तब पाकिस्तान के राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने इस मामले को सर्वोच्च इस्लामी संस्था जमीयत अल-अजहर या अल-अजहर यूनिवर्सिटी मिस्र को इस मामले को रेफर किया। इसके बाद ही सभी मस्जिदों को बंद करने की नसीहत दी गई। फिर भी कुछ मौलवी इसके पक्ष में नज़र नहीं दिखते, लेकिन सऊदी अरब ने मक्का और मदीना को बंद करने का फैसला कर लिया। पाकिस्तान ने बीच का रास्ता निकाला, जो बेतुका औऱ नासमझी वाला लगता है। यहां फैसला किया गया कि मस्जिदें बंद नहीं होंगी, लेकिन नमाज के दौरान पांच से अधिक लोगों का समूह साथ में नहीं होगा।
कुछ इस तरह से कोरोना वायरस से जंग जीतने के लिए रेत पर तस्वीर बनाई जा रही है और जीतने की तमन्ना भी पाली जा रही है।

नीतीश कुमार की नाकामी और ‘चीन का वुहान’ बना बिहार का सीवान

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भारत में अभी तक कोरोना वायरस संक्रमण के 7598मामले सामने आए हैं। इससे 246लोगों की मौत हो चुकी है। www.worldometers.info › coronavirus के मुताबिक, भारत ने अभी तक 189111 टेस्ट किए हैं, जबकि आबादी 1अरब 30करोड़ से ज्यादा है। चलिए मान लेतें है कि दो लाख की होगी टेस्टिंग। वहीं, 33-34करोड़ की आबादी वाला अमेरिका अभी तक 2489786टेस्ट कर चुका है। अब अमेरिका से अपनी क्या तुलना करना। ज़रा पति करिए कि ईरान की आबादी कितनी है, लेकिन उसने 242,568टेस्ट, तुर्की जैसा छोटा देश 8.2करोड़ आबादी वाला 307,210टेस्ट कर चुका है। अब हर देश का आंकड़ा देना भी उचित नहीं है वरना आप कहेंगे कि आंकड़ेबाज़ी में ही उलझा दिए। लेकिन तथ्य तो तथ्य ही। भले आप मानें या न मानें।
Photo: Internet
लेकिन, बात भारत की नहीं। भारत में एक राज्य है बिहार। यहां एक दिन में सर्वाधिक 21नए कोरोना पॉजिटिव मरीज मिले हैं। सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि बिहार के सीवान ज़िले की हालत चीन के वुहान जैसी हो गई। वुहान वही शहर है, जो कोरोना का केंद्र माना जाता है। सीवान में कोरोना पॉजिटिव मरीजों की संख्या 20हो गई है। बिहार में अब तक पहली बार ऐसा हुआ है कि एक ही दिन में वैश्विक महामारी कोरोना के सर्वाधिक मामले सामने आए हैं।9अप्रैल की सुबह से देर रात तक कुल 19नए संक्रमितों की पहचान की गई। सैंपल जांच में सभी में कोरोना पाजिटिव पाया गया है। इनमें सीवान के 17हैं। 30मार्च को कोरोना के छह मरीज मिले थे। 7अप्रैल को भी बिहार में एक ही दिन में कोरोना छह मरीज सामने आए थे। बिहार में 9अप्रैल को 19नए मरीजों के सामने आने के बाद कोरोना संक्रमितों की संख्या 39से बढ़कर 58हो गई। यहां एक व्यक्ति ने परिवार के 16लोगों को संक्रमित किया। ओमान से सीवान में आए एक संक्रमित व्यक्ति ने आइसोलेशन में नहीं जाकर अपनी पहचान छिपाए रखी। अब इस परिवार की 12महिलाएं और चार पुरुष अब तक कोरोना पॉजिटिव पाए जा चुके हैं। सीवान में एक अन्य व्यक्ति की भी पहचान कोरोना पॉजिटिव के रूप में की गई। यह युवक 16मार्च को दुबई से आया था। इस तरह सीवान में सर्वाधिक 27कोरोना के मरीज हो गए हैं।
इस पर तुर्रा यह कि उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी जी कह रहे हैं कि लॉकडाउन के 15दिन बाद भी कोरोना के नए मरीजों की संख्या में वृद्धि से जाहिर है कि सामाजिक दूरी यानी सोशल डिस्टेंसिंग बरतने के निर्देश का पालन करने में कई स्तरों पर चूक हो रही है। तो इस चूक को दूर करने की जिम्मेदारी किसकी है। जानता हूं यह भी जनता के मत्थे ही थोपा जाएगा।

अब आइए नज़र डालते हैं कि बिहार कोरोना वायरस के कितने टेस्ट किए और अभी तक कितने मामले आए। कहा जा रहा है कि बिहार में कुल 60के करीब मामले आए हैं। जब किसी अपराध की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की जाएगी, तो आधिकारिक आंकड़ों में उसे अपराध हुआ माना ही नहीं जाएगा। यही हाल कोरोना के मामले में भी है। जब कोरोना वायरस का टेस्ट होगा ही नहीं या कम टेस्ट होगा तो मामला ज्यादा कैसे आएगा। उधर डॉक्टरों और स्थानीय लोगों का भी कहना है कि कोरोना के मरीजों की संख्या भले ही कम बताई जा रही हो, लेकिन यह संख्या इससे कहीं अधिक है। पटना एम्स के कुछ डॉक्टरों का तो यहां तक कहना है कि ऐसे पॉजिटिव मामले भी हैं, जिनके बारे में बताने से मना किया जा रहा है।

दूसरी तरफ इसको भी छोड़ दें तो नीतीश कुमार ने अपने 15साल के शासन में बिहार के स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कुछ किया ही नहीं। इसका भी डर उनको होगा। पिछले साल मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार का मामला सामने आए है कि कैसे बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खुल गई थी। बिहार से ताल्लुक रखने वाले केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे तो प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान सोते पाए गए थे। यह इस बात का भी प्रतीक है कि कोरोना महामारी पहले से ही बिहार की नाजुक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर बोझ बनने लगी है। ऐसे में खराब योजना, सुरक्षात्मक उपकरणों की कमी और सार्वजनिक जागरूकता की कमी भी चुनौती को बढ़ा रही है।

बिहार के डॉक्टर कैसे कोरोना वायरस से लड़ रहे हैं, इसकी मिसाल यह है कि डॉक्टरों का कहना है कि प्रोटोकॉल के अनुसार हमें एन-95मास्क, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) किट और सैनिटाइज़र दिया जाना चाहिए। हमारी स्थिति इतनी विकट है कि हम मरीजों का इलाज करते समय खुद को बचाने के लिए एचआईवी किट का उपयोग करते हैं। हम बिना उचित सुरक्षा उपकरण के मरीजों का इलाज करते हैं, तो आठ घंटे की ड्यूटी के बाद फिर इस्तेमाल किया हुआ दस्तानी ही पहनना पड़ता है। इससे डर है कि हमें भी कोरोन वायरस न हो जाए। पीएमसीएच बिहार के सबसे बड़े अस्पतालों में से एक है। यहां COVID-19के रोगियों के लिए बेड उपलब्ध नहीं हैं।

बिहार में कोरोनो वायरस के लिए टेस्टिंग कम हो रहे हैं। इससे डॉक्टरों पर दबाव बन रहा है। उन्हें लग रहा है कि वे ऐसे मरीजों का इलाज कर रहे हैं, जिनमें इस तरह के लक्षण हो सकते हैं। ऐसे में उन्हें यह बीमारी हो सकती है। बिहार में सिर्फ एक ही रिसर्च सेंटर है, जो कोरोना वायरस सैंपल का टेस्ट करता है। फिर उसकी पुष्टि के लिए पुणे भेजा जाता है। ऐसे में कोरोन वायरस का कम्युनिटी संक्रमण होता है, तो बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त सकती है।


कोविड-19, चीन और WHO चीफ की चालाकियां

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चीन ने 7अप्रैल को पहली बार कोरोना वायरस संक्रमण की टाइमलाइन जारी की। 38 पेज की इस टाइमलाइन में कहा गया है कि इस वायरस का पता पहली बार वुहान में पिछले साल दिसंबर में लगा था। उस समय एक व्यक्ति में अज्ञात वजहों से निमोनिया होने का पता चला था।दिसंबर 2019 में उस एक केस के बाद 12 अप्रैल 2020 तक 17 लाख 68 हजार 19 केस हो चुके हैं। 1 लाख 8 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। अब इसमे विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी WHOकी क्या भूमिका है? इसने कोरोना वायरस महामारी यानी कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए क्या किया?आख़िर इसने इतने कुछ किया, तो फिर इसके चीफ टेड्रोसगेब्रियेसस पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?आज इन्हीं सवालों का जवाब जानने की कोशिश करते हैं।
WHO चीफ गेब्रेयेसिएस व चीनी राष्ट्रपति चिनफिंग। फोटोः इंटरनेट
पहले शुरू करते हैं कोरोना वायरस के पहले मामले से। तो इसका आगाज होता है 1 दिसंबर, 2019 से। चीन के वुहान शहर में एक महिला में निमोनिया के लक्षण सामने आते हैं। माना जा रहा है कि वह कोरोना वायरस का सबसे पहली मरीज़ थी। दिसंबर में इस तरह के कई मामले आए, जिनका कारण पता नहीं चल पा रहा था। इन्हें सूखी खांसी, बुखार और सांस लेने में तकलीफ होती थी। इसके बाद चीन ने 31 दिसंबर, 2019 को WHO को इन अजीबोगरीब मामलों की जानकारी दी। फिर 7 जनवरी 2020 कोयह पता चला कि ये तो वायरस का नया स्ट्रेन है। इसका नाम नोवेल कोरोना वायरस रखा गया। 11 जनवरी को चीन में इससे पहली मौत की घोषणा की गई। इसके बाद 13 जनवरी को चीन से बाहर थाईलैंड में पहला केस आया। 30 जनवरी तक यह वायरस चीन के अलावा 18 देशों तक पहुंच चुका था। 30 जनवरी को ही WHO ने कोरोना वायरस को ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर दिया। 11 मार्च को कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया।
लेकिन इन घटनाक्रमों के बीच काफी कुछ ऐसा भी घटा, जिससे आरोप लगने लगे हैं कि WHOने कोरोना संकट के लिए चीन को बचाने का काम किया है?WHOके मुखिया पर आरोप लग रहे हैं कि कोविड-19 को लेकर उसने कमज़ोर, लेटलतीफ और ​बगैर सोचने-समझने की रणनीति अपनाई। बात-बात में चीन का बचाव करते दिखे, जबकि यह साफ है कि यह वायरस चीन से ही निकला और पूरी दुनिया में फैल गया।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल में टेड्रोस के चीनी समर्थक बयानों को लेकर कहा कि डब्‍ल्‍यूएचओ के महानिदेशक ने पक्षपात किया है। कोरोना वायरस संक्रमण के दुनिया भर में फैल जाने के पीछे चीन को ज़िम्मेदार ठहराए जाने के मामले में डब्ल्यूएचओ की तरफ से टेड्रोस ने चीन की तरफ़दारी की और चीन को दुनिया के संकट के लिए ज़िम्मेदार मानने से इनकार किया। वेबसाइट द हिल की रिपोर्ट कहती है कि चीन ने इथोपिया में भारी निवेश किया है, इसलिए टेड्रोस उसका बचाव करने पर मजबूर हैं। टेड्रोस इथोपिया से ही आते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि वह इथोपिया के कम्युनिस्ट नेता रहे हैं।

ख़ैर हम लौटते हैं असल मुद्दे पर कि किस तरह से विश्व स्वास्थ्य संगठन औऱ टेड्रोस ने इस पूरे मामले को बिगाड़ा औऱ कोविड-19 को महामारी बनने दी। पूरी दुनिया को मौत की संख्या में झोंक दिया। दरअसल, इस बात के सबूत मिले हैं कि कोरोना वायरस अक्टूबर 2019 के बीच में ही इंसानों में फैल चुका था, लेकिन डब्लूएचओ ने कोई गंभीरता नहीं दिखाई। वहीं, जनवरी 2020 में महामारी के शुरुआती दौर में चीन द्वारा इसके लिए उठाए जा रहे कदमों और इसके महामारी बनने को लेकर पारदर्शिता अपनाने के लिए उसकी तारीफ की। हालांकि, 13 जनवरी को चीन के बाहर थाईलैंड इससे मौत का मामला आ चुका था। ताइवान ने WHOको इस बारे में दिसंबर में ही सावधान कर दिया था। इस बीच कोविड-19 महामारी दुनिया भर में तेजी से फैल रही थी। टेड्रोस और उनकी टीम फिर भी दुनिया के देशों को यात्राओं पर रोक न लगाने की बात कर रहे थे। जब अमेरिका ने जनवरी में ही चीन से आने वालों पर यात्रा प्रतिबंध लगाया, तो इसने अमेरिका की ही आलोचना की। आज पूरी दुनिया इस महामारी से बचने के लिए लॉकडाउन और ट्रैवल बैन लागू कर चुकी है, लेकिन WHOने इसके उलट सलाह दी।

अब जबकि अमेरिका और चीन के बीच इस महामारी को लेकर तू-तू मैं-मैं जारी है, तो इसकी बड़ी वजह खुद टेड्रोस हैं। अमेरिकी सीनेटर टॉड यंग ने WHO प्रमुख डॉ. टेड्रोस को अमेरिकी सीनेट की फॉरेन रिलेशंस सबकमेटी के सामने पेश होने को कहा। उन्होंने पूछा कि आप बताइए कि आपके संगठन ने कैसे इस महामारी को संभाला? सीनेटर यंग ने कहा कि चीन कोरोना वायरस को संभालने में बुरी तरह से कमजोर साबित हुआ और उसने दुनिया को सही आंकड़े नहीं बताए। टॉड यंग ने कहा कि डब्ल्यूएचओ प्रमुख चीन के साथ ऐसे खड़े थे, जैसे कोई असिस्टेंट खड़ा रहता है।

उधर, ताइवान जिसने पहले इस वायरस को लेकर WHOको चेताया था, उसने टेड्रोस पर कई आरोप लगाए। दरअसल, टेड्रोस ने ताइवान पर निशाना साधते हुए कहा था कि तीन महीने पहले ताइवान ने मुझ पर निजी हमला किया। लेकिन ताइवान ने कहा कि टेड्रोस को अपने गैर जिम्मेदाराना बयान के लिए माफी मांगनी चाहिए। दरअसल, मामला तीन महीने पहले का है और डब्ल्यूएचओ प्रमुख टेड्रोस गेब्रेयेसिएस ने आरोप लगाया था कि कोरोना के खिलाफ जारी लड़ाई के दौरान तीन महीने पर उन्हें जान से मारने की धमकी मिली। मुझे नीग्रो और अश्वेत कहा गया। अब सवाल यह भी उठता है कि जब मामला तीन महीने पहले का है और उन पर अमेरिका सहित कई देश चीन का साथ देने और पूरी दिया को कोरोना वायरस को लेकर अंधेरे में रखने के आरोपों को लेकर हमला कर रहे हैं, तो इस तरह से खुद को डिफेंड करना किस हद तक जायज है। मुमकिन है कि उनके साथ हुआ हो, तो फिर सवाल यह भी है कि आख़िर यह बात अभी कैसे आई। वह भी तब जब उन पर हर तरह से हमले हो रहे हैं।

कोरोना की टेस्टिंग में फिसड्डी भारत, दावे बड़े दर्शन छोटे

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पिछले दिनोंएक ख़बर आई कि भारत कोरोना वायरस के मामलों की बहुत कम टेस्टिंग कर रहा है। यह ठीक है कि लॉकडाउन जैसे कुछ फैसले भारत ने दुनिया के कई देशों की तुलना में पहले लिए, जिसका थोड़ा-बहुत फायदा वह अपने हक़ में बता सकता है। हालांकि, इस लॉकडाउन की वजह से कितनी बड़ी आबादी पलायन और भूख से लेकर तमाम तरह की दिक्कतों से जूझने को मजबूर हुई वह अलग कहानी है। तीन-चार दिन पहले एक खबर आई कि भारत प्रति 10 लाख बहुत ही कम लोगों की टेस्टिंग कर रहा है। यह आंकड़ा हर 10 लाख पर महज 102 था। यानी देश की 1 अरब 33 करोड़ आबादी को मानें, तो इसमें 10 लाख लोगों में से सिर्फ 102 लोगों की ही कोरोना की टेस्टिंग की जा रही है। पिछले दिनों कहीं पढ़ा कि भारत के जिन राज्यों ने सबसे ज्यादा टेस्टिंग की वहां कोरोना से मौत की दर कम है। उदाहरण के तौर पर, हर 100केसों के हिसाब से देखें, तो मध्य प्रदेश में कोरोना से मृत्य दर 8फीसदी है। इसी तरह, पंजाब और झारखंड में 7.7फीसदी, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में 7.1फीसदी, गुजरात में 6.9फीसदी और पश्चिम बंगाल में 4.7फीसदी है।
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वहीं, हर 10लाख की आबादी पर दिल्ली में सबसे ज्यादा 594टेस्ट हो रहे हैं। इसके बाद  केरल में हर 10 लाख की आबादी पर 366, राजस्थान में 279, महाराष्ट्र में 274और गोवा में 236लोगों की कोरोना टेस्टिंग हो रही है। यह एक औसत आंकड़ा है। यह अलग बात है कि हम चीन की तरह मौतों के आंकड़ों को छिपाएं, तो फिर कहा ही क्या जाए। बिहार में तो टेस्टिंग न के बराबर हो रही है। फिर वहां तो कुछ डॉक्टरों का कहना है कि पॉजिटिव मामलों को भी आधिकारिक आंकड़ों से गायब कर दिया जा रहा है। पिछले कुछ दिनों में भारत में जिस तेजी से कोरोना वायरस संक्रमण और मौतों के मामले बढ़े हैं और वह बतलाता है कि हम अभी भी बहुत कम टेस्ट कर रहे हैं। अगर यही हालात रहे, तो जिस तरह से इटली और स्पेन की हालत हुई वह हमारी भी हो सकती है।
हालांकि, स्पेन औऱ इटली में हालात धीरे-धीरे काबू में आ रहे हैं। इसकी वजह लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे उपाय तो हैं ही, लेकिन उसमें कोरोना टेस्टिंग का भी बहुत बड़ा योगदान है। इसी में भारत बहुत पिछड़ रहा है। अब आंकड़ों पर नजर डालें, तो ये देश और इनसे और भी छोटे-छोटे देश (आबादी के हिसाब से) हमसे टेस्टिंग में कहीं आगे हैं। अब अमेरिका को ही लें। अमेरिका की आबादी 32.82 करोड़ है और उसने अभी तक 27 लाख 81 हजार 460 लोगों की टेस्टिंग कर ली है। स्पेन हमसे आबादी में कहीं पीछे है। लगभग 4.69 करोड़ की आबादी वह देश कोरोना से बुरी तरह प्रभावित देशों में एक है। इसने अभी तक 3 लाख 55 हजार टेस्टिंग की है। इटली की आबादी 6.04 करोड़ है। कल तक यहां कोरोना महामारी से सबसे ज्यादा मौतें हुई थीं। आज अमेरिका में मौतों की संख्या इससे ज्यादा हो चुकी है। इटली ने 10 लाख 10 हजार 193 टेस्ट किए हैं। यूरोप के जिन चार देशों में कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा तबाही मचाई है, उनमें फ्रांस भी है। इसकी आबादी 6.7 करोड़ है, जबकि यह 3 लाख 33 हजार से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग कर चुका है। जर्मनी में 1 लाख 26 हजार 921 केस आ चुके हैं। इसकी आबादी 8.3 करोड़ है और यहां 13लाख 18 हजार के आसपास लोगों की टेस्टिंग की जा चुकी है। 
इनकी छोड़िए अपने एशिया में ही आते हैं। चीन के बाद ईरान एशिया का सबसे प्रभावित देश है। यहां 71 हजार 600 से ज्यादा केस संक्रमण के आए हैं और इसने 2लाख 63हजार से ज्यादा लोगों की अभी तक टेस्टिंग की है। तुर्की को ही ले लीजिए 8.2करोड़ की आबादी वाले देश में कोरोना के लगभग 57 हजार मरीज हैं औऱ इसने 3लाख 76हजार सैंपल टेस्ट कर लिए हैं। उससे भी अचरज तो यह लगेगा कि 5.16 करोड़ की आबादी वाले दक्षिण कोरिया में 10 हजार 500 से कुछ ज्यादा ही मरीज हैं और यहां लगभग 215 लोगों की अभी तक मौत हुई है, लेकिन इसने 5लाख 14हजार से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग की है।

वहीं, भारत 1 अरब 33 करोड़ की आबादी वाला देश है। अमेरिका से इसकी आबादी 1 अरब अधिक है। दक्षिण कोरिया के बराबर केस सामने आ चुके हैं, लेकिन अभी तक टेस्टिंग सिर्फ 1 लाख 90 हजार के आसपास हुई है। अब इस पर भी हम ढिंढोरा पीटें कि हमारे यहां तो मामले भी कम आ रहे हैं। तो कम-से-कम दक्षिण कोरिया से ही सबक ले लें। या फिर रूस से ही ले लें। 14.65 करोड़ की आबादी वाले रूस में 15 हजार 700 से ज्यादा मामले आ चुके हैं और इसने कम मामलों के बावजूद 12 लाख से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग कर ली है। साफ मतलब है कि ज्यादा टेस्टिंग यानी मौतें कम। लेकिन, हम इसी में फिसड्डी साबित हो रहे हैं और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन नामक दवा को लेकर खामखां अपनी सीना चौड़ा कर रहे हैं। जबकि हमारा पूरा जोड़ अभी लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे उपायों के साथ टेस्टिंग पर होना चाहिए।

नोटः आंकड़े 12 अप्रैल तक के हैं।

कोविड-19 और चीन की शातिर कूटनीति पर भारी ताइवान की मास्क डिप्लोमेसी

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चीन के वुहानसे जन्मा कोरोना वायरस पूरी दुनिया में तबाही मचा रहा है। अभी तक 19 लाख से ज्यादा लोग पूरी दुनिया में इस महामारी की चपेट में हैं, जबकि 1 लाख 18 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन, चीन के बेहद करीब का देश ताइवान काफी पहले ही इस पर काबू पाने में कामयाब रहा है। ताइवान आबादी और संसाधनों के मामले में चीन ही नहीं, दुनिया के अधिकांश देशों के मुकाबले बेहद कमजोर है। उसके बावजूद कोरोना जैसी महामारी को इस देश ने काफी हद तक आगे बढ़ने से रोक दिया है। यहां आज की तारीख में 308 लोग संक्रमित हुए हैं, जिसमें से 109 लोग ठीक भी हो चुके हैं। सिर्फ 6 लोगों की ही मौत हुई है।
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आख़िर ऐसी क्या वजहें रहीं और उसने क्या उपाय किए, जिससे ताइवान को यह महामारी अपनी जकड़ में नहीं ले पाया। जबकि ताइवान विश्व स्वास्थ्य संगठन का सदस्य देश भी नहीं है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन जिस पर इस महामरी को लेकर चीन के पक्ष में काम करने का आरोप लग रहा है। तो इसके पीछे वजह यह है कि जब चीन में कोरोना की शुरुआत हुई, तभी ताइवान ने मास्क, टेस्ट, सैनिटाइजर और दूसरी जरूरी मेडिकल वस्तुओं को बनाने पर जोर देने लगा था। उसने डिजिटल थर्मामीटर से लेकर मास्क और वेंटिलेटर वगैरह के निर्यात पर भी बैन लगाया।
अब वह मास्क डिप्लोमेसी के जरिए वैश्विक परिदृश्य में अपनी मजबूत धमक या कूटनीतिक पहुंच साबित कर रहा है। हम जानते हैं कि कोरोना वायरस महामारी ने बुनियादी चिकित्सा उपकरणों और सामानों की सप्लाई को पूरी तरह से बदल दिया है। कई देशों में इस मुश्किल घड़ी में फेस मास्क, दस्ताने और गाउन जैसे महत्वपूर्ण सामानों की भारी कमी हो गई है। कई देश पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (PPE) के निर्यात प्रतिबंध लगा रहे हैं। वहीं कई देश इनके आयात के के लिए बेचैन हैं, क्योंकि वहां इसकी कमी की वजह से खतरा बढ़ता जा रहा है। मेडिकल जरूरतों की सप्लाई इससे पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कभी भी बाधित नहीं हुई, क्योंकि देश पहले अपना हित देख रहे हैं। इसकी वजह है कि इनका उत्पादन करने वाले देश खुद कोरोना वायरस महामारी की भारी चपेट में हैं। ताइवान इन उत्कृष्ट स्तर के मेडिकल मास्क का दुनिया के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ताओं में एक है। ताइवान उन चुनिंदा देशों में भी है, जिसने कोविड-19 से सफलतापूर्वक निपटा है। अब इसके पास इस अवसर का लाभ उठाने का एक दुर्लभ अवसर है कि वह अपने खिलाफ लंबे समय से चल रहे चीन विरोधी राजनीति का लाभ उठा सके। उसे अपने पत्ते सावधानी से खेलने होंगे। खासतौर पर अमेरिका के साथ।


ताइवान की आबादी सिर्फ 2.3 करोड़ है और वह चीन के बाद फेस मास्क का दूसरा सबसे बड़ा वैश्विक उत्पादक है। यानी दुनिया में चीन के बाद ताइवान ही सबसे अधिक फेस मास्क बनाता है। यह हर रोज तकरीबन 1.5 करोड़ मास्क का उत्पादन करता है। चूंकि दुनिया में अब इसी मांग बड़ी तेजी से बढ़ी है, तो यह एक दिन में 1.7 करोड़ मास्क का उत्पादन कर रहा है।
अमेरिका में अभी तक कोरोना वायरस से सबसे अधिक मौतें 23 हजार से ज्यादा हुई हैं और यहीं सबसे अधिक संक्रमित 5 लाख
87 हजार से अधिक लोग हैं। वह ताइवान के मास्क निर्यात का लाभ उठाने के लिए तैयार है, क्योंकि उसे अभी बड़ी बेसब्री से इसकी जरूरत है। मार्च में ताइवान ने अमेरिका को हर सप्ताह लगभग 100,000 सर्जिकल मास्क दान करने का वादा किया था। बदले में अमेरिका ने  ताइवान को 300,000 हाजमत सूट देने पर सहमत हुआ। इसके बाद ताइवान ने 1 अप्रैल को घोषणा की कि वह दुनिया के सबसे अधिक जरूरतमंद देशों को 1 करोड़ मास्क दान करेगा। इसमें अमेरिका के लिए अलग से उसने 20 लाख मास्क देने का वादा किया। इसी सप्ताह उसने अमेरिका को 400,000 मास्क दिए। पिछले कुछ दिनों में ताइवान ने अपने कूटनीतिक रूप से सहयोगी देशों के साथ-साथ इटली, स्पेन, फ्रांस, नीदरलैंड और यूनाइटेड किंगडम जैसे कोरोना से सबसे प्रभावित यूरोपीय देशों को मास्क और पीपीई दिए।
उधर, चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात को लेकर खूब आलोचना हुई कि उसे महामारी फैलने की शुरुआत में ही दुनिया को आगाह नहीं किया और मामले को दबाता रहा, जिससे आज यह महामारी घातक हो चुकी है। चीन इसकी काट के तौर पर एक अलग बहस छेड़ने की कोशिश करता रहा। इसने अमेरिका की तुलना में खुद को महामारी से सबसे प्रभावित यूरोपीय देशों का भरोसेमंद सहयोगी साबित करने की कोशिश की। इन प्रयासों के तहत उसने
पूरे यूरोप में चिकित्सा उपकरण,पीपीई और दवाइयां भेज रहा है। चीनी कंपनियां भी अपनी सरकार का समर्थन कर रही हैं। 
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ई-कॉमर्स के दिग्गज और अलीबाबा के सह-संस्थापक चीनी अरबपति जैक मा ने यूरोपीय देशों में 18 लाख फेस मास्क और 100,000 टेस्ट किट भेजने का वादा किया। चीनी कंपनी हुआवे ने भी यूरोप देशों के लिए इसी तरह के राहत पैकेजों की घोषणा की औऱ लाखों मास्क दान में दिए। चीन की कुछ छोटी-बड़ी कंपनियों ने अमेरिका में मेडिकल उफकरण भेजे, लेकिन अफ्रीकी और यूरोपीय देशों को भेजे जाने वाले मदद पैकेजों की तुलना में वह मामूली लगते हैं। चीन ने पूरे यूरोप में एक तरह से मानवीय मदद का प्रोपेगेंडा का खेल खेला है, लेकिन उसकी यह चाल अमेरिका के साथ सफल नहीं रही। अमेरिका ने चीनी कंपनियों जैसे हुवावे के कारोबार पर लगाम लगाने की कोशिश की। इस पर कहा गया कि अगर अमेरिका इस तरह के कदम उठाता है, तो चीन मौजूदा समय में बहुत जरूरी फेस मास्ककी आपूर्ति अमेरिका को बंद कर सकता है। चीन एक तरफ मास्क डिप्लेमेसी का कूटनीतिक खेल खेल रहा है, तो इसी बीच कुछ देशों ने चीन में बने मेडिकल इक्विपमेंट और मास्क की गुणवत्ता पर सवाल उठाने शुरू कर दिया है। नीदरलैंड ने चीन से आयात किए गए हजारों मास्क को लौटा दिया है। आगे के आयात पर भी रोक लगा दी है, क्योंकि उनकी गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करते हैं। स्पेन और तुर्की सहित अन्य देशों ने भी चीनी कंपनियों के कोरोना वायरस की जांच के लिए रैपिड टेस्टिंग किट की शिकायत की है।
ऐसे में अमेरिका की मदद से ताइवान के पास खुद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से पेश करने का मौका आया है। वह भी ऐसे समय में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से वह बाहर है, उसे चीन के दबाव में इस संगठन का सदस्या नहीं बनाया गया। इसके बावजूद ताइवान ने कोरोना वायरस पर काबू पाया है। दरअसल, डब्ल्यूएचओ की सदस्यता केवल उन देशों मिलती है, जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं। ताइवान को संयुक्त राष्ट्र की मान्यता नहीं मिली है। कोरोना वायरस महामारी के बीच कनाडा, यूरोपीय संघ, जापान और अमेरिका ने WHO से ताइवान को सदस्यता देने की अपील की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कोरोना वायरस पर आपातकालीन बैठकों और महत्वपूर्ण ब्रीफिंग से ताइवान को दूर रखा गया।


डब्ल्यूएचओ इस महामारी से निपटने की कोशिशों को लेकर लगातार चीन की तारीफ करता रहा। इससे कुछ देशों ने उस पर चीन का पक्षधर होने का आरोप भी लगाया। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया कि डब्ल्यूएचओ को इस महामारी में पूरी तरह से चीन-केंद्रितहै। ट्रंप ने इसकी फंडिंग रोकने की भी धमकी दी। इस पर डब्ल्यूएचओ के महासचिव ने ट्रंप को इस महामारी का राजनीतिकरणन करने की अपील की। टेड्रोस ने ताइवान के नेताओं पर नस्लवादी टिप्पणी और हत्या की धमकी देने का भी आरोप लगाया। ताइवान ने उनके दावे को सिरे से खारिज कर दिया।


ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका और ताइवान के बीच संबंध पहले की ही तरह मजबूत रहे हैं और कहा जाता है कि ट्रंप अमेरिकी इतिहास में शुरू से सबसे अधिक ताइवान समर्थकों में एक माने जाते हैं। अब कोरोनो वायरस संकट ने दोनों को और भी करीब ला दिया है। अमेरिकी-चीन के तनावों के बीच ट्रप ने 26 मार्च को ताइवान अलाइज इंटरनैशनल प्रोटेक्शन ऐंड अन्हांसमेंट इनिशिएटिव (TAIPEI) अधिनियम पर हस्ताक्षर किए। यह अधिनियम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ताइवान को अमेरिका का खुला समर्थन का प्रतीक है।


मौजूदा समय में चीन और अमेरिका के बीच तकरार बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ ताइवान खुद को बेहतर स्थिति में ला रहा है। अब अमेरिका और ताइवान के बीच कोई मोहरा नहीं है। ताइवान खुद अपने बूते खड़ा हो रहा है।

यह कैसा लॉकडाउन, किसकी सरकार...किसी के लिए स्पेशल फ्लाइट, किसी को लाठी और मार

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22 मार्च को जनता कर्फ्यू। फिर 24 मार्च की आधी रात से पूरे देश में 21 दिनों का लॉकडाउन। उसके बाद पूरे देश से प्रवासी मजदूरों का अपने-अपने गृह राज्यों और घरों के लिए पलायन शुरू हो गया। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के हजारों दिहाड़ी मजदूर कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद बस पकड़ने के लिए आनंद विहार, गाजीपुर और गाजियाबाद पहुंचे। इनमें से किसी को उत्तर प्रदेश जाना था, तो किसी को बिहार। कई राजस्थान जाना चाहते थे, तो कई उत्तराखंड। कोई राजस्थान के जैसलमेर से 22 दिनों में 1400 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बिहार के गोपालगंज पहुंचता है, तो कोई 800 किलोमीटर साइकल चलाकर बनारस पहुंचता है।

मुंबई के बांद्रा में जुटी भीड़। फोटोः इंटरनेट
इस तरह गुजरात से राजस्थान, महाराष्ट्र से गुजरात और उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सीमा पर भी ऐसे ही हजारों दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती थी, तो कर्नाटक में भी यही हाल था। पूरे देश का कमोबेश यही नजरा। हर तरफ से लोग इस लॉकडाउन के बाद अपने घर जाना चाहते थे। इसकी वजह यह थी कि लॉकडाउन से सभी का कामधंधा, रोजी-रोटी छीन लिया था। उनके पास न रहने को स्थायी ठिकाना और न खाने का पुख्ता इंतजाम। सरकार और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किए, लेकिन क्या वह काफी था या नहीं, इस पर सवाल बाद में। हालांकि, आप खुद इस सवाल का जवाब तलाशने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं।
अब 14 अप्रैल को एक नया मसला आया। ख़बर यह है कि दिल्ली के आनंद विहार की तरह की मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर हजारों प्रवासी मजदूरों इकट्ठा हो गए। 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाने का ऐलान किया। हाराष्ट्र में 30 अप्रैल तक जारी लॉकडाउन के बावजूद बांद्रा स्टेशन पर हजारों प्रवासियों की भीड़ जुट गई। बताया जा रहा है कि कई लोगों के पास बांद्रा स्टेशन से ट्रेन खुलने का मैसेज मिला था। इसके बाद हजारों की भीड़ जुट गई, क्योंकि सभी लोगों को अपने घर जाना था। अब इस पर कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह साजिश के तहत किया गया?क्या साजिश के तहत हजारों की तादाद में लोग रेलवे स्टेशन पर जुट गए?दिल्ली के निजमुद्दीन में तब्लीगी जमात का मामला सामने आने के बाद वैसे भी कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ हमारी लड़ी लड़ाई हिंदू-मुसलमान वाली कोरोना फाइट में तब्दील हो गई है। अगर आप न्यूज़ चैनल देखते हैं या ट्विटर फॉलो करते हैं, तो कई वरिष्ठ संपादकों और मीडिया समूह के मालिकों के ट्वीट से आपको इसका अंदाजा लग जाएगा।एक संपादक हैं रजत शर्मा। उन्होंने ट्वीट किया, बांद्रा में जामा मस्जिद के बाहर इतनी बड़ी संख्या में लोगों का इकट्ठा चिंता की बात है। इन्हें किसने बुलाया? अगर ये लोग घर वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने के लिए आए थे तो उनके हाथों में सामान क्यों नहीं था?’ अब इस ट्वीट का मकसद आप समझते रहिए। सुशांत सिन्हा भी एक पत्रकारहैं। एक कहावत है, नया-नया मुल्ला प्याज ख़ूब खाता है, तो यह साहब उसी बिरादरी के हैं। इन्होंने ट्वीट किया, साल में एक बार छठ/दुर्गा पूजा में घर जा पाने वाले बिहार/बंगाल के मजदूरों को 21 दिन के लॉक डाउन में घर की इतनी याद सताने लगी कि डिप्रेशन हो गया। एक से एक कहानी ला रहे हैं लोग। गजबे है।

ऐसे कई पत्रकार हैं, जो सरकार की जगह विपक्ष और जनता से ही सवाल करने का साहस कर पाते हैं। यह पत्रकारिता के स्वर्णिम काल के चंद लम्हों में एक है। ऐसा इसलिए कि अभी तक एक भी पत्रकार सरकार से यह सवाल करने की हिम्मत नहीं कर पाया कि जब विदेश में फंसे हजारों भारतीयों को स्पेशल फ्लाइट से भारत यानी देश लाया जा सकता है, तो देश में ही फंसे लाखों प्रवासियों को उनके गृह राज्यों तक क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता है?जबकि, यह तो पूरी तरह सच है कि कोरोना वायरस का संक्रमण भारत से शुरू नहीं हुआ। विदेशों से लोग आते गए और संक्रमण फैलता गया। सोशल मीडिया पर एक मीम भी चला कि पासपोर्ट ने खता की और भुगत राशन कार्ड रहा है।यह इस देश की सच्चाई भी है। विदेशों में रहने वाले लोग/एनआरआईभारत में रहने वाले इन मजदूर तबके को किन नजरों से देखते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। जब खुद की जान पर आई, तो स्पेशल विमानों से कोरोना का संक्रमण लेकर देश में आते गए। उनकी सज़ा आज पूरा देश और यहां के दिहाड़ी मजदूर, गरीब, फुटपाथ पर रहने वाले लोग और न जाने कितने वंचित भुगत रहे हैं। फिर भी सरकार को इनकी फिक्र नहीं है। आख़िर क्यों इन लोगों को अपने गृह राज्य भेजने का इंतजाम सरकार नहीं करती?

कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और बात-बात में सेकुलरिज्म को गाली देने वाले अंधभक्तों का तर्क है कि पूरे देश में लॉकडाउन है, अगर इन्हें भेजा गया तो संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा। इनके लिए सरकार हर तरह से रहने-खाने का इंतजाम कर रही है। इस तरह के सवाल करने वालों में ट्विटर पर खुद को बिहार का बीजेपी प्रवक्त बतलाने वाले निखिल आनंद भी हैं। तो क्या विदेशों से जिन लोगों को सरकार स्पेशल फ्लाइट से देश लेकर आई है, उनके लिए वहां इतजाम नहीं था। था, लेकिन उन्हें तो यहां आना था। दो वक़्त की रोटी तो विदेश में भी भारतीयों को मिल जाती। फिर विशेष विमान भेजकर क्यों निकाला?लॉकडाउन में ही उत्तराखंड की लग्जरी बसें 1800 गुजरातियों पर्यटकों को घर तक छोड़कर आईं। लेकिन मज़दूर जहां हैं, वहीं रहें! ऐसा क्यों?

क्या ग़रीब प्रवासी मजदूर को भी उसी तरह का सम्मान नहीं मिलना चाहिए, जो विदेशों में रहने वाले भारतीय को स्पेशल विमान से लाकर दिया गया। जबकि विदेशों में रहने और जाने वाले ये भारतीय ही देश में कोरोना वायरस के संक्रमण की असल जड़ और वजह हैं। ऐसे में आप एक वर्ग के लिए सम्मान देने वाले और दूसरे वर्ग के लिए अहंकारी नहीं बन सकते। अगर सरकार के नैतिकता है, तो इन सभी दिहाड़ी मजदूरों और गरीबों को उसी सम्मान से उनके घर या गृह राज्य पहुंचाना चाहिए। किसी तरह की प्राथमिकता नहीं और न ही किसी तरह का भेदभाव होना चाहिए।

मोदी के भारत में कोरोना वायरस ने बढ़ाई हिंदू-मुसलमानों की खाई

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यह भारत सवाअरब भारतीयों का है। इसी सवा अरब भारतीयों पर कोरोना वायरस महामारी का संकट भी है। अब वैश्विक संकट है, तो दोष सरकार पर नहीं ही लगाया जा सकता है। लेकिन इस संकट के समय में जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं, उसके लिए सरकार जरूर जिम्मेदार है।
मीडिया हाउस अल-जजीरा की ख़बर है कि गुजरात के अहमदाबाद के सरकारी हॉस्पिटल में कोरोना मरीजों का इलाज हिंदू मरीज और मुस्लिम मरीज के आधार पर किया जा रहा है। गुजरात के इस सरकारी अस्पताल में कोरोना के हिंदू मरीजों के लिए अलग वॉर्ड है, तो मुसलमानों के लिए अलग। दावा यह कि ऐसा करने के लिए सरकार से आदेश आया है।आमतौर पर किसी भी अस्पताल में किसी भी वॉर्ड को पुरुष और महिला वॉर्ड के तौर पर बांटा जाता है। लेकिन, यहां के सरकारी अस्पताल में मुस्लिम वॉर्ड और हिंदू वॉर्ड के तौर पर बांटा गया है, ताकि कोरोना वायरस के मरीजों का इलाज किया जा सके। इंडियन एक्सप्रेस से अहमदाबाद सिविल हॉस्पिटल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉक्टर गुनवंत एच. राठौड़ कहते हैं, यह सरकार का फैसला है और आप सरकार से ही इस बार में पूछिए।यह उसी गुजरात के हॉस्पिटल की कहानी है, जहां 2014 में प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी 2001 के बाद से लगातार 13 साल तक मुख्यमंत्री थे।
अब कहानी को थोड़ा मोड़ते हैं। बात 12 अप्रैल की है। तमिलनाडु के मदुरै में जलीकट्टू और धार्मिक यात्राओं में शामिल होने वाले एक बैल के अंतिम संस्कार में हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ जुट गई। 15 अप्रैल की बात है। मुंबई के बांद्रा की ही तरह दिल्ली में हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर यमुना किनारे जमा हो गए। राजस्थान के जैसलमेर के पोखरण क्षेत्र में भी मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन जैसे हालात पैदा हो गए। देश में लॉकडाउन को फिर से 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा के बाद प्रवासी मजदूर यहां जुटने लगे। कुछ ही समय में सैकड़ों प्रवासी मजदूर परिवार सहित सड़कों पर उतर आए। इनमें अधिकांश यूपी और बिहार राज्यों के कामगार थे, जिनकी मांग थी कि उन्हें  अपने-अपने राज्य लौटने की इजाजत दी जाए। भले ही ट्रेन या बस से नहीं, तो पैदल ही, लेकिन जाने दिया जाए।
उधर, गुजरात के सूरत में 14 अप्रैल के बाद 15 अप्रैल को भी लगातार दूसरे दिन प्रवासी मजदूरों की भीड़ सड़कों पर नजर आई। दरअसल, सूरत के कारखानों में काम करने वाले उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों के हजारों प्रवासी यहां फंस गए हैं।पर चर्चा और बहस का केंद्र मुरादाबाद और मुसलमान। तो फिर पंजाब में निहंगों का हमला क्यों नहीं? हालांकि, यह सही है कि एक हिंसा का जवाब दूसरी हिंसा नहीं है। फिर भी बहस का केंद्र घूमफिर कर मुसलमान ही क्योंयह सच है कि चंद मुसलमानों की वजह से साख का संकट गहरा रहा है, लेकिन यही बात सरकार पर भी तो लागू होती है।
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महाराष्ट्र में लोगों को सड़कों पर आने के लिए उकसाने वाला विनय दुबे क्यों नहीं मीडिया के बहस के केंद्र में आता है। क्यों नहीं विनय और निहंग समुदाय की हिंसा के बाद इनके पूरे समुदाय पर सवाल उठने लगते है? क्यों फेसबुक से लेकर ट्विटर तक पर एंटी मुसलमान विषय ट्रेंड करने लगते हैं?इसकी वजह भी है। वजह यह है कि जब पहले से ही मन-मस्तिष्क में एजेंडा भरा हो, तो आपको सिर्फ वही दिखाई देता है और उसे शह मिलती है सत्तारूढ़ सरकार से।
कुल मिलाकर कोरोनो वायरस महामारी के दौरान देश के हिंदुओं और अल्पसंख्यक मुसलमानों की एक बड़ी आबादी के बीच खाई बढ़ी ही है। कहां तो उम्मीद थी कि इस संकट में महामारी के खिलाफ पूरा देश एकजुट होकर लड़ेगा। लेकिन, मीडिया और कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और मुसलमान विरोधी या फिरकापरस्त तबके को ज़रा भी मौका मिलता है, वह मुसलमानों के खिलाफ हो-हल्ला शुरू कर देता है। दरअसल, मोदी सरकार में मुसलमानों का या उनके प्रति अविश्वास कुछ महीने पहले नागरिकता संशोधन कानून और फिर एनआरसी की चर्चाओं को लेकर तेज हुआ। अभी तक आधिकारिक तौर पर कोरोना वायरस फैलने को लेकर किसी धर्म को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। लेकिन दिल्ली के निजामुद्दीन से तबलीगी जमात का मामला सामने आने के बाद कई मुसलमानों को लगता है कि इस संक्रमण के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसे लेकर बेहद ही सनसनीखेज तरीके से न्यूज चैनलों और अखबारों द्वारा खबरों की रिपोर्टिंग की गई। एक बहस शुरू की गई कि देश में कोरोना फैलने की वजह मुसलमान ही हैं। फिर हिंदुत्व के कुछ झंडाबरदार नेता भी इस बहस में कूद पड़े। सोशल मीडिया पर कोरोना जिहादट्रेंड कराया जाने लगा। तबलीगी जमात के कार्यक्रम से जुड़े करीब 1000 लोगों में कोरोना वायरस की पुष्टि हुई। कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि चंद लोगों में यह गलतफहमी थी या फिर उनकी एक सोच हो गई कि उनके मजहब में यह नहीं फैलेगा। यह भी कि कहीं उनके खिलाफ साजिश तो नहीं। लेकिन, उनका यह भी कहना है कि इसे लेकर मस्जिदों से इस तरह की गलतफहमी दूर करने की कोशिश भी हो रही थी।

आखिर ऐसा क्यों हुआ कि मुसलमान इस तरह की सोच रखने लगे। गुजरात के एक मुस्लिम नेता का कहना है कि सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति मुसलमानों में गहरा अविश्वास है। वह बताते हैं, इस तरह के लोगों को यह समझाने में काफी कोशिश करनी पड़ी कि मेडिकल सुविधाओं और इलाज के लिए डॉक्युमेंट्स की जरूरत पड़ती है।

ऐसे में जब कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में स्वास्थ्यकर्मी कोरोना के मामलों का पता लगाने गए, तो कुछ मुसलमानों को लगा कि यह अवैध प्रवासियों का डेटा इकट्ठा करने की सरकारी कवायद है।

यह सिर्फ भारत में ही है कि अगर किसी समुदाय की वजह से संक्रमण बढ़ रहे हैं, तो उसके खिलाफ एक पल में एक फौज खड़ी नजर आने लगती है। सिर्फ भारत में ही है कि धर्म के आधार पर कोरोना से जंग लड़ी जा रही है। दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल के शिनचोनजी चर्च के 61 साल महिला में कोरोना के लक्षण थे। वह इस बात से अनजान रही और चर्च की सार्वजनिक बैठकों में शामिल होती रही और कोरोना संक्रमण फैलता चला गया। बात 18 फरवरी की है। उस दिन महिला को कोरोना पॉज़िटिव पाया गया। तब दक्षिण कोरिया में कोरोना वायरस के सिर्फ 31 मामले थे। 28 फरवरी को यह संख्या 2000 से ज़्यादा हो गई थी।

इसी तरह फ्रांस के म्यूलहाउस शहर के एक चर्च में पांच दिनों का सालाना कार्यक्रम हुआ, जिसमें यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के हजारों लोग शामिल हुए। म्यूलहाउस शहर फ्रांस की सीमा को जर्मनी और स्विट्जरलैंड से जोड़ती है। इस सालाना धार्मिक उत्सव में कोई कोरोना पॉजिटिव था, जिससे पूरे फ्रांस और अन्य देशों में कोरोना फैला। करीब 2500 पॉजिटिव केस का लिंक इसी से जुड़ा पाया गया।

इस तरह के कई मामले हैं, जहां धार्मिक सभा या कार्यक्रमों की वजह से कोरोना के खिलाफ लड़ाई कमजोर हुई। लेकिन किसी भी देश ने धर्म विशेष को निशाना नहीं बनाया। लेकिन हमारे यहां क्या हो रहा है। हमारे एक साथी हैं मनीष। वह लिखते हैं, तबलीगी जमात के जिस मौलाना साद के बारे में पुलिस और मीडिया ने खबर उड़ाई कि वह फरार है। पुलिस उसकी तलाश कर रही है। बाद में पता चला कि यह झूठ था और साद अपने घर में आइसोलेशन में है। कोविड-19 टेस्ट में निगेटिव पाए जाने के बाद भी उसकी गिरफ्तारी/हिरासत की कोई खबर नहीं आई है। उधर, दिल्ली के ही डिफेंस कॉलोनी में गार्ड मुस्तकीम के बारे में भी यही खबर उड़ाई गई कि वह फरार है और पुलिस को उसकी तलाश है। बाद में पता चला कि यह भी झूठ था और उसे उसके घर में ही क्वारंटीन/आइसोलेशन में रखा गया था और टेस्ट में अब उसकी रिपोर्ट निगेटिव आई है। हां, रिपोर्ट आने से पहले ही उसके खिलाफ केस जरूर दर्ज हो गया।

सबसे बड़ी बात कि इन तमाम तरह के हथकंडों और सांप्रदायिक ख़बरों को लेकर सरकारी सुस्ती और निष्क्रियता ही दिखती है।

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