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नीतीश कुमार की नाकामी और ‘चीन का वुहान’ बना बिहार का सीवान

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भारत में अभी तक कोरोना वायरस संक्रमण के 7598मामले सामने आए हैं। इससे 246लोगों की मौत हो चुकी है। www.worldometers.info › coronavirus के मुताबिक, भारत ने अभी तक 189111 टेस्ट किए हैं, जबकि आबादी 1अरब 30करोड़ से ज्यादा है। चलिए मान लेतें है कि दो लाख की होगी टेस्टिंग। वहीं, 33-34करोड़ की आबादी वाला अमेरिका अभी तक 2489786टेस्ट कर चुका है। अब अमेरिका से अपनी क्या तुलना करना। ज़रा पति करिए कि ईरान की आबादी कितनी है, लेकिन उसने 242,568टेस्ट, तुर्की जैसा छोटा देश 8.2करोड़ आबादी वाला 307,210टेस्ट कर चुका है। अब हर देश का आंकड़ा देना भी उचित नहीं है वरना आप कहेंगे कि आंकड़ेबाज़ी में ही उलझा दिए। लेकिन तथ्य तो तथ्य ही। भले आप मानें या न मानें।
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लेकिन, बात भारत की नहीं। भारत में एक राज्य है बिहार। यहां एक दिन में सर्वाधिक 21नए कोरोना पॉजिटिव मरीज मिले हैं। सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि बिहार के सीवान ज़िले की हालत चीन के वुहान जैसी हो गई। वुहान वही शहर है, जो कोरोना का केंद्र माना जाता है। सीवान में कोरोना पॉजिटिव मरीजों की संख्या 20हो गई है। बिहार में अब तक पहली बार ऐसा हुआ है कि एक ही दिन में वैश्विक महामारी कोरोना के सर्वाधिक मामले सामने आए हैं।9अप्रैल की सुबह से देर रात तक कुल 19नए संक्रमितों की पहचान की गई। सैंपल जांच में सभी में कोरोना पाजिटिव पाया गया है। इनमें सीवान के 17हैं। 30मार्च को कोरोना के छह मरीज मिले थे। 7अप्रैल को भी बिहार में एक ही दिन में कोरोना छह मरीज सामने आए थे। बिहार में 9अप्रैल को 19नए मरीजों के सामने आने के बाद कोरोना संक्रमितों की संख्या 39से बढ़कर 58हो गई। यहां एक व्यक्ति ने परिवार के 16लोगों को संक्रमित किया। ओमान से सीवान में आए एक संक्रमित व्यक्ति ने आइसोलेशन में नहीं जाकर अपनी पहचान छिपाए रखी। अब इस परिवार की 12महिलाएं और चार पुरुष अब तक कोरोना पॉजिटिव पाए जा चुके हैं। सीवान में एक अन्य व्यक्ति की भी पहचान कोरोना पॉजिटिव के रूप में की गई। यह युवक 16मार्च को दुबई से आया था। इस तरह सीवान में सर्वाधिक 27कोरोना के मरीज हो गए हैं।
इस पर तुर्रा यह कि उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी जी कह रहे हैं कि लॉकडाउन के 15दिन बाद भी कोरोना के नए मरीजों की संख्या में वृद्धि से जाहिर है कि सामाजिक दूरी यानी सोशल डिस्टेंसिंग बरतने के निर्देश का पालन करने में कई स्तरों पर चूक हो रही है। तो इस चूक को दूर करने की जिम्मेदारी किसकी है। जानता हूं यह भी जनता के मत्थे ही थोपा जाएगा।

अब आइए नज़र डालते हैं कि बिहार कोरोना वायरस के कितने टेस्ट किए और अभी तक कितने मामले आए। कहा जा रहा है कि बिहार में कुल 60के करीब मामले आए हैं। जब किसी अपराध की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं की जाएगी, तो आधिकारिक आंकड़ों में उसे अपराध हुआ माना ही नहीं जाएगा। यही हाल कोरोना के मामले में भी है। जब कोरोना वायरस का टेस्ट होगा ही नहीं या कम टेस्ट होगा तो मामला ज्यादा कैसे आएगा। उधर डॉक्टरों और स्थानीय लोगों का भी कहना है कि कोरोना के मरीजों की संख्या भले ही कम बताई जा रही हो, लेकिन यह संख्या इससे कहीं अधिक है। पटना एम्स के कुछ डॉक्टरों का तो यहां तक कहना है कि ऐसे पॉजिटिव मामले भी हैं, जिनके बारे में बताने से मना किया जा रहा है।

दूसरी तरफ इसको भी छोड़ दें तो नीतीश कुमार ने अपने 15साल के शासन में बिहार के स्वास्थ्य सेवाओं के लिए कुछ किया ही नहीं। इसका भी डर उनको होगा। पिछले साल मुजफ्फरपुर में चमकी बुखार का मामला सामने आए है कि कैसे बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खुल गई थी। बिहार से ताल्लुक रखने वाले केंद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे तो प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान सोते पाए गए थे। यह इस बात का भी प्रतीक है कि कोरोना महामारी पहले से ही बिहार की नाजुक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली पर बोझ बनने लगी है। ऐसे में खराब योजना, सुरक्षात्मक उपकरणों की कमी और सार्वजनिक जागरूकता की कमी भी चुनौती को बढ़ा रही है।

बिहार के डॉक्टर कैसे कोरोना वायरस से लड़ रहे हैं, इसकी मिसाल यह है कि डॉक्टरों का कहना है कि प्रोटोकॉल के अनुसार हमें एन-95मास्क, व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) किट और सैनिटाइज़र दिया जाना चाहिए। हमारी स्थिति इतनी विकट है कि हम मरीजों का इलाज करते समय खुद को बचाने के लिए एचआईवी किट का उपयोग करते हैं। हम बिना उचित सुरक्षा उपकरण के मरीजों का इलाज करते हैं, तो आठ घंटे की ड्यूटी के बाद फिर इस्तेमाल किया हुआ दस्तानी ही पहनना पड़ता है। इससे डर है कि हमें भी कोरोन वायरस न हो जाए। पीएमसीएच बिहार के सबसे बड़े अस्पतालों में से एक है। यहां COVID-19के रोगियों के लिए बेड उपलब्ध नहीं हैं।

बिहार में कोरोनो वायरस के लिए टेस्टिंग कम हो रहे हैं। इससे डॉक्टरों पर दबाव बन रहा है। उन्हें लग रहा है कि वे ऐसे मरीजों का इलाज कर रहे हैं, जिनमें इस तरह के लक्षण हो सकते हैं। ऐसे में उन्हें यह बीमारी हो सकती है। बिहार में सिर्फ एक ही रिसर्च सेंटर है, जो कोरोना वायरस सैंपल का टेस्ट करता है। फिर उसकी पुष्टि के लिए पुणे भेजा जाता है। ऐसे में कोरोन वायरस का कम्युनिटी संक्रमण होता है, तो बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त सकती है।


कोविड-19, चीन और WHO चीफ की चालाकियां

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चीन ने 7अप्रैल को पहली बार कोरोना वायरस संक्रमण की टाइमलाइन जारी की। 38 पेज की इस टाइमलाइन में कहा गया है कि इस वायरस का पता पहली बार वुहान में पिछले साल दिसंबर में लगा था। उस समय एक व्यक्ति में अज्ञात वजहों से निमोनिया होने का पता चला था।दिसंबर 2019 में उस एक केस के बाद 12 अप्रैल 2020 तक 17 लाख 68 हजार 19 केस हो चुके हैं। 1 लाख 8 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। अब इसमे विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी WHOकी क्या भूमिका है? इसने कोरोना वायरस महामारी यानी कोविड-19 को नियंत्रित करने के लिए क्या किया?आख़िर इसने इतने कुछ किया, तो फिर इसके चीफ टेड्रोसगेब्रियेसस पर सवाल क्यों उठ रहे हैं?आज इन्हीं सवालों का जवाब जानने की कोशिश करते हैं।
WHO चीफ गेब्रेयेसिएस व चीनी राष्ट्रपति चिनफिंग। फोटोः इंटरनेट
पहले शुरू करते हैं कोरोना वायरस के पहले मामले से। तो इसका आगाज होता है 1 दिसंबर, 2019 से। चीन के वुहान शहर में एक महिला में निमोनिया के लक्षण सामने आते हैं। माना जा रहा है कि वह कोरोना वायरस का सबसे पहली मरीज़ थी। दिसंबर में इस तरह के कई मामले आए, जिनका कारण पता नहीं चल पा रहा था। इन्हें सूखी खांसी, बुखार और सांस लेने में तकलीफ होती थी। इसके बाद चीन ने 31 दिसंबर, 2019 को WHO को इन अजीबोगरीब मामलों की जानकारी दी। फिर 7 जनवरी 2020 कोयह पता चला कि ये तो वायरस का नया स्ट्रेन है। इसका नाम नोवेल कोरोना वायरस रखा गया। 11 जनवरी को चीन में इससे पहली मौत की घोषणा की गई। इसके बाद 13 जनवरी को चीन से बाहर थाईलैंड में पहला केस आया। 30 जनवरी तक यह वायरस चीन के अलावा 18 देशों तक पहुंच चुका था। 30 जनवरी को ही WHO ने कोरोना वायरस को ग्लोबल हेल्थ इमरजेंसी घोषित कर दिया। 11 मार्च को कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित कर दिया।
लेकिन इन घटनाक्रमों के बीच काफी कुछ ऐसा भी घटा, जिससे आरोप लगने लगे हैं कि WHOने कोरोना संकट के लिए चीन को बचाने का काम किया है?WHOके मुखिया पर आरोप लग रहे हैं कि कोविड-19 को लेकर उसने कमज़ोर, लेटलतीफ और ​बगैर सोचने-समझने की रणनीति अपनाई। बात-बात में चीन का बचाव करते दिखे, जबकि यह साफ है कि यह वायरस चीन से ही निकला और पूरी दुनिया में फैल गया।

अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने हाल में टेड्रोस के चीनी समर्थक बयानों को लेकर कहा कि डब्‍ल्‍यूएचओ के महानिदेशक ने पक्षपात किया है। कोरोना वायरस संक्रमण के दुनिया भर में फैल जाने के पीछे चीन को ज़िम्मेदार ठहराए जाने के मामले में डब्ल्यूएचओ की तरफ से टेड्रोस ने चीन की तरफ़दारी की और चीन को दुनिया के संकट के लिए ज़िम्मेदार मानने से इनकार किया। वेबसाइट द हिल की रिपोर्ट कहती है कि चीन ने इथोपिया में भारी निवेश किया है, इसलिए टेड्रोस उसका बचाव करने पर मजबूर हैं। टेड्रोस इथोपिया से ही आते हैं। यह भी कहा जा रहा है कि वह इथोपिया के कम्युनिस्ट नेता रहे हैं।

ख़ैर हम लौटते हैं असल मुद्दे पर कि किस तरह से विश्व स्वास्थ्य संगठन औऱ टेड्रोस ने इस पूरे मामले को बिगाड़ा औऱ कोविड-19 को महामारी बनने दी। पूरी दुनिया को मौत की संख्या में झोंक दिया। दरअसल, इस बात के सबूत मिले हैं कि कोरोना वायरस अक्टूबर 2019 के बीच में ही इंसानों में फैल चुका था, लेकिन डब्लूएचओ ने कोई गंभीरता नहीं दिखाई। वहीं, जनवरी 2020 में महामारी के शुरुआती दौर में चीन द्वारा इसके लिए उठाए जा रहे कदमों और इसके महामारी बनने को लेकर पारदर्शिता अपनाने के लिए उसकी तारीफ की। हालांकि, 13 जनवरी को चीन के बाहर थाईलैंड इससे मौत का मामला आ चुका था। ताइवान ने WHOको इस बारे में दिसंबर में ही सावधान कर दिया था। इस बीच कोविड-19 महामारी दुनिया भर में तेजी से फैल रही थी। टेड्रोस और उनकी टीम फिर भी दुनिया के देशों को यात्राओं पर रोक न लगाने की बात कर रहे थे। जब अमेरिका ने जनवरी में ही चीन से आने वालों पर यात्रा प्रतिबंध लगाया, तो इसने अमेरिका की ही आलोचना की। आज पूरी दुनिया इस महामारी से बचने के लिए लॉकडाउन और ट्रैवल बैन लागू कर चुकी है, लेकिन WHOने इसके उलट सलाह दी।

अब जबकि अमेरिका और चीन के बीच इस महामारी को लेकर तू-तू मैं-मैं जारी है, तो इसकी बड़ी वजह खुद टेड्रोस हैं। अमेरिकी सीनेटर टॉड यंग ने WHO प्रमुख डॉ. टेड्रोस को अमेरिकी सीनेट की फॉरेन रिलेशंस सबकमेटी के सामने पेश होने को कहा। उन्होंने पूछा कि आप बताइए कि आपके संगठन ने कैसे इस महामारी को संभाला? सीनेटर यंग ने कहा कि चीन कोरोना वायरस को संभालने में बुरी तरह से कमजोर साबित हुआ और उसने दुनिया को सही आंकड़े नहीं बताए। टॉड यंग ने कहा कि डब्ल्यूएचओ प्रमुख चीन के साथ ऐसे खड़े थे, जैसे कोई असिस्टेंट खड़ा रहता है।

उधर, ताइवान जिसने पहले इस वायरस को लेकर WHOको चेताया था, उसने टेड्रोस पर कई आरोप लगाए। दरअसल, टेड्रोस ने ताइवान पर निशाना साधते हुए कहा था कि तीन महीने पहले ताइवान ने मुझ पर निजी हमला किया। लेकिन ताइवान ने कहा कि टेड्रोस को अपने गैर जिम्मेदाराना बयान के लिए माफी मांगनी चाहिए। दरअसल, मामला तीन महीने पहले का है और डब्ल्यूएचओ प्रमुख टेड्रोस गेब्रेयेसिएस ने आरोप लगाया था कि कोरोना के खिलाफ जारी लड़ाई के दौरान तीन महीने पर उन्हें जान से मारने की धमकी मिली। मुझे नीग्रो और अश्वेत कहा गया। अब सवाल यह भी उठता है कि जब मामला तीन महीने पहले का है और उन पर अमेरिका सहित कई देश चीन का साथ देने और पूरी दिया को कोरोना वायरस को लेकर अंधेरे में रखने के आरोपों को लेकर हमला कर रहे हैं, तो इस तरह से खुद को डिफेंड करना किस हद तक जायज है। मुमकिन है कि उनके साथ हुआ हो, तो फिर सवाल यह भी है कि आख़िर यह बात अभी कैसे आई। वह भी तब जब उन पर हर तरह से हमले हो रहे हैं।

कोरोना की टेस्टिंग में फिसड्डी भारत, दावे बड़े दर्शन छोटे

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पिछले दिनोंएक ख़बर आई कि भारत कोरोना वायरस के मामलों की बहुत कम टेस्टिंग कर रहा है। यह ठीक है कि लॉकडाउन जैसे कुछ फैसले भारत ने दुनिया के कई देशों की तुलना में पहले लिए, जिसका थोड़ा-बहुत फायदा वह अपने हक़ में बता सकता है। हालांकि, इस लॉकडाउन की वजह से कितनी बड़ी आबादी पलायन और भूख से लेकर तमाम तरह की दिक्कतों से जूझने को मजबूर हुई वह अलग कहानी है। तीन-चार दिन पहले एक खबर आई कि भारत प्रति 10 लाख बहुत ही कम लोगों की टेस्टिंग कर रहा है। यह आंकड़ा हर 10 लाख पर महज 102 था। यानी देश की 1 अरब 33 करोड़ आबादी को मानें, तो इसमें 10 लाख लोगों में से सिर्फ 102 लोगों की ही कोरोना की टेस्टिंग की जा रही है। पिछले दिनों कहीं पढ़ा कि भारत के जिन राज्यों ने सबसे ज्यादा टेस्टिंग की वहां कोरोना से मौत की दर कम है। उदाहरण के तौर पर, हर 100केसों के हिसाब से देखें, तो मध्य प्रदेश में कोरोना से मृत्य दर 8फीसदी है। इसी तरह, पंजाब और झारखंड में 7.7फीसदी, हिमाचल प्रदेश और महाराष्ट्र में 7.1फीसदी, गुजरात में 6.9फीसदी और पश्चिम बंगाल में 4.7फीसदी है।
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वहीं, हर 10लाख की आबादी पर दिल्ली में सबसे ज्यादा 594टेस्ट हो रहे हैं। इसके बाद  केरल में हर 10 लाख की आबादी पर 366, राजस्थान में 279, महाराष्ट्र में 274और गोवा में 236लोगों की कोरोना टेस्टिंग हो रही है। यह एक औसत आंकड़ा है। यह अलग बात है कि हम चीन की तरह मौतों के आंकड़ों को छिपाएं, तो फिर कहा ही क्या जाए। बिहार में तो टेस्टिंग न के बराबर हो रही है। फिर वहां तो कुछ डॉक्टरों का कहना है कि पॉजिटिव मामलों को भी आधिकारिक आंकड़ों से गायब कर दिया जा रहा है। पिछले कुछ दिनों में भारत में जिस तेजी से कोरोना वायरस संक्रमण और मौतों के मामले बढ़े हैं और वह बतलाता है कि हम अभी भी बहुत कम टेस्ट कर रहे हैं। अगर यही हालात रहे, तो जिस तरह से इटली और स्पेन की हालत हुई वह हमारी भी हो सकती है।
हालांकि, स्पेन औऱ इटली में हालात धीरे-धीरे काबू में आ रहे हैं। इसकी वजह लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे उपाय तो हैं ही, लेकिन उसमें कोरोना टेस्टिंग का भी बहुत बड़ा योगदान है। इसी में भारत बहुत पिछड़ रहा है। अब आंकड़ों पर नजर डालें, तो ये देश और इनसे और भी छोटे-छोटे देश (आबादी के हिसाब से) हमसे टेस्टिंग में कहीं आगे हैं। अब अमेरिका को ही लें। अमेरिका की आबादी 32.82 करोड़ है और उसने अभी तक 27 लाख 81 हजार 460 लोगों की टेस्टिंग कर ली है। स्पेन हमसे आबादी में कहीं पीछे है। लगभग 4.69 करोड़ की आबादी वह देश कोरोना से बुरी तरह प्रभावित देशों में एक है। इसने अभी तक 3 लाख 55 हजार टेस्टिंग की है। इटली की आबादी 6.04 करोड़ है। कल तक यहां कोरोना महामारी से सबसे ज्यादा मौतें हुई थीं। आज अमेरिका में मौतों की संख्या इससे ज्यादा हो चुकी है। इटली ने 10 लाख 10 हजार 193 टेस्ट किए हैं। यूरोप के जिन चार देशों में कोरोना वायरस से सबसे ज्यादा तबाही मचाई है, उनमें फ्रांस भी है। इसकी आबादी 6.7 करोड़ है, जबकि यह 3 लाख 33 हजार से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग कर चुका है। जर्मनी में 1 लाख 26 हजार 921 केस आ चुके हैं। इसकी आबादी 8.3 करोड़ है और यहां 13लाख 18 हजार के आसपास लोगों की टेस्टिंग की जा चुकी है। 
इनकी छोड़िए अपने एशिया में ही आते हैं। चीन के बाद ईरान एशिया का सबसे प्रभावित देश है। यहां 71 हजार 600 से ज्यादा केस संक्रमण के आए हैं और इसने 2लाख 63हजार से ज्यादा लोगों की अभी तक टेस्टिंग की है। तुर्की को ही ले लीजिए 8.2करोड़ की आबादी वाले देश में कोरोना के लगभग 57 हजार मरीज हैं औऱ इसने 3लाख 76हजार सैंपल टेस्ट कर लिए हैं। उससे भी अचरज तो यह लगेगा कि 5.16 करोड़ की आबादी वाले दक्षिण कोरिया में 10 हजार 500 से कुछ ज्यादा ही मरीज हैं और यहां लगभग 215 लोगों की अभी तक मौत हुई है, लेकिन इसने 5लाख 14हजार से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग की है।

वहीं, भारत 1 अरब 33 करोड़ की आबादी वाला देश है। अमेरिका से इसकी आबादी 1 अरब अधिक है। दक्षिण कोरिया के बराबर केस सामने आ चुके हैं, लेकिन अभी तक टेस्टिंग सिर्फ 1 लाख 90 हजार के आसपास हुई है। अब इस पर भी हम ढिंढोरा पीटें कि हमारे यहां तो मामले भी कम आ रहे हैं। तो कम-से-कम दक्षिण कोरिया से ही सबक ले लें। या फिर रूस से ही ले लें। 14.65 करोड़ की आबादी वाले रूस में 15 हजार 700 से ज्यादा मामले आ चुके हैं और इसने कम मामलों के बावजूद 12 लाख से ज्यादा लोगों की टेस्टिंग कर ली है। साफ मतलब है कि ज्यादा टेस्टिंग यानी मौतें कम। लेकिन, हम इसी में फिसड्डी साबित हो रहे हैं और हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन नामक दवा को लेकर खामखां अपनी सीना चौड़ा कर रहे हैं। जबकि हमारा पूरा जोड़ अभी लॉकडाउन और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे उपायों के साथ टेस्टिंग पर होना चाहिए।

नोटः आंकड़े 12 अप्रैल तक के हैं।

कोविड-19 और चीन की शातिर कूटनीति पर भारी ताइवान की मास्क डिप्लोमेसी

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चीन के वुहानसे जन्मा कोरोना वायरस पूरी दुनिया में तबाही मचा रहा है। अभी तक 19 लाख से ज्यादा लोग पूरी दुनिया में इस महामारी की चपेट में हैं, जबकि 1 लाख 18 हजार से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। लेकिन, चीन के बेहद करीब का देश ताइवान काफी पहले ही इस पर काबू पाने में कामयाब रहा है। ताइवान आबादी और संसाधनों के मामले में चीन ही नहीं, दुनिया के अधिकांश देशों के मुकाबले बेहद कमजोर है। उसके बावजूद कोरोना जैसी महामारी को इस देश ने काफी हद तक आगे बढ़ने से रोक दिया है। यहां आज की तारीख में 308 लोग संक्रमित हुए हैं, जिसमें से 109 लोग ठीक भी हो चुके हैं। सिर्फ 6 लोगों की ही मौत हुई है।
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आख़िर ऐसी क्या वजहें रहीं और उसने क्या उपाय किए, जिससे ताइवान को यह महामारी अपनी जकड़ में नहीं ले पाया। जबकि ताइवान विश्व स्वास्थ्य संगठन का सदस्य देश भी नहीं है। वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन जिस पर इस महामरी को लेकर चीन के पक्ष में काम करने का आरोप लग रहा है। तो इसके पीछे वजह यह है कि जब चीन में कोरोना की शुरुआत हुई, तभी ताइवान ने मास्क, टेस्ट, सैनिटाइजर और दूसरी जरूरी मेडिकल वस्तुओं को बनाने पर जोर देने लगा था। उसने डिजिटल थर्मामीटर से लेकर मास्क और वेंटिलेटर वगैरह के निर्यात पर भी बैन लगाया।
अब वह मास्क डिप्लोमेसी के जरिए वैश्विक परिदृश्य में अपनी मजबूत धमक या कूटनीतिक पहुंच साबित कर रहा है। हम जानते हैं कि कोरोना वायरस महामारी ने बुनियादी चिकित्सा उपकरणों और सामानों की सप्लाई को पूरी तरह से बदल दिया है। कई देशों में इस मुश्किल घड़ी में फेस मास्क, दस्ताने और गाउन जैसे महत्वपूर्ण सामानों की भारी कमी हो गई है। कई देश पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (PPE) के निर्यात प्रतिबंध लगा रहे हैं। वहीं कई देश इनके आयात के के लिए बेचैन हैं, क्योंकि वहां इसकी कमी की वजह से खतरा बढ़ता जा रहा है। मेडिकल जरूरतों की सप्लाई इससे पहले अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कभी भी बाधित नहीं हुई, क्योंकि देश पहले अपना हित देख रहे हैं। इसकी वजह है कि इनका उत्पादन करने वाले देश खुद कोरोना वायरस महामारी की भारी चपेट में हैं। ताइवान इन उत्कृष्ट स्तर के मेडिकल मास्क का दुनिया के सबसे बड़े आपूर्तिकर्ताओं में एक है। ताइवान उन चुनिंदा देशों में भी है, जिसने कोविड-19 से सफलतापूर्वक निपटा है। अब इसके पास इस अवसर का लाभ उठाने का एक दुर्लभ अवसर है कि वह अपने खिलाफ लंबे समय से चल रहे चीन विरोधी राजनीति का लाभ उठा सके। उसे अपने पत्ते सावधानी से खेलने होंगे। खासतौर पर अमेरिका के साथ।


ताइवान की आबादी सिर्फ 2.3 करोड़ है और वह चीन के बाद फेस मास्क का दूसरा सबसे बड़ा वैश्विक उत्पादक है। यानी दुनिया में चीन के बाद ताइवान ही सबसे अधिक फेस मास्क बनाता है। यह हर रोज तकरीबन 1.5 करोड़ मास्क का उत्पादन करता है। चूंकि दुनिया में अब इसी मांग बड़ी तेजी से बढ़ी है, तो यह एक दिन में 1.7 करोड़ मास्क का उत्पादन कर रहा है।
अमेरिका में अभी तक कोरोना वायरस से सबसे अधिक मौतें 23 हजार से ज्यादा हुई हैं और यहीं सबसे अधिक संक्रमित 5 लाख
87 हजार से अधिक लोग हैं। वह ताइवान के मास्क निर्यात का लाभ उठाने के लिए तैयार है, क्योंकि उसे अभी बड़ी बेसब्री से इसकी जरूरत है। मार्च में ताइवान ने अमेरिका को हर सप्ताह लगभग 100,000 सर्जिकल मास्क दान करने का वादा किया था। बदले में अमेरिका ने  ताइवान को 300,000 हाजमत सूट देने पर सहमत हुआ। इसके बाद ताइवान ने 1 अप्रैल को घोषणा की कि वह दुनिया के सबसे अधिक जरूरतमंद देशों को 1 करोड़ मास्क दान करेगा। इसमें अमेरिका के लिए अलग से उसने 20 लाख मास्क देने का वादा किया। इसी सप्ताह उसने अमेरिका को 400,000 मास्क दिए। पिछले कुछ दिनों में ताइवान ने अपने कूटनीतिक रूप से सहयोगी देशों के साथ-साथ इटली, स्पेन, फ्रांस, नीदरलैंड और यूनाइटेड किंगडम जैसे कोरोना से सबसे प्रभावित यूरोपीय देशों को मास्क और पीपीई दिए।
उधर, चीन की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इस बात को लेकर खूब आलोचना हुई कि उसे महामारी फैलने की शुरुआत में ही दुनिया को आगाह नहीं किया और मामले को दबाता रहा, जिससे आज यह महामारी घातक हो चुकी है। चीन इसकी काट के तौर पर एक अलग बहस छेड़ने की कोशिश करता रहा। इसने अमेरिका की तुलना में खुद को महामारी से सबसे प्रभावित यूरोपीय देशों का भरोसेमंद सहयोगी साबित करने की कोशिश की। इन प्रयासों के तहत उसने
पूरे यूरोप में चिकित्सा उपकरण,पीपीई और दवाइयां भेज रहा है। चीनी कंपनियां भी अपनी सरकार का समर्थन कर रही हैं। 
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ई-कॉमर्स के दिग्गज और अलीबाबा के सह-संस्थापक चीनी अरबपति जैक मा ने यूरोपीय देशों में 18 लाख फेस मास्क और 100,000 टेस्ट किट भेजने का वादा किया। चीनी कंपनी हुआवे ने भी यूरोप देशों के लिए इसी तरह के राहत पैकेजों की घोषणा की औऱ लाखों मास्क दान में दिए। चीन की कुछ छोटी-बड़ी कंपनियों ने अमेरिका में मेडिकल उफकरण भेजे, लेकिन अफ्रीकी और यूरोपीय देशों को भेजे जाने वाले मदद पैकेजों की तुलना में वह मामूली लगते हैं। चीन ने पूरे यूरोप में एक तरह से मानवीय मदद का प्रोपेगेंडा का खेल खेला है, लेकिन उसकी यह चाल अमेरिका के साथ सफल नहीं रही। अमेरिका ने चीनी कंपनियों जैसे हुवावे के कारोबार पर लगाम लगाने की कोशिश की। इस पर कहा गया कि अगर अमेरिका इस तरह के कदम उठाता है, तो चीन मौजूदा समय में बहुत जरूरी फेस मास्ककी आपूर्ति अमेरिका को बंद कर सकता है। चीन एक तरफ मास्क डिप्लेमेसी का कूटनीतिक खेल खेल रहा है, तो इसी बीच कुछ देशों ने चीन में बने मेडिकल इक्विपमेंट और मास्क की गुणवत्ता पर सवाल उठाने शुरू कर दिया है। नीदरलैंड ने चीन से आयात किए गए हजारों मास्क को लौटा दिया है। आगे के आयात पर भी रोक लगा दी है, क्योंकि उनकी गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करते हैं। स्पेन और तुर्की सहित अन्य देशों ने भी चीनी कंपनियों के कोरोना वायरस की जांच के लिए रैपिड टेस्टिंग किट की शिकायत की है।
ऐसे में अमेरिका की मदद से ताइवान के पास खुद अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजबूती से पेश करने का मौका आया है। वह भी ऐसे समय में जब विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) से वह बाहर है, उसे चीन के दबाव में इस संगठन का सदस्या नहीं बनाया गया। इसके बावजूद ताइवान ने कोरोना वायरस पर काबू पाया है। दरअसल, डब्ल्यूएचओ की सदस्यता केवल उन देशों मिलती है, जो संयुक्त राष्ट्र के सदस्य हैं। ताइवान को संयुक्त राष्ट्र की मान्यता नहीं मिली है। कोरोना वायरस महामारी के बीच कनाडा, यूरोपीय संघ, जापान और अमेरिका ने WHO से ताइवान को सदस्यता देने की अपील की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। कोरोना वायरस पर आपातकालीन बैठकों और महत्वपूर्ण ब्रीफिंग से ताइवान को दूर रखा गया।


डब्ल्यूएचओ इस महामारी से निपटने की कोशिशों को लेकर लगातार चीन की तारीफ करता रहा। इससे कुछ देशों ने उस पर चीन का पक्षधर होने का आरोप भी लगाया। अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने तो यहां तक कह दिया कि डब्ल्यूएचओ को इस महामारी में पूरी तरह से चीन-केंद्रितहै। ट्रंप ने इसकी फंडिंग रोकने की भी धमकी दी। इस पर डब्ल्यूएचओ के महासचिव ने ट्रंप को इस महामारी का राजनीतिकरणन करने की अपील की। टेड्रोस ने ताइवान के नेताओं पर नस्लवादी टिप्पणी और हत्या की धमकी देने का भी आरोप लगाया। ताइवान ने उनके दावे को सिरे से खारिज कर दिया।


ट्रंप के शासनकाल में अमेरिका और ताइवान के बीच संबंध पहले की ही तरह मजबूत रहे हैं और कहा जाता है कि ट्रंप अमेरिकी इतिहास में शुरू से सबसे अधिक ताइवान समर्थकों में एक माने जाते हैं। अब कोरोनो वायरस संकट ने दोनों को और भी करीब ला दिया है। अमेरिकी-चीन के तनावों के बीच ट्रप ने 26 मार्च को ताइवान अलाइज इंटरनैशनल प्रोटेक्शन ऐंड अन्हांसमेंट इनिशिएटिव (TAIPEI) अधिनियम पर हस्ताक्षर किए। यह अधिनियम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ताइवान को अमेरिका का खुला समर्थन का प्रतीक है।


मौजूदा समय में चीन और अमेरिका के बीच तकरार बढ़ रही है, तो दूसरी तरफ ताइवान खुद को बेहतर स्थिति में ला रहा है। अब अमेरिका और ताइवान के बीच कोई मोहरा नहीं है। ताइवान खुद अपने बूते खड़ा हो रहा है।

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22 मार्च को जनता कर्फ्यू। फिर 24 मार्च की आधी रात से पूरे देश में 21 दिनों का लॉकडाउन। उसके बाद पूरे देश से प्रवासी मजदूरों का अपने-अपने गृह राज्यों और घरों के लिए पलायन शुरू हो गया। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब के हजारों दिहाड़ी मजदूर कई किलोमीटर पैदल चलने के बाद बस पकड़ने के लिए आनंद विहार, गाजीपुर और गाजियाबाद पहुंचे। इनमें से किसी को उत्तर प्रदेश जाना था, तो किसी को बिहार। कई राजस्थान जाना चाहते थे, तो कई उत्तराखंड। कोई राजस्थान के जैसलमेर से 22 दिनों में 1400 किलोमीटर की पैदल यात्रा कर बिहार के गोपालगंज पहुंचता है, तो कोई 800 किलोमीटर साइकल चलाकर बनारस पहुंचता है।

मुंबई के बांद्रा में जुटी भीड़। फोटोः इंटरनेट
इस तरह गुजरात से राजस्थान, महाराष्ट्र से गुजरात और उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना सीमा पर भी ऐसे ही हजारों दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ देखी जा सकती थी, तो कर्नाटक में भी यही हाल था। पूरे देश का कमोबेश यही नजरा। हर तरफ से लोग इस लॉकडाउन के बाद अपने घर जाना चाहते थे। इसकी वजह यह थी कि लॉकडाउन से सभी का कामधंधा, रोजी-रोटी छीन लिया था। उनके पास न रहने को स्थायी ठिकाना और न खाने का पुख्ता इंतजाम। सरकार और कुछ लोगों ने व्यक्तिगत स्तर पर प्रयास किए, लेकिन क्या वह काफी था या नहीं, इस पर सवाल बाद में। हालांकि, आप खुद इस सवाल का जवाब तलाशने में पूर्ण रूप से सक्षम हैं।
अब 14 अप्रैल को एक नया मसला आया। ख़बर यह है कि दिल्ली के आनंद विहार की तरह की मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन पर हजारों प्रवासी मजदूरों इकट्ठा हो गए। 14 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी ने लॉकडाउन को तीन मई तक बढ़ाने का ऐलान किया। हाराष्ट्र में 30 अप्रैल तक जारी लॉकडाउन के बावजूद बांद्रा स्टेशन पर हजारों प्रवासियों की भीड़ जुट गई। बताया जा रहा है कि कई लोगों के पास बांद्रा स्टेशन से ट्रेन खुलने का मैसेज मिला था। इसके बाद हजारों की भीड़ जुट गई, क्योंकि सभी लोगों को अपने घर जाना था। अब इस पर कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि क्या यह साजिश के तहत किया गया?क्या साजिश के तहत हजारों की तादाद में लोग रेलवे स्टेशन पर जुट गए?दिल्ली के निजमुद्दीन में तब्लीगी जमात का मामला सामने आने के बाद वैसे भी कोरोना वायरस के ख़िलाफ़ हमारी लड़ी लड़ाई हिंदू-मुसलमान वाली कोरोना फाइट में तब्दील हो गई है। अगर आप न्यूज़ चैनल देखते हैं या ट्विटर फॉलो करते हैं, तो कई वरिष्ठ संपादकों और मीडिया समूह के मालिकों के ट्वीट से आपको इसका अंदाजा लग जाएगा।एक संपादक हैं रजत शर्मा। उन्होंने ट्वीट किया, बांद्रा में जामा मस्जिद के बाहर इतनी बड़ी संख्या में लोगों का इकट्ठा चिंता की बात है। इन्हें किसने बुलाया? अगर ये लोग घर वापस जाने के लिए ट्रेन पकड़ने के लिए आए थे तो उनके हाथों में सामान क्यों नहीं था?’ अब इस ट्वीट का मकसद आप समझते रहिए। सुशांत सिन्हा भी एक पत्रकारहैं। एक कहावत है, नया-नया मुल्ला प्याज ख़ूब खाता है, तो यह साहब उसी बिरादरी के हैं। इन्होंने ट्वीट किया, साल में एक बार छठ/दुर्गा पूजा में घर जा पाने वाले बिहार/बंगाल के मजदूरों को 21 दिन के लॉक डाउन में घर की इतनी याद सताने लगी कि डिप्रेशन हो गया। एक से एक कहानी ला रहे हैं लोग। गजबे है।

ऐसे कई पत्रकार हैं, जो सरकार की जगह विपक्ष और जनता से ही सवाल करने का साहस कर पाते हैं। यह पत्रकारिता के स्वर्णिम काल के चंद लम्हों में एक है। ऐसा इसलिए कि अभी तक एक भी पत्रकार सरकार से यह सवाल करने की हिम्मत नहीं कर पाया कि जब विदेश में फंसे हजारों भारतीयों को स्पेशल फ्लाइट से भारत यानी देश लाया जा सकता है, तो देश में ही फंसे लाखों प्रवासियों को उनके गृह राज्यों तक क्यों नहीं पहुंचाया जा सकता है?जबकि, यह तो पूरी तरह सच है कि कोरोना वायरस का संक्रमण भारत से शुरू नहीं हुआ। विदेशों से लोग आते गए और संक्रमण फैलता गया। सोशल मीडिया पर एक मीम भी चला कि पासपोर्ट ने खता की और भुगत राशन कार्ड रहा है।यह इस देश की सच्चाई भी है। विदेशों में रहने वाले लोग/एनआरआईभारत में रहने वाले इन मजदूर तबके को किन नजरों से देखते हैं, यह किसी से छिपा नहीं है। जब खुद की जान पर आई, तो स्पेशल विमानों से कोरोना का संक्रमण लेकर देश में आते गए। उनकी सज़ा आज पूरा देश और यहां के दिहाड़ी मजदूर, गरीब, फुटपाथ पर रहने वाले लोग और न जाने कितने वंचित भुगत रहे हैं। फिर भी सरकार को इनकी फिक्र नहीं है। आख़िर क्यों इन लोगों को अपने गृह राज्य भेजने का इंतजाम सरकार नहीं करती?

कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और बात-बात में सेकुलरिज्म को गाली देने वाले अंधभक्तों का तर्क है कि पूरे देश में लॉकडाउन है, अगर इन्हें भेजा गया तो संक्रमण का खतरा बढ़ जाएगा। इनके लिए सरकार हर तरह से रहने-खाने का इंतजाम कर रही है। इस तरह के सवाल करने वालों में ट्विटर पर खुद को बिहार का बीजेपी प्रवक्त बतलाने वाले निखिल आनंद भी हैं। तो क्या विदेशों से जिन लोगों को सरकार स्पेशल फ्लाइट से देश लेकर आई है, उनके लिए वहां इतजाम नहीं था। था, लेकिन उन्हें तो यहां आना था। दो वक़्त की रोटी तो विदेश में भी भारतीयों को मिल जाती। फिर विशेष विमान भेजकर क्यों निकाला?लॉकडाउन में ही उत्तराखंड की लग्जरी बसें 1800 गुजरातियों पर्यटकों को घर तक छोड़कर आईं। लेकिन मज़दूर जहां हैं, वहीं रहें! ऐसा क्यों?

क्या ग़रीब प्रवासी मजदूर को भी उसी तरह का सम्मान नहीं मिलना चाहिए, जो विदेशों में रहने वाले भारतीय को स्पेशल विमान से लाकर दिया गया। जबकि विदेशों में रहने और जाने वाले ये भारतीय ही देश में कोरोना वायरस के संक्रमण की असल जड़ और वजह हैं। ऐसे में आप एक वर्ग के लिए सम्मान देने वाले और दूसरे वर्ग के लिए अहंकारी नहीं बन सकते। अगर सरकार के नैतिकता है, तो इन सभी दिहाड़ी मजदूरों और गरीबों को उसी सम्मान से उनके घर या गृह राज्य पहुंचाना चाहिए। किसी तरह की प्राथमिकता नहीं और न ही किसी तरह का भेदभाव होना चाहिए।

मोदी के भारत में कोरोना वायरस ने बढ़ाई हिंदू-मुसलमानों की खाई

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यह भारत सवाअरब भारतीयों का है। इसी सवा अरब भारतीयों पर कोरोना वायरस महामारी का संकट भी है। अब वैश्विक संकट है, तो दोष सरकार पर नहीं ही लगाया जा सकता है। लेकिन इस संकट के समय में जिस तरह की घटनाएं हो रही हैं, उसके लिए सरकार जरूर जिम्मेदार है।
मीडिया हाउस अल-जजीरा की ख़बर है कि गुजरात के अहमदाबाद के सरकारी हॉस्पिटल में कोरोना मरीजों का इलाज हिंदू मरीज और मुस्लिम मरीज के आधार पर किया जा रहा है। गुजरात के इस सरकारी अस्पताल में कोरोना के हिंदू मरीजों के लिए अलग वॉर्ड है, तो मुसलमानों के लिए अलग। दावा यह कि ऐसा करने के लिए सरकार से आदेश आया है।आमतौर पर किसी भी अस्पताल में किसी भी वॉर्ड को पुरुष और महिला वॉर्ड के तौर पर बांटा जाता है। लेकिन, यहां के सरकारी अस्पताल में मुस्लिम वॉर्ड और हिंदू वॉर्ड के तौर पर बांटा गया है, ताकि कोरोना वायरस के मरीजों का इलाज किया जा सके। इंडियन एक्सप्रेस से अहमदाबाद सिविल हॉस्पिटल के मेडिकल सुपरिटेंडेंट डॉक्टर गुनवंत एच. राठौड़ कहते हैं, यह सरकार का फैसला है और आप सरकार से ही इस बार में पूछिए।यह उसी गुजरात के हॉस्पिटल की कहानी है, जहां 2014 में प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी 2001 के बाद से लगातार 13 साल तक मुख्यमंत्री थे।
अब कहानी को थोड़ा मोड़ते हैं। बात 12 अप्रैल की है। तमिलनाडु के मदुरै में जलीकट्टू और धार्मिक यात्राओं में शामिल होने वाले एक बैल के अंतिम संस्कार में हजारों की संख्या में लोगों की भीड़ जुट गई। 15 अप्रैल की बात है। मुंबई के बांद्रा की ही तरह दिल्ली में हजारों की संख्या में प्रवासी मजदूर यमुना किनारे जमा हो गए। राजस्थान के जैसलमेर के पोखरण क्षेत्र में भी मुंबई के बांद्रा रेलवे स्टेशन जैसे हालात पैदा हो गए। देश में लॉकडाउन को फिर से 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा के बाद प्रवासी मजदूर यहां जुटने लगे। कुछ ही समय में सैकड़ों प्रवासी मजदूर परिवार सहित सड़कों पर उतर आए। इनमें अधिकांश यूपी और बिहार राज्यों के कामगार थे, जिनकी मांग थी कि उन्हें  अपने-अपने राज्य लौटने की इजाजत दी जाए। भले ही ट्रेन या बस से नहीं, तो पैदल ही, लेकिन जाने दिया जाए।
उधर, गुजरात के सूरत में 14 अप्रैल के बाद 15 अप्रैल को भी लगातार दूसरे दिन प्रवासी मजदूरों की भीड़ सड़कों पर नजर आई। दरअसल, सूरत के कारखानों में काम करने वाले उत्तर प्रदेश, बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों के हजारों प्रवासी यहां फंस गए हैं।पर चर्चा और बहस का केंद्र मुरादाबाद और मुसलमान। तो फिर पंजाब में निहंगों का हमला क्यों नहीं? हालांकि, यह सही है कि एक हिंसा का जवाब दूसरी हिंसा नहीं है। फिर भी बहस का केंद्र घूमफिर कर मुसलमान ही क्योंयह सच है कि चंद मुसलमानों की वजह से साख का संकट गहरा रहा है, लेकिन यही बात सरकार पर भी तो लागू होती है।
Photo: Internet
महाराष्ट्र में लोगों को सड़कों पर आने के लिए उकसाने वाला विनय दुबे क्यों नहीं मीडिया के बहस के केंद्र में आता है। क्यों नहीं विनय और निहंग समुदाय की हिंसा के बाद इनके पूरे समुदाय पर सवाल उठने लगते है? क्यों फेसबुक से लेकर ट्विटर तक पर एंटी मुसलमान विषय ट्रेंड करने लगते हैं?इसकी वजह भी है। वजह यह है कि जब पहले से ही मन-मस्तिष्क में एजेंडा भरा हो, तो आपको सिर्फ वही दिखाई देता है और उसे शह मिलती है सत्तारूढ़ सरकार से।
कुल मिलाकर कोरोनो वायरस महामारी के दौरान देश के हिंदुओं और अल्पसंख्यक मुसलमानों की एक बड़ी आबादी के बीच खाई बढ़ी ही है। कहां तो उम्मीद थी कि इस संकट में महामारी के खिलाफ पूरा देश एकजुट होकर लड़ेगा। लेकिन, मीडिया और कुछ तथाकथित राष्ट्रवादी और मुसलमान विरोधी या फिरकापरस्त तबके को ज़रा भी मौका मिलता है, वह मुसलमानों के खिलाफ हो-हल्ला शुरू कर देता है। दरअसल, मोदी सरकार में मुसलमानों का या उनके प्रति अविश्वास कुछ महीने पहले नागरिकता संशोधन कानून और फिर एनआरसी की चर्चाओं को लेकर तेज हुआ। अभी तक आधिकारिक तौर पर कोरोना वायरस फैलने को लेकर किसी धर्म को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है। लेकिन दिल्ली के निजामुद्दीन से तबलीगी जमात का मामला सामने आने के बाद कई मुसलमानों को लगता है कि इस संक्रमण के लिए उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। इसे लेकर बेहद ही सनसनीखेज तरीके से न्यूज चैनलों और अखबारों द्वारा खबरों की रिपोर्टिंग की गई। एक बहस शुरू की गई कि देश में कोरोना फैलने की वजह मुसलमान ही हैं। फिर हिंदुत्व के कुछ झंडाबरदार नेता भी इस बहस में कूद पड़े। सोशल मीडिया पर कोरोना जिहादट्रेंड कराया जाने लगा। तबलीगी जमात के कार्यक्रम से जुड़े करीब 1000 लोगों में कोरोना वायरस की पुष्टि हुई। कुछ मुस्लिम नेताओं का कहना है कि चंद लोगों में यह गलतफहमी थी या फिर उनकी एक सोच हो गई कि उनके मजहब में यह नहीं फैलेगा। यह भी कि कहीं उनके खिलाफ साजिश तो नहीं। लेकिन, उनका यह भी कहना है कि इसे लेकर मस्जिदों से इस तरह की गलतफहमी दूर करने की कोशिश भी हो रही थी।

आखिर ऐसा क्यों हुआ कि मुसलमान इस तरह की सोच रखने लगे। गुजरात के एक मुस्लिम नेता का कहना है कि सरकार और सत्ता प्रतिष्ठान के प्रति मुसलमानों में गहरा अविश्वास है। वह बताते हैं, इस तरह के लोगों को यह समझाने में काफी कोशिश करनी पड़ी कि मेडिकल सुविधाओं और इलाज के लिए डॉक्युमेंट्स की जरूरत पड़ती है।

ऐसे में जब कुछ मुस्लिम बहुल इलाकों में स्वास्थ्यकर्मी कोरोना के मामलों का पता लगाने गए, तो कुछ मुसलमानों को लगा कि यह अवैध प्रवासियों का डेटा इकट्ठा करने की सरकारी कवायद है।

यह सिर्फ भारत में ही है कि अगर किसी समुदाय की वजह से संक्रमण बढ़ रहे हैं, तो उसके खिलाफ एक पल में एक फौज खड़ी नजर आने लगती है। सिर्फ भारत में ही है कि धर्म के आधार पर कोरोना से जंग लड़ी जा रही है। दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल के शिनचोनजी चर्च के 61 साल महिला में कोरोना के लक्षण थे। वह इस बात से अनजान रही और चर्च की सार्वजनिक बैठकों में शामिल होती रही और कोरोना संक्रमण फैलता चला गया। बात 18 फरवरी की है। उस दिन महिला को कोरोना पॉज़िटिव पाया गया। तब दक्षिण कोरिया में कोरोना वायरस के सिर्फ 31 मामले थे। 28 फरवरी को यह संख्या 2000 से ज़्यादा हो गई थी।

इसी तरह फ्रांस के म्यूलहाउस शहर के एक चर्च में पांच दिनों का सालाना कार्यक्रम हुआ, जिसमें यूरोप, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका के हजारों लोग शामिल हुए। म्यूलहाउस शहर फ्रांस की सीमा को जर्मनी और स्विट्जरलैंड से जोड़ती है। इस सालाना धार्मिक उत्सव में कोई कोरोना पॉजिटिव था, जिससे पूरे फ्रांस और अन्य देशों में कोरोना फैला। करीब 2500 पॉजिटिव केस का लिंक इसी से जुड़ा पाया गया।

इस तरह के कई मामले हैं, जहां धार्मिक सभा या कार्यक्रमों की वजह से कोरोना के खिलाफ लड़ाई कमजोर हुई। लेकिन किसी भी देश ने धर्म विशेष को निशाना नहीं बनाया। लेकिन हमारे यहां क्या हो रहा है। हमारे एक साथी हैं मनीष। वह लिखते हैं, तबलीगी जमात के जिस मौलाना साद के बारे में पुलिस और मीडिया ने खबर उड़ाई कि वह फरार है। पुलिस उसकी तलाश कर रही है। बाद में पता चला कि यह झूठ था और साद अपने घर में आइसोलेशन में है। कोविड-19 टेस्ट में निगेटिव पाए जाने के बाद भी उसकी गिरफ्तारी/हिरासत की कोई खबर नहीं आई है। उधर, दिल्ली के ही डिफेंस कॉलोनी में गार्ड मुस्तकीम के बारे में भी यही खबर उड़ाई गई कि वह फरार है और पुलिस को उसकी तलाश है। बाद में पता चला कि यह भी झूठ था और उसे उसके घर में ही क्वारंटीन/आइसोलेशन में रखा गया था और टेस्ट में अब उसकी रिपोर्ट निगेटिव आई है। हां, रिपोर्ट आने से पहले ही उसके खिलाफ केस जरूर दर्ज हो गया।

सबसे बड़ी बात कि इन तमाम तरह के हथकंडों और सांप्रदायिक ख़बरों को लेकर सरकारी सुस्ती और निष्क्रियता ही दिखती है।

लॉकडाउन: छबू मंडल की मौत सुसाइड नहीं, हत्या है! और, जिम्मेदार यह सरकार है

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17 अप्रैल कोउत्तर प्रदेश से लगभग 250 बसें राजस्थान के कोटा में पहुंचती। यह बस उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार की ओर से कोटा में फंसे लगभग 9,000 छात्रों को लाने के लिए भेजी गई। उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार, मध्य प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली और पश्चिम बंगाल के भी स्टूडेंट्स कोटा के विभिन्न कोचिंग संस्थानों में पढ़ाई कर रहे हैं। अचानाक लॉकडाउन होने से ये स्टूडेंट्स यहां लंबे समय से फंसे हुए हैं। लेकिन बिहार सरकार इन स्टूडेंट्स को अपने यहां बुलाने पर राजी नहीं हुई। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने योगी सरकार के कदम निशाना भी साधा कि यह लॉकडाउन के नियमों का उल्लंघन है। लेकिन नियमों को कौन मानता है। जब उत्तराखंड से 1800 गुजरातियों को बसों से भेजा जा सकता है, तो यह तो कुछ नहीं है। सारे कायदे-कानून सिर्फ अमीरों के लिए हैं और मजदूरों के लिए लाठियां, भूख, गरीबी, बेरोजगारी और अंत में मौत। मौत इसलिए कि यही सच्चाई है।
छबू मंडल की पत्नी और उनके बच्चे। Photo: Indian Express
इंडियन एक्सप्रेस की ख़बर है। फ्रंट पेज पर। बिहार के एक प्रवासी शख्स की। 17 अप्रैल की बात है। बिहार के 35 वर्षीय छबू मंडल गुड़गांव में एक पेंटर (चित्रकार नहीं, घरों लंबी-लंबी इमारतों के बनने के बाद उन्हें रंगने का काम) के रूप में काम करते थे। छबू मंडल गुड़गांव में अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ रहते थे। उनका सबसे छोटा बच्चा सिर्फ पांच महीने का ही था। उन्हें मजबूरन अपना फोन 2,500 रुपये में बेचना पड़ा, ताकि परिवार को खिलाने के लिए कुछ राशन खरीद सकें। उस पैसे से उन्होंने एक पंखा भी खरीदा।
जब वह राशन का सामान लेकर घर लौटे, तो उसकी पत्नी बेहद पूनम खुश थी, क्योंकि घर में खाने के लिए कुछ भी नहीं था। इससे पहले भी उनका परिवार लोगों द्वारा मुफ्त में बांटे जा रहे खाने पर ही गुजर-बसर कर रहा था। या फिर उनके पड़ोसी उन्हें कुछ दे देते थे। खाना बनाने से पहले छबू मंडल की पत्नी वॉशरूम जाती हैं। उनकी मां बच्चों को लेकर बाहर एक पेड़ के नीचे बैठ जाती हैं। जब उनका परिवार बाहर होता है, तो मंडल अपने झोपड़ीनुमा घर का दरवाजा बंद करते हैंऔर घर के अंदर पंखे लटककर खुदकुशी कर लेते हैं। इंडियन एक्सप्रेस से उनकी पत्नी पूनम कहती हैं, लॉकडाउन के बाद से ही वह बहुत परेशान थे। हम हर रोज दो वक्त की रोटी के लिए जूझ रहे थे। न काम था और न पैसा। हम पूरी तरह से लोगों की ओर से बांटे जाने वाले खाने पर निर्भर थे। लेकिन, यह भी हमें रोज नहीं मिलता था।

गुड़गांव की पुलिस का कहना है कि छबू मंडल "मानसिक रूप से परेशान"था।  जिला प्रशासन के अधिकारियों ने भी 35 वर्षीय के "मानसिक रूप से परेशान"होने की बात पर जोर दिया। छबू मंडल के इलाके में ही रहने वाले फिरजो भी बिहार के रहने वाले हैं। उनका कहना है कि लोग बाहर निकलने से डर रहे हैं, क्योंकि पुलिस उनके साथ बेरहमी से पेश आ रही है। लेकिन क्या आपको पुलिस का ऊंचे ओहदों या फिर कोटा की तरह दूसरे इलाकों के लोगों के साथ जी-अदबी से पेश आती दिखी नहीं। वह तो लॉकडाउन की वजह से भूखे मरने, नौकरी गंवाने वालों की मौत, मजदूरों के पलायन करने से होने वाली मौतों को मानसिक रूप से परेशानबताने लगती है। उससे पहले जो मन आए और जिस तरह इच्छा उस तरह से पेश आती है।
बतौर इंडियन एक्सप्रेस छबू मंडल करीब 15 साल पहले बिहार के मधेपुरा से गुड़गांव आए थे। 10 साल पहले उनकी शादी हुई थी और उसके बाद अपने परिवार को भी गुड़गांव लेकर आ गए। पिछले कुछ वर्षों से वे गुड़गांव से सरस्वती कुंज इलाके में रहते थे। दो झोपड़ी किराए पर ली थी, जिसके लिए उन्हें 1500 रुपये महीने देने होते थे। पहले प्रदूषण की वजह से कंस्ट्रक्शन का काम बंद हुआ, तो आमदनी भी बंद। अब लॉकडाउन से सबकुछ बंद हुआ, तो फिर सब गया।
सरकार के दावे बड़े-बड़े कि इस लॉकडाउन में अपने किराए पर रहने वालों की मदद करें। कुछ महीनों का माफ करें या किसी भी तरह से मदद करें, लेकिन हो उल्टा रहा है। मंडल की पत्नी पूनम कहती हैं,
इस संकट में मकान मालिक की तरफ से एक-दो बार किराए के लिए पैसे की मांग की गई, जिससे उन पर दबाव बढ़ा।वह कहती हैं, एक दिन मेरे पति ने फैसला किया कि वह अपना फोन बेच देंगे, जिसे उन्होंने 10 हजार रुपये में खरीदा था, ताकि राशन के लिए कुछ सामान खरीदा जा सके।

मंडल के परिवार ने उनका अंतिम संस्कार गुड़गांव में ही 17 अप्रैल को किया। इसके लिए भी अपने पड़ोसियों, और दान के पैसे पर निर्भर रहना पड़ा। छबू मंडल की पत्नी कहती हैं, हम तो हमें इसी हकीकत के साथ रहना पड़ेगा कि अब परिवार में कमाने वाला कोई नहीं रहा। शायद मैं दूसरों के घरों में मेड का काम कर लूं, लेकिन अभी भी लॉकडाउन खत्म होने में 15 दिन बचे हैं।

यह लॉकडाउन में होने वाली कोई पहली मौत नहीं है। यह मौत कोरोना वायरस संक्रमण की वजह से भी नहीं हुई है। यह मौत हुई सरकार की मनमानी नीतियों और छबू मंडल जैसे लोगों को बिना ध्यान में रखे लॉकडाउन लागू करने की वजह से हुई है। यह सिर्फ छबू मंडल की मौत नहीं है। यह भारत की आत्मा की मौत है, जिसकी हिफाजत इस देश के हुक्मरान नहीं कर सकते। यह किसकी सरकार है, जिसका मुखिया खुद को प्रधानसेवक कहता है। लेकिन इसी प्रधानसेवक की पार्टी का मुख्यमंत्री उसकी बातों की धज्जियां उड़ाते हुए 250 बसों को भेजता है, ताकि फंसे लोगों को लाया जा सके। फिर उन लाखों मजदूरों ने कौन-सा अपराध किया था, जिसके साथ भेड़-बकरियों की तरह पेश आया गया। छबू मंडल जैसे लोगों ने क्या अपराध किया था?पीएम केयर्स फंड का पैसा किसके लिए है? छबू मंडल की मौत कोई सुसाइड नहीं, बल्कि हत्या है। इस हत्या की जिम्मेदार इस सरकार की ग़ैर-जिम्मेदाराना सोच और नीतियां हैं। वह इससे बच नहीं सकती।

पालघर मॉबलिंचिंगः मर्ज को जाने बिना इलाज नामुमकिन है

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महाराष्ट्र के पालघरमें दो साधुओं समेत तीन लोगों की भीड़ ने पीट-पीटकर हत्या कर दी। इस मॉब लिंचिंग में तीनों को जान गंवानी पड़ी। किसी ने उनके चोर होने की अफवाह उड़ा दी। इसके बाद दर्जनों लोगों की भीड़ उन पर टूट पड़ी। यह पूरी घटना वहां मौजूद कुछ पुलिसकर्मियों के सामने हुई। 110 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। लापरवाही के आरोप में महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार ने पुलिस के दो अधिकारियों को सस्पेंड किया है।
Photo: Express
एक अफवाह ने तीन बेकसूरों की जान ले ली। अब लाख कोशिश कर ली जाए... पुलिस को सस्पेंड करो, दोषियों को सजा दो, उन तीनों की जिंदगी तो वापस नहीं आ सकती न। इसलिए पालघर की लिंचिग घटना बेहद शर्मनाक है! लेकिन, आज जिस तरह कुछ वर्ग विशेष के चंद लोग इस घटना से तमतमाए हुए हैं, अगर पहले ही हम इस तरह की तमाम हिंसा पर सरकार से सवाल करते और जिम्मेदार ठहराते तो ऐसी नृशंस हत्या करने से पहले गुनहगार 100 बार सोचता... अगर मॉब लिंचिंग के आरोपियों को मोदी सरकार का कोई मंत्री फूल-मालाओं से स्वागत नहीं करता, तो ऐसी हिम्मत किसी क न होती। अगर मॉब लिंचिंग करने वालों के पक्ष में नारे नहीं लगाए जाते, तो ऐसी हिम्मत कोई नहीं कर पाता। और, आज दोनों साधु हमारे सामने जीवित होते। लेकिन नहीं, जब तक सहूलियत के हिसाब से मॉब लिंचिंग एक मजहब विशेष के लोगों के साथ होती रही, लोग चुप रहे। मरने वालों को चोर-उचक्का कहने लगे और मारने वालों का यशोगान करते रहे। ये भूल गए कि यह अफवाह एक भस्मासुर है और इस आग में एक दिन खुद भी भस्म होना होगा। फिर भी कुछ लोग सुधर नहीं रहे और पालघर में मॉब लिंचिंग की घटना में सांप्रदायिक ऐंगल निकालने में लगे हैं... पुलिस ने हत्या का मामला दर्ज कर सौ से ज़्यादा लोगों को हिरासत में लिया है। लेकिन कुछ निहायत घटिया लोग इसे सांप्रदायिकता का रंग देने में जुटे हैं।
जब मैंने कल इस पर सवाल उठाया, तो तकरीबन 15 साल से पत्रकारसाहब ने उल्टा सवाल कर दिया। उनका कहना था कि इस पालघर लिंचिंग की घटना पर कोई कुछ नहीं बोल रहा है, ना मीडिया गैंग, ना जमाती, ना जेहादी, ना वाम, ना हाथ, ना सेलेब्स, ना लिबरटार्ड... देश बोल रहा है।देश से उनका तात्पर्य था ट्विटर। जब सवाल किया कि क्या 1.3 अरब की आबादी ट्विटर पर है। ट्विटर पर कैसे चंद ट्रोल ट्रेंड कराने लगते हैं किसी विषय को और  क्या ट्विटर ही देश है, तो मुझसे सवाल पूछा गया कि चोर तबरेज के लिए ट्वीट करने वाले आम आदमी थे, साधु मारा गया सब ट्रोल ही ट्वीट कर रहे हैं।मतलब उनकी नज़रों में 24 साल का तबरेज अंसारी, जिसकी झारखंड में भाजपा की सरकार के दौरान मॉब लिंचिंग की गई, वह चोर था।

दरअसल, सारी समस्या की जड़ यही है। जब तक हम सहूलियत के हिसाब से घटनाओं को देखेंगे, पालघर जैसी मॉब लिंचिंग से बेकसूरों के जान गंवाने की वारदात होती रहेगी। अगर हमें इसे रोकना है, तो सारे मामले को एक चश्मे से देखना ही होगा।

सबसे पहले हमें सांप्रदायिकता के चश्मे को उतारना होगा। वरना जब अगस्त 2019 में पटना में 20 से अधिक अफवाह बच्चा चोरी की उड़ाई जाती है और भीड़ लाठी-डंडों से बेकसूबर दूसरे मजहब के लोगों की पिटाई कर हत्या कर देती है, तब हम कहां होते हैं?

सितंबर 2019 में जब भीड़ बच्चा चोरी की अफवाह में मानसिक रूप से कमजोर और दिव्यांग मुस्लिम समुदाय के लड़के को पीटकर अधमरा कर देती है, तो हमारी आवाज़ कहां होती है?जब यूपी के ही संभल में ऐसे ही मामले में भीड़ मॉब लिंचिंग में हत्या कर देती है, तब भी खामोशी की चादर बिछी रहती है।  

पालघर में जिस बेरहमी से दोनों साधुओंपर भीड़ हमला कर रही है, वह बीभत्स है। पुलिस एक घर से उसे हाथ पकड़कर लाती दिख रही है। फिर अचानक भीड़ साधु को मारना शुरू कर देती है। पुलिस वाले खुद को बचाते दिख रहे हैं। जब पुलिस ऐसे भीड़ वाले मामले में खुद फंसती है, तो पहले अपनी जान बचाती नजर आती है। लेकिन सवाल उठता है कि आखिर हालात बेकाबू कहां से हुए। किन वजहों से इन वारदात को अंजाम दिया गया। हमें इस तरह की भीड़ की मानसिकता के तहत तक जाना होगा। वरना मर्ज को जाने बिना इलाज नामुमकिन है।

यही सही है कि इस तरह की वारदात के साथ कुछ तथाकथित (वामपंथियों और छद्म सेकुलरों) बुद्धिजीवियों का दोहरा चेहरा सामने आने लगता है। हालांकि, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह देश इन छद्म बुद्धिजीवियों से बना है। हमें उनसे भी पार पाना है और इस तरह की मॉबलिंचिंग की मानसिकता और इसे बढ़ावा देने वाली सोच से भी। यह दोनों तरफ के लोग हैं।

अब जैसा कि पहले ही कहा कि इसमें भी कुछ निहायत ही घटिया और संकीर्ण सोच वाले लोग सांप्रदायिकता का एंगल तलाश रहे हैं।


लोकतंत्र को लगा कोरोना रोग, हुआ वायरस से संक्रमित

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कोरोना वायरसका शुक्रिया!मुझे पता है कि ऐसा नहीं कहना चाहिए, लेकिन मौजूदा कोरोना वायरस महामारी में कुछ छोटी-छोटी खुशियां हैं। कुछ इन्हीं शब्दों में रूस का एक शख्स अपनी भावनाओं को ज़ाहिर करता है। स्वाभाविक सी बात है कि इसकी वजहें भी होंगी। दरअसल, रूस में व्लादिमीर पुतिन वर्ष 2000 से ही सत्ता में हैं। राष्ट्रपति का उनका मौजूदा कार्यकाल 2024 में खत्म होने वाला है। लेकिन पुतिन ने 2024 के बाद भी 12साल तक पद पर बने रहने का संवैधानिक जुगाड़ कर लिया। बस एक पेच बाकी रह गया था। रूस की संसद से पुतिन के 2036 तक सत्ता में बने रहने के लिए विधेयक पास हो चुका है। बस जनमत संग्रह कराना बाकी रह गया, जो 22अप्रैल को होने वाला था। लेकिन कोरोना वायरस महामारी की वजह से इसे फिलहाल टाल दिया गया है। पिछले 20 वर्षों से पुतिन ही रूस के मालिक बने बैठे हैं। कभी संविधान का सहारा लेकर, तो कभी संविधान संशोधन के जरिए। सवाल उठते हैं, तो विपक्ष की आवाज का गला घोंट दिया जाता है।
कुछ इसी तरह का हाल या थोड़ा मुस्तफा कमाल पाशा के देश तुर्की का है। दरअसल, यह हक़ीकत है कि मौजूदा समय में सबसे बड़ा ख़तरा लोकतंत्र पर मंडरा रहा है। कोरोना वायरस ने इस ख़तरे को संजीवनी दी है या कहें कि लोकतंत्र भी कोरोना वायरस से संक्रमित हो गया है। दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश की तमाम खूबियां इस महामारी की चपेट में आ रही हैं या आ चुकी हैं। ऐसा इसलिए कि इस महामारी की वजह से अधिकांश देशों को मनमानी करने की छूट मिल चुकी है। उन पर नजर रखने या सवाल करने पर ही सवाल खड़े किए जा रहे हैं।

भारत में ही एक उदाहरण देता हूं कि मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री राहत कोष के होते हुए पीएम केयर्स नाम से एक अलग ट्रस्ट बना लिया। अभी तक आपदा या महामारी के लिए प्रधानमंत्रा राहत कोष में ही चंदा या दान दिया जाता था, लेकिन अब पीएम केयर्स। लेकिन इसकी पारदर्शिता पर कई तरह के सवाल उठने लगे हैं। जब विपक्ष की तरफ से इसकी राशि प्रधानमंत्री राहत कोष में ट्रांसफर करने की मांग की गई, तो सिरे से खारिज कर दिया गया।अब ख़बर है कि पीएम केयर्स के फंड का सरकार ऑडिट भी नहीं करवाएगी। हालांकि, पहले प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष का भी नहीं होता था। लेकिन सवाल उठता है कि जब प्रधानमंत्री राष्ट्रीय राहत कोष का भी नहीं होता था, तो पीएम केयर्स फंड का भी क्यों नहीं होना चाहिए?अगर नहीं होना चाहिए, तो एक कोष के होते दूसरे की जरूरत क्यों हैं?यहीं से मंशा पर सवाल उठता है।

अब लौटते हैं यूरोपीय देशों की तरफ जहां कोरोना वायरस के साथ-साथ लोकतंत्र का खतरा बढ़ता ही जा रहा है। पूरे यूरोप में चुनावों को स्थगित किया जा रहा है। अदालतों ने बेहद अहम केसों को छोड़कर बाकी की सुनवाई ही बंद कर दी है। हंगरी में सरकार की तरफ से उठाए गए कदमों ने इस चिंता को और बढ़ा दिया है। हंगरी की सरकार ने कोरोना वायरस की आड़ में ऐसा प्रस्ताव पास किया है या करने वाला है, जिससे जब तक कोरोना महामारी के कारण आपातकाल लगा रहेगा, तब तक मौजूदा सरकार की सत्ता में बनी रहेगी। कोई चुनाव नहीं होगा। यानी हंगरी की सरकार आपातकालीन स्थिति के तहत अनिश्चितकाल तक शासन करेगी।

मौजूदा हालात में यूरोप के कम-से-कम 15 देशों ने आपातकाल की घोषणा की है। कुछ देशों ने आपातकाल नहीं लगाया, लेकिन जनता पर पाबंदी को लेकर सख्त कदम उटाए हैं। पोलैंड में सरकार आपातकाल लागू करने को लेकर अड़ी हुई है। इसकी वजह भी है। यहां 10 मई को राष्ट्रपति का चुनाव होना है। अगर आपातकाल लगता है, तो चुनाव को स्वाभाविक रूप से टाल दिया जाएगा।इसी तरह फिलीपींस की संसद से एक कानून पास किया गया, जिसके तहत राष्ट्रपति रॉड्रिगो डुत्रेतो को आपातकाल में असीमित अधिकार दिया गया है। कंबोडिया में एक कानून का मसौदा बनाया गया है। यह भी राष्ट्रीय आपातकाल से जुड़ा है। अगर कानून की शक्ल ले लेता है, तो सरकार को बेइंतहा मार्शल पावर मिल जाएगा और वहां के नागरिकों के राजनीतिक अधिकारों में व्यापक कटौती की जाएगी।

उधर, इजरायल में प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू और उनके भ्रष्टाचार के खिलाफ लोगों का सोशल डिस्टेंसिंग वाला प्रदर्शन जारी है, लेकिन नेतन्याहू किसी तरह सत्ता पर फिर से कब्जा करने में सफल दिख रहे हैं। अमेरिका पहले ही स्टेट लेवल प्रेसिडेंशियल प्राइमरी चुनाव को रद्द कर चुका था।

अभी आने वाले दिनों में आइवरी कोस्ट, मलावी, मंगोलिया, डॉमिनिकन रिपब्लिक जैसे कई देशों में चुनाव होने वाले हैं, लेकिन यहां भी इसी तरह का ख़तरा मंडरा रहा है।  

एशियाई देशों में बात करें, तो श्रीलंका में भी कोरोना वायरस की वजह से संसदीय चुनाव दो महीने के लिए स्थगित कर दिए गए हैं। राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे ने निर्धारित समय से छह महीने पहले 2 मार्च को संसद भंग कर दी थी। तब उन्होंने 25 अप्रैल को मिडटर्म चुनाव कराने की बात कही थी। अब नई तारीख 20 जून की दी गई है।आपको बता दें कि इन्हीं गोटबाया राजपक्षे ने अपने भाई महिंदा राजपक्षा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया था।

कुल मिलाकर हक़ीकत यही है कि कोरोना वायरस ने न सिर्फ इंसानों का कत्लेआम किया, बल्कि यह लोकतंत्र का दमन करने के लिए तैयार है। यह दमन वायरस नहीं, बल्कि इसकी आड़ में तानाशाही सोच वाले नेता/सरकारें कर रही हैं। चाहे यूरोपीय देश हों, रूस या फिर भारत की मोदी सरकार... तो तैयार रहिए कोरोना की जंग के बाद लोकतंत्र की अस्थियां समेटने के लिए...

हिंदुस्तान किससे लड़ रहा है? कोरोना या फिर मुसलमानों से...

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कोरोना धर्म देखकर नहीं होता। लेकिन धर्म देखकर आरोप लगाया जा रहा है कि किसी धर्म की वजह से कोरोना फैल रहा है। ख़ैर 'कोरोना धर्म देखकर नहीं होता इसलिए सबको एकजुट रहकर कोरोना से लड़ाई लड़नी है।'यह बिलकुल हालिया बयान है दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की। जबकि दिल्ली में ही धर्म देखकर कोरोना फैलाने के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार बताने की कई घटनाएं हुई हैं। मैं जहां रहता हूं, वहां का आंखों देखा हाल है। एक बीट कॉन्स्टेबल को कुछ लोग कहते हैं कि सब्जी बेचने वाले मुसलमानों को इस मोहल्ले में आने से रोकें। वह कॉन्स्टेबल मना कर देता है और कहता है कि मैं किसी को मुसलमान-हिंदू देखकर नहीं रोकूंगा। हालांकि, वह इससे रोकता भी नहीं है और कहता है कि अगर आपको हिंदू-मुसलमान देखकर रोकना है, तो रोको।


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी कह चुके हैं कि कोरोना से इस जंग को हमें मिलकर लड़ना है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्वीट किया, कोरोना वायरस नस्ल, धर्म या पंथ के आधार पर भेदभाव नहीं करता है। इसलिए इसके खिलाफ हमारी लड़ाई में एकता और भाईचारे को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। हम सभी इस लड़ाई में एकजुट हैं।हालांकि, उनकी यह प्रतिक्रिया ऑर्गनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोऑपरेशन के मानवाधिकार संगठन द्वारा कोरोना वायरस के संदर्भ में मुसलमानों को निशाना बनाए जाने और देश में चलाए जा रहे इस्लामोफोबिक कैंपेन की निंदा करने के घंटों बाद आई। दरअसल, भारत में मुसलमान कोरोना वायरस संकट का खामियाजा भुगत रहे हैं। क्योंकि हर बात पर हर दिन यहां न्यूज चैनलों से लेकर सोशल मीडिया और लोगों के पर्सनल वॉट्सऐप ग्रुप में देश में कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों को लेकर मुसलमानों को हो दोषी ठहराया जा रहा है। यह दिल्ली के निजामुद्दीन में तबलीगी जमात के बाद 100 फीसदी पढ़ गया है। एक पार्टी विशेष के नेता और पार्टी से जुड़े संगठन कोरोना आतंकवादतक जैसे शब्दों का प्रयोग करने लगे हैं। दुनिया के दूसरे सबसे अधिक आबादी वाले देश यानी भारत में इस कोरोना वायरस संकट के बीच अल्पसंख्यकों के प्रति हिंसा, व्यापारिक बहिष्कार और नफरत फैलाने वाले बयानों में तेजी से वृद्धि आई है।
भारत में कोरोना वायरस के अभी तक 26 हजार 496 मामलों की पुष्टि हो चुकी है। 824 लोगों की मौत हो चुकी है। अगर तबलीगी जमात के कोरोना मामलों को देखें, तो भारत में हर पांच से एक केस का ताल्लुक इसी से है। फिर बाकी चार का किससे है?मार्च में तीन दिनों धार्मिक जलसे में तकरीबन 8 हजार लोग इकट्ठा हुए थे। उसके पहले इस देश में कोरोना वायरस अपना रंग दिखाने लगा था। लेकिन मार्च की इस घटना के बाद देश में क्या चल रहा है? कोरोना का इस्लामीकरण। बड़ी सभाओं या देश में लॉकडाउन से पहले तबलीगी जमात ने दिल्ली के निजामुद्दीन इलाके में बड़ी धार्मिक सभा का आयोजन किया था। जमात के प्रवक्ता मुजीब-उर-रहमान का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 24 मार्च को 21 दिनों का लॉकडाउन लागू किए जाने के बाद वहां फंसे लोगों को रहने की जगह मुहैया कराई गई।

फिर छापे मारी हुई। कई विदेशी भी वहां से निकले। संक्रमण का खतरा बढ़ता चला गया। लोगों ने खुद को छिपाना भी शुरू कर दिया। देश में एक तरफ जहां कोरोना मरीजों का इलाज करने वाले डॉक्टरों पर हमला हो रहा है। इलाज करने वाले डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों को उनके पड़ोसी ही उनके खुद के घरों में रहने पर हंगामा मचा रहे हैं। एक डॉक्टर की मौत पर तो लोगों ने उनके दफनाने को लेकर बवाल मचा दिया। जब इस तरह का सोशल स्टिग्मा चल रहा हो, तो भला कौन खुद की पहचान जाहिर करेगा। हालांकि, जरूरत इस बात की है कि इसे लेकर जागरूकता अभियान चलाया जाए, लेकिन जागरूकता अभियान की जगह मुसलमानों के खिलाफ अभियान चलाया जा रहा है।

मुसलमानों को निशाना बनाकर झूठी खबरें/फेक न्यूज़ फैलाना शुरू कर दिया गया। कथित रूप से अधिकारियों पर उनके थूकने की खबरें फैलाई गई। बाद में यह झूठ साबित हुआ। सरकार की तरफ से भी कैसे इस बहस को आगे बढ़ाया गया, उसकी मिसाल भी देख लीजिए। भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय के संयुक्त सचिव लव अग्रवाल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस धार्मिक कार्यक्रम का नाम लिया। ब्रिटिश अखबार की वेबसाइट मेल ऑनलाइन के मुताबिक, उन्होंने 5 अप्रैल को कहा कि वायरस के मामलों की संख्या के 4.1 दिनों में दोगुनी हो रही थी। यह रफ्तार 7.4 दिनों की होती, 'अगर तबलीगी जमात की वजह से कोरोना के अतिरिक्त मामले सामने नहीं आते।

उसी दिन दिलशाद मोहम्मद ने अपनी जान ले ली। हिमाचल प्रदेश के रहने वाले दिलशाद ने जमात के दो लोगों को अपनी बाइक पर लिफ्ट दी थी। और जमात को लेकर पूरे देश में दहशत और कलंक का माहौल इतना फैला दिया गया कि इससे उसने अपनी जान ले ली। वहां के एसपी ने भी इस आत्महत्या के मामले को स्टिग्मा यानी कोरोना को लेकर सामाजिक कलंक को जिम्मेदार ठहराया।

राजस्थान में एक गर्भवती मुस्लिम महिला को उसके धर्म के कारण सरकार अस्पताल में भर्ती करने से मना कर दिया गया। इसकी वजह से महिला के पेट में पल रहे सात महीने के बच्चे की मौत हो गई।

उत्तराखंड में कुछ हिंदू युवाओं ने फल बेचने वाले मुसलमान शख्स को सामान बेचने से रोक दिया। हालिया मामला यह है कि झारखंड के जमशेदपुर के कदमा में एक फल की दुकान पर लिखा था, विश्व हिंदू परिषद द्वारा अनुमोदित दुकान। मुसलमानों की दुकानों का बहिष्कार और इस तरह की दुकानों को बढ़ावा दिया जा रहा है।

दिल्ली से सटे गुड़गांव के एक मस्जिद में गोलीबारी की गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 अप्रैल को 15 मिनट के लिए अपनी स्वेच्छा से लोगों को घरों की लाइट बंद करने की अपील की। यह पूरी तरह से स्वैच्छिक था, लेकिन हरियाणा में एक मुसलमान परिवार ने लाइट बंद नहीं की, तो उसके पड़ोसियों ने हमला बोल दिया। यह तो चंद उदाहरण हैं।

इससे पहले डॉक्टर कोरोना को लेकर पहले ही चेतावनी दे चुके हैं कि कोरोना महामारी से अधिक इसे लेकर सोशल स्टिग्मा अधिक लोगों की जान ले सकता है। यहां पहले से ही मुसलमानों के खिलाफ रोज नई बहस खड़ा करने की कोशिश की जाती है और ऐसे में जब कोरोना वायरस ने भारत में दस्तक दी, तो मुस्लिम पहले ही बैकफुट पर नजर आए।

कोरोना संकट, चीन का WHO और UN में वर्चस्व, अभी असली खेल बाक़ी है

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कोरोना वायरसको लेकर अमेरिका और चीन के बीच जुबानी जंग जारी है। इन दोनों के बीच एक तीसरा है, जो कोरोना वायरस को सही तरीके से कंट्रोल नहीं करने को लेकर सिर्फ अमेरिकी ही नहीं, बल्कि कई देशों के निशाने पर है। बहरहाल, अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने एक बार फिर विश्व स्वास्थ्य संगठन यानी डब्ल्यूएचओ को कठघरे में खड़ा किया है। ट्रंप ने इस पर चीन के लिए किसी पीआर एजेंसी की तरह काम करने का आरोप लगाया है। ट्रंप ने साफ कहा, 'मुझे लगता है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन को शर्म आनी चाहिए, क्योंकि वह चीन के लिए एक पीआर एजेंसी की तरह है।'
ट्रंप अपने बेतुके बयानों या फिर अजीबोगरीब दावों के लेकर भले विवादों में रहे हों, लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन को लेकर वह पूरी तरह न सही, तो काफी हद तक सही हैं। अब देखिए न कि कैसे चीन न सिर्फ विश्व स्वास्थ्य संगठन, बल्कि संयुक्त राष्ट्र जैसे वैश्विक संगठन को अपने हितों के लिए हाईजैक कर रहा है। आख़िर किस तरह चीन इन संगठनों में अपने पूर्व मंत्रियों और अधिकारियों को ऊंचे और प्रभावी पदों पर बिठाकर काम कर रहा है?चीन विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर संयुक्त राष्ट्र और इससे जुड़े संगठनों में लगभग हर बड़े और अहम ओहदों से अपने हितों को साधने वाले फैसले करा रहा है।

आप मौजूदा कोरोना संकट में भले इन वैश्विक संगठनों को लेकर ट्रंप की आलोचना कर सकते हैं, लेकिन चीन अपनी नीतियों में लगातार सफल होता जा रहा है। ज़रा सोचिए जिस चीन से कोरोना वायरस शुरू हुआ, वहां और अमेरिका में क्या हालात हैं। अमेरिका में अभी तक 11 लाख से ज्यादा केस आ चुके हैं, जबकि 65 हजार के पास लोगों की मौत हो चुकी है। चीन में लगभघ 83 हजार मामले और मौतें 4633 हुई हैं। इससे पहले अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध यानी ट्रेड वॉर चरम पर था, लेकिन एक झटके में कोरोना वायरस ने अमेरिकी महाशक्ति के अस्तित्व को ही हिला कर रख दिया।

अब आइए देखते हैं कि चीन विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र के जरिए कैसे अपनी विस्तारवादी और आधुनिक औपनिवेशिक शक्तियों का प्रसार कर रहा है। जो लोग संयुक्त राष्ट्र में चीन की बढ़ती सक्रियता को करीब से देख रहे हैं, उनके लिए डब्ल्यूएचओ का चीन के प्रति रवैया कोई आश्चर्य नहीं है। चीन ने पिछले कई वर्षों में संयुक्त राष्ट्र से जुड़े कई संगठनों के प्रमुख के रूप में अपने नागरिकों को नियुक्त किया या करवाया है। चीन के उप कृषि मंत्री 2019 के बाद से संयुक्त राष्ट्र केखाद्य और कृषि एजेंसी (UN Food and Agriculture)का नेतृत्व कर रहे हैं। इसके बाद चीन के डाक और दूरसंचार मंत्रालय में अपना करियर शुरू करने वाले झाओ हौलिन को संचार नेटवर्क के लिए तकनीकी मानकों को स्थापित करने वाले एक महत्वपूर्ण संगठन इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन के महासचिव के रूप में नियुक्त किया गया। झाओ ने ही अपने अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए 5जी के इक्विपमेंट को दुनिया भर में पहुंचाने के लिए हुवावे की मदद की।

पिछले साल संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुतारेस ने चीन के पूर्व विदेश उप मंत्री लियू झेनमिन को संयुक्त राष्ट्र के आर्थिक और सामाजिक मामलों के विभाग में अहम पद पर नियुक्त किया। यहां तक ​​कि यूएन की एजेंसी अंतरराष्ट्रीय नागरिक उड्डयन संगठनजो वैश्विक हवाई यात्रा को नियंत्रित करती है,इसके प्रमुख के भी तौर पर चीनी नागरिक फेंग लियू को बनाया गया है। लियू पर कोरोना वायरस मामले को लेकर ताइवान को लूप से बाहर रखने का आरोप लगाया गया है।

यूएन जैसे वैश्विक संगठनों में चीनी नागरिकों का प्रभुत्व दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था की ताकत और वर्चस्व को बतलाता है। हालांकि, यह भी एक हक़ीकत है कि पिछले कुछ वर्षों में खासकर ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका की ओर यूएन हो या डब्ल्यूएचओ काफी हद तक निष्क्रियता दिखी, जिसका बखूबी फायदा चीन ने उठाया। जैसा कि चीन ने अपने हितों के यूएन और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को रीटूलकरने की कोशिश की। चीन में अमेरिका में सशक्त नेतृत्व की कमी का भरपूर फायदा उठाने की कोशिश कर रहा है और वह इसमें सफल भी रहा है। अगर इसी संदर्भ में देखें, तो ट्रंप सरकार की ओर से डब्लूएचओ की फंडिंग रोकने और उसके बाद चीन की ओर से उसके फंड में अपनी हिस्सेदारी को बढ़ाने का फैसला, इसी का एक प्रमाण है। यानी अमेरिका का कमजोर नेतृत्व चीन के लिए वरदान साबित हुआ।

डॉक्टरों के काट रहे पैसे, पैदल चलते हुए मर जा रहे लोग...तो यह किसका सम्मान है साहेब?

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भारत मेंकोरोना वायरस के अभी तक (4 मई दोपहर 1 बजे तक) 42 हजार 533 मामले आ चुके हैं। 1373 लोगों की मौत हुई है। यही आधिकारिक आंकड़ा है। 30 अप्रैल को कोरोना से संक्रमितों की यह संख्या 32 हजार थी। उससे पहले 20 अप्रैल को 16 हजार यानी 30 अप्रैल को देश में कोरोना मरीजों की संख्या दो गुनी हो गई। अब चार दिन भी ठीक से नहीं हुए कि 10 हजार से अधिक केस और हो गए।
रविवार को सेना ने कोरोना वॉरियर्स के सम्मान में पुष्पवर्षा और फ्लाई पास्ट किया। कश्मीर से कन्याकुमारी और गुवाहाटी से अहमदाबाद तक। देश के प्रमुख शहरों के जिन अस्पतालों में कोविड-19 पीड़ितों का इलाज हो रहा है, वहां भी हेलिकॉप्टर से पुष्पवर्षा की गई। यह फैसला किसका था। स्वाभाविक रूप से सरकार का ही होगा। इस सरकार को कोरोना वॉरियर्स के सम्मान का बहुत ख्याल है, लेकिन इस कोरोना की वजह से सुरक्षा किट और बुनियादी जरूरतों की कमी से जूझ रहे डॉक्टरों और लोगों का ज़रा भी ध्यान नहीं। एक प्रेग्नेंट महिला लेबर पेन में बच्चे की डिलिवरी के लिए कश्मीर में 100 किलोमीटर तक पैदल चलती है। इसका ख्याल नहीं है। मणिपुर में अधिकांश डॉक्टर कोरोना मरीजों का इलाज काली पट्टी बांधकर कर रहे हैं, क्योंकि सरकार ने उनकी सैलरी में भत्ते को काटने का फैसला किया है। उन्हें मरीजों के इलाज के लिए बुनियादी सुरक्षा किट और मास्क नहीं मिल रहे हैं। डॉक्टर इस वैश्विक महामारी के समय सबसे अधिक काम कर रहे हैं, लेकिन क्या सरकार के इस कदम से उनका मनोबल बढ़ा होगा।
50 साल का एक शख्स महाराष्ट्र से अपने घर उत्तर प्रदेश जाने के लिए साइकल से निकलता है। तकरीबन 390 किलोमीटर तक साइकल चलाने के बाद वह मध्यप्रदेश पहुंचता है और वहीं दम तोड़ देता है। अभी उसे घर पहुंचने के 1600 किलोमीटर और साइकल चलानी थी। सरकार ने मजदूरों के लिए अब जाकर कुछ ट्रेनें चलाने का फैसला किया है, लेकिन मूल किराया पर 50 रुपये और जोड़कर ले रही है। तो क्या 50 साल के उस व्यक्ति की मौत के बाद उसके परिवार वाले खुद को सम्मानित महसूस कर रहे होंगेमध्य प्रदेश में फंसे महाराष्ट्र के सैकड़ों मजदूरों के पास खाने के लिए कुछ नहीं बचा और अब वे घर जाने के लिए प्रदर्शन कर रहे हैं, तो इन प्रदर्शनों से उनका सम्मान बढ़ा होगा?चंडीगढ़ की खबर है कि जीएमसीएच-32 में ड्यूटी दे रहे जूनियर रेजिडेंट को न तो पीपीई किट दिया जा रहा है और न ही एन-95 मास्क। अधिकारियों का कहना है कि पीपीई और एन-95 की पूरे देश में कमी चल रही है। थोड़ी परेशानी में काम करना होगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च को जब देश में पहली बार लॉकडाउन की घोषणा की थी, तो कुल कोरोना मरीजों की संख्या सिर्फ 496 थी। तब देश को बंद करने का फैसला किया गया। अब यह संख्या 42 हजार से भी ज्यादा हो चुकी है, तो ठीक उल्टा फैसला लिया जा रहा है। साफ संकेत हैं कि शुरू से ही सरकार के पास इस महामारी से लड़ने की न तो कोई योजना थी और न ही उसे कुछ सूझ रहा था। बस बीच-बीच में हेडिंग और मीडिया मैनेजमेंट की बदौलत वाहवाही लूटने के लिए बयानबाजी और भाषणबाजी की जाती रही। कभी ताली-थाली, तो कभी दीये जलाना तो कभी सेना के विमानों से पुष्पवर्षा। पुष्पवर्षा कर डॉक्टरों का सम्मान किया गया, लेकिन उन्हें पीपीई किट नहीं दिया जा रहा है। आख़िर यह कैसा और किसका सम्मान है। कोरोना वॉरियर्स का तो बिलकुल नहीं।

मध्य प्रदेश के इंदौर-उज्जैन सीमा पर 18 के आसपास मजदूर मिक्सर मशीन से घर जाते पुलिस की चपेट में आ जाते हैं। यह तो वाकई देश के लिए सम्मान की बात है। गुजरात के सूरत से इलाहाबाद तकरीबन 1300 किलोमीटर का सफर। गोद में सालभर या उससे भी छोटा बच्चा। एक हाथ में सूटकेस। तेज धूप और लू-हवा के बीच चलती एक महिला की तस्वीर तो वाकई सम्मान करने वाली ही तस्वीर होगी। दरअसल, हम सवाल नहीं करना चाहते। सवाल करना गुनाह हो गया है। जब जिम्मेदार लोगों से सवाल नहीं किए जाएंगे, तो किससे पूछा जाएगा कि इस अव्यवस्था के लिए जिम्मेदार कौन है?क्या विपक्ष जिम्मेदार है?क्या मुसलमान जिम्मेदार है? (जारी...) 

कोरोना संकट, इटली का सिसली वाया ‘द गॉडफादर’ डॉन विटो कॉर्लियोन

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इतालवी माफिया सेत्तिमो मिनेयो 
आपमें सेअधिकांश लोगों ने डॉन विटो कॉर्लियोन का नाम ज़रूर सुना होगा। नहीं, तो माइकल कॉर्लियोन का तो जरूर ही। अच्छा यह भी नहीं तो यूरोप का एक देश है, इटली। इसे जानते ही होंगे। ख़ैर चलिए... जो लोग डॉन विटो और माइकल कोर्लियोन को जानते हैं, उनके लिए तो ठीक है। लेकिन इटली के नाम से वाकिफ लोगों को बता दूं कि कॉर्लियोन सरनेम वैसा ही जैसे किसी शहर या कस्बे के नाम पर कुछ लोग अपना सरनेम रख लेते हैं। दक्षिणी इटली में स्थित एक शहर है सिसली। वही सिसली जहां के द गॉडफादर के डॉन विटो कॉर्लियोन रहने वाले थे। कॉर्लियोन भी दरअसल सिसली का एक नगर या कस्बा कह लीजिए। यहीं विटो एंडोलिनी का जन्म हुआ था, जो बाद में यहां से निकलकर अमेरिका के न्यू यॉर्क तक पहुंच गया और वहां माफिया की दुनिया की सबसे बड़ी सल्तनत कायम की। अपराध की दुनिया की इस सल्तनत को विटो कॉर्लियोन के छोटे बेटे माइकल कॉर्लियोन आगे बढ़ाया... तब से या उससे पहले से ही इटली का सिसली अपराध और माफिया का गढ़ माने जाने लगा। हालांकि, सिसली में माफिया के पांव मज़बूत होने के पीछे उसकी कमोबेश रॉबिनहुड छवि भी है। जैसा कि अमूमन होता है कि माफिया फैमिली अपने इलाके के लोगों को आर्थिक और कुछ अन्य तरीकों से मदद करती रहती है, जिससे लोगों के बीच उनके प्रति सहानुभूति होती है। लेकिन माफिया की यह मदद एक तरफा नहीं होती, उस मदद के बदले लोगों को एक भारी क़ीमत भी चुकानी पड़ती है।
ख़ैर, कहानी फिल्मी हो उससे पहले लौटते हैं अपने असल मुद्दे पर। हम सभी जानते हैं कि आज पूरी दुनिया कोरोना महामारी की गिरफ्त में है। दुनिया भर में ढाई लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है। मौतों का सिलसिला सबसे पहले तेजी से यूरोप के इटली में बढ़ना शुरू हुआ। जैसे-जैसे कोरोना का संकट यहां बढ़ता गया संगठित गैंग और माफिया ने अपने वर्चस्व का खेल भी शुरू कर दिया। माफिया यहां जरूरतमंदों के घरों तक खाना पहुंचा रहा है, तो लोगों को पैसे से मदद भी कर रहा है। लोगों को अच्छी तरह पता है कि माफिया की मदद लेना सही नहीं है। उन्हें इसकी भारी कीमत भी चुकानी पड़ सकती है। लेकिन, इटली में संकट बड़ा है। लाखों लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं। छोटे-मोटे काम करने वाले या भारत की तरह दिहाड़ी मजदूरी की तरह काम करने वालों का रोजगार पूरी तरह चौपट हो चुका है। उनके सामने भूखे मरने की नौबत तक आ चुकी है। ऐसे में उन्हें द गॉडफादरफिल्म के डायलॉग ‘I’m going to make him an offer he can’t refuse.’की तरह माफिया के ऑफर को ठुकरा नहीं सकते। एक तो लोगों की मजबूरी सबसे बड़ी और दूसरी तरफ मना किसे करना है, उसका जोखिम भी नहीं ले सकते।

सिसली में लोगों की मजबूरी का आलम यह है कि खुद कुख्यात माफिया फैमिली का एक सदस्य कहता है, लोग मुझे फोन करते हैं। वे फोन पर रोते हैं। मुझे कहते हैं कि उनके बच्चों के पास खाने के लिए कुछ भी नहीं है। एक महिला मुझे हर दिन बुलाती है। उसके पांच बच्चे हैं और उसे पता नहीं है कि बच्चों को कैसे खिलाना है?’

माफिया परिवार का यह सदस्य कहता है कि अगर ग़रीबों और जरूरतमंदों को खाना खिलाना माफिया कहलवाना है, तो उसे माफिया होने पर गर्व है। दरअसल, कोरोना वायरस तो नया है, लेकिन सिसली में जरूरतमंदों को खाने का पार्सल बांटना यहां की माफिया फैमिली की पुरानी रणनीति रही है।

सिसली की खुफिया एजेंसी और सरकारी मशीनरी में ऊंचे ओहदे पर काबिज निकोला ग्रेटरी कहते हैं कि माफिया का मकसद लोगों की बीच अपनी विश्वसनीयता और साख को हासिल करना है। माफिया खुद को यहां सरकार के विकल्प के रूप में पेश करता आया है और वह इस संकट में लोगों की मदद करके अपनी स्थिति और मजबूत करना चाहता है। वह चाहता है कि लोग सरकार की जगह उनकी ओर विकल्प के रूप में देखें। ऐसा हो भी रहा है, क्योंकि इन इलाकों तक सरकार की मदद पहुंच नहीं रहा है। इटली में पिछले कुछ वर्षों में बेरोजगारी दर काफी बढ़ी है। अर्थव्यवस्था की हालत पहले से डंवाडोल है और मौजूदा कोरोना संकट ने उसकी कमर तोड़ दी है। लॉकडाउन की वजह से लोग घरों में रहने को मजबूर हैं। ऐसे में उन्हें जो भी थोड़ी-बहुत कहीं से भी भले ही माफिया से मदद मिल रही है, वे ले रहे हैं। हालांकि, एंटी माफिया संगठन के लिए काम करने वाले एक शख्स का कहना है,यह बात लोगों को भी पता है कि खतरनाक है। उन्हें मालूम है कि यह कुछ वैसा ही है कि अगर तुम मेरी पीठ खुजलाते हो तो मैं तुम्हारी खुजलाऊंगा। यानी मदद एक तरफा नहीं है।

वह बतलाते हैं कि शुरू में तो माफिया इन छोटी-छोटी मदद के बदले कुछ नहीं मांगते हैं। लेकिन सभी को किसी-न-किसी रूप में इसकी कीमत चुकानी ही पड़ती है। उदाहरण के तौर पर, सिसली के पालेर्मो में रहने वाले एक व्यक्ति मार्सेलो को अपना रेस्तरां बंद करना था। उसे माफिया से ऑफऱ मिला, जिसे वह इनकार नहीं कर सका। कुछ पैसे उसके अकाउंट में डाले गए और कुछ कैश में दिए गए। मार्सेलो बताते हैं कि बाद यही माफिया आपसे वसूली भी करते हैं।

इसका एक उदाहरण यह भी है कि जब स्थानीय चुनाव होते हैं, तो माफिया फैमिली के लोग उन लोगों के पास जाते हैं, जिनकी उन्होंने मदद की होती है। फिर उनके बीच बातचीत कुछ इस तरह शुरू होती है, क्या मैं तुम्हे याद हूं?जब तुम्हें जरूरत थी तो मैंने तुम्हारी मदद की थी। और अब मुझे तुम्हारी मदद की जरूरत है।फिर वे अपने उम्मीदवार के पक्ष में वोट डालने का दबाव बनाते हैं, जिसे लोग मना नहीं कर सकते। मार्सेलो बताते हैं कि सिसली में माफिया सरकार से कई गुना अधिक प्रभावशाली है। संकट के समय में वह हमेशा लोगों की मदद के लिए पैसे के दरवाजे खोल देता है। सरकार कहीं पीछे छूट जाती है या जब तक सरकार की मदद पहुंचती है, उसका कोई मतलब नहीं रह जाता है।

कुछ इस तरह इटली में माफिया सरकार की नाकामी का फायदा अपना वर्चस्व मजबूत करने में अपनी रॉबिनहुड छवि को भुना रहा है।

कोरोना वायरसः जो 102 साल पहले की गलतियों को दोहराए उसका नाम अमेरिका है...

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Photo: Internet
अमेरिका मेंपिछले 24घंटे में कोरोना वायरस की वजह से 2350लोगों की मौत हुई है। लगभग 24हजार संक्रमण के मामले आए हैं। इसे कहते हैं सिर मुड़ाते ही ओले गिरना। अमेरिका में लॉकडाउन और पाबंदियों के खिलाफ प्रदर्शन चल रहा है। राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप भी अमेरिका के 50में से 40राज्यों में स्कूल खोलने के पक्ष में हैं, जबकि 35से अधिक राज्य अर्थव्यवस्था को खोलने की योजना पेश कर चुके हैं। लेकिन जिस तरह कोरोना से मौतों का सिलसिला अमेरिका में बढ़ता जा रहा है, उससे लगता नहीं है कि इसने इतिहास से कुछ सबक सीखा है। पूरी दुनिया में कोरोना महामारी से 2लाख 58हजार से ज्यादा की मौत हो चुकी है, जबकि इनमें से अकेले अमेरिका में ही 72हजार से ज्यादा की जान गई है। फिर भी लगता है इसने 1918के स्पेनिश फ्लू महामारी से लॉकडाउन जल्दी हटाने के खतरों से कुछ सीखा नहीं है। 1918में स्पेनिश फ्लू महामारी के दौरान जब अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को राज्य ने सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों में छूट दी, तो अचानक संक्रमण के मामले चरम पर पहुंच गए। महामारी का दूसरा दौर लौटकर आया, जो अमेरिकी इतिहास में विनाशकारी साबित हुआ। तब सैन फ्रांसिस्को ने स्पैनिश फ़्लू से जंग में ठीक वही गलती की, जो आज कई अमेरिकी राज्य कर रहे हैं।
तकरीबन 100साल पहले सैन फ्रांसिस्को में हर किसी को फेस मास्क पहनने का आदेश दिया गया था, लेकिन आज अमेरिकी राष्ट्रपति और उप-राष्ट्रपति ही इन नियमों की धज्जियां उड़ाते नजर आते हैं। स्पेनिश फ्लू के संक्रमण के बीच सार्वजनिक समारोहों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इन पाबंदियों ने असर दिखाना शुरू किया और नए मामलों की संख्या में हफ्ते भर में भारी गिरावट दिखनी शुरू हो गई। लेकिन, कोरोना वायरस के खिलाफ मौजूदा जंग में अमेरिका में संक्रमण की रफ्तार हल्की धीमी होने के बाद नेताओं ने सार्वजनिक समारोहों और आयोजनों पर से पाबंदी हटा ली। महज महीने भर के बाद ही बताने लगे कि अब मास्क पहनना जरूरी नहीं है। हालांकि, बाद में यह गलती सुधारी गई। लेकिन तब तक देर हो चुकी थी, कोरोना वायरस ने कहर बरपाना शुरू कर दिया और अब एक आकलन है कि मई के आखिरी सप्ताह के बाद से हर दिन लगभग दो लाख कोरोना वायरस के मामले आएंगे और रोजोना 3000अमेरिकियों की जान इस वायरस की भेंट चढ़ने वाले हैं। ऐसे में वैज्ञानिक सलाह दे रहे हैं कि अमेरिका को 100साल पहले की गलतियों के साथ मौजूदा गलतियों को भी सुधारने की जरूरत है। उसे हड़बड़ी में लॉकडाउन खत्म करने से पहले 100बार सोचने की जरूरत है।

आइए जानते हैं कि 1918में कैसे स्पेनिश फ्लू गिरफ्त में अमेरिका फंसा और आज वह उन्हीं गलतियों को दोहरा रहा है। 1918में पहले विश्वयुद्ध के खत्म होने के बाद अमेरिकी सैनिक अपने देश लौट रहे थे। इसी दौरान सैनिकों का एक जत्था सितंबर 1918में सैन फ्रांसिस्को पहुंचा और अपने साथ यह घातक महामारी भी लेते आए। जब अधिकारियों को इसका पता चला, तो उन्होंने 18अक्टूबर को 'सार्वजनिक मनोरंजन के सभी स्थानों'को बंद करने का आदेश दिया। लेकिन फ्लू के मामले बढ़ रहे थे और 21अक्टूबर 1918तक लोगों को आदेश दिया गया कि वे सार्वजनिक जगहों पर फेस मास्क पहनकर निकलें या फिर जेल जाने के लिए तैयार रहें। बिना मास्क के पकड़े जाने पर जेल के अलावा उन पर भारी जुर्माना भी लगाया जाता था। नवंबर की शुरुआत में पूर सैन फ्रांसिस्को में स्पेनिश फ्लू के 20,000मामले आ चुके थे और लगभग 1,000की मौत हो चुकी थी। लेकिन अक्टूबर की तुलना में संक्रमण की संख्या में तेजी से कमी आने लगी थी। इस वजह से राज्य में सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क की अनिवार्यता सहित सभी प्रतिबंधों को हटा दिया गया।

लोग गलियों में जश्न मनाने लगे, सिनेमाघरों और स्टेडियमों में भारी संख्या में भीड़ जुटने लगी। ऐसा लगा कि अब स्पेनिश महामारी पूरी तरह नियंत्रण में चुकी है। लेकिन लगभग 15दिनों के बाद ही भयंकर आपदा आ गई और फिर से फ्लू का संक्रमण व्यापक स्तर पर तेजी से फैलने लगा। अब सरकार में बैठे लोगों के बीच एक-दूसरे को कसूरवार ठहराने का दौर शुरू हो गया। कहा जाने लगा कि महामारी के दोबारा शुरू होने की वजह पहले लगाई गई तमाम पाबंदियों को जल्दबाजी में हटाना है।

1जनवरी 1919के बाद एक दिन में लगभग 600नए मामले आए थे और शहर में फिर से महामारी को रोकने की कोशिश शुरू की गई। अधिकारियों ने पहले की लगाई गई पाबंदियों को फिर से लागू कर दिया। यानी सोशल डिस्टेंसिंग को लागू कर दिया गया। फिर से बिना फेस मास्क पहने बाहर नहीं निकल सकते थे। पार्कों, स्कूलों, थिएटर, स्टेडियम, औद्योगिक संस्थानों सभी को बंद कर दिया गया। लेकिन इस बार इन नियमों को पालन कराना पहले की तरह आसान नहीं था। जैसे आज अमेरिका में घरों में रहनेके आदेश के खिलाफ लगभग सभी राज्यों में लोग सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे है, तब लोगों ने मास्क लगाने के फैसले के खिलाफ 'एंटी-मास्क लीग'  बना लिया। जिस तरह आज ट्रंप प्रदर्शनकारियों के साथ नजर आते हैं, भले ही उनकी राजनीतिक और चुनावी मजबूरी हो, तब भी जनता के दबाव के कारण मास्क की अनिवार्यता को खत्म कर दिया गया। लेकिन इसका नतीजा यह निकला कि अकेले सैन फ्रांसिस्को में स्पेनिश फ्लू के 45,000से अधिक मामले आए। यह पहले लागू किए गए लॉकडाउन की तुलना में दोगुना से भी अधिक संख्या थी।

आज अमेरिका ठीक उन्हीं गलतियों को दोहरा रहा है, जो उसने 102 साल पहले की थी। आज पूरे अमेरिका में 72 हजार से अधिक लोगों की कोरोना वायरस महामारी से मौत हो चुकी है, लेकिन पाबंदियों में ढील को लेकर अमेरिकियों और राष्ट्रपति ट्रंप की जिद लाखों अमेरिकियों की जान ले सकती है। हालांकि, ट्रंप तो पहले ही कह चुके हैं कि अगर मौतों की संख्या को एक से दो लाख के बीच रख पाएं, तो यह उनकी सबसे बड़ी सफलता होगी, जो फिलहाल असफलता की ओर ही बढ़ती जा रही है।

प्रधानमंत्री जी कह दीजिए मैं झूठ नहीं बोलता, क्योंकि आपके वादे चीख-चीखकर झूठ की गवाही दे रहे हैं

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-    इस देश की जो सुविधाएं अमीरों को प्राप्त हैं,वह मेरे देश के गरीबों को भी मिलनी चाहिए।
जो सामान्य व्यक्ति हवाई चप्पल पहनकर घूमता है, वह मुझे हवाई जहाज में दिखाना है। 
यह दोनों ही बयान इसी देश के प्रधानमंत्री के हैं। या तो ये दोनों ही बयान झूठे हैं या प्रधानमंत्री झूठे हैं। अगर ऐसा भी नहीं है, तो उनके सारे दावे कागज़ी हैं और बातें बेमानी हैं। इस देश में लॉकडाउन है। बसें बंद हैं। ट्रेन बंद है और बंद है सारा मुल्क। अगर नहीं बंद है, तो देश के हुक्मरानों के झूठे दावे, झूठा वादा और दिलासा।

आज सुबह जब आंख खुली, तो खबर 17 मजदूरों के ट्रेन से कटकर होने वाली मौत की थी। प्रधानमंत्री का ट्वीट था, जिसमें उनका दुख था, लेकिन नहीं था तो मजदूरों का दर्द समझने वाला दिल।जिन मजदूरों की जांन गई, वे कौन थे?अपने घर ही तो जा रहे थे... ट्रेन की पटरियों पर लेटे थे कि ट्रेन आई और रौंदती हुई चली गई। पटरियों पर बिखरी सूखी रोटियां बता रही हैं कि आख़िर भूख ने किस कदर परेशान किया होगा?किन हालातों में अपने घरों के लिए निकले होंगे...

लॉकडाउन से प्रवासी मज़दूरों से सबसे ख़राब स्थिति मजदूरों की है। न काम है और न ही रहने को छत। फिर किस मुंह से किस सरकार के भरोसे शहरों में रुके रहें। 45 दिनों से देश बंद है और बंद हैं हुक्मरानों के दिल और दिमाग। वे नहीं समझना चाहते इनका दुख और दर्द। कोई 100 किलोमीटर पैदल चला जा रहा है, तो कोई साइकल से भागा जा रहा है। पुलिस लाठियां भांज रही हैं। प्रेग्नेंट महिलाएं हाईवे से सफर ऐसे तय कर रही हों, जैसे चंद मिनट में रफ्तार उन्हें हजारों मील दूर घर पहुंचा देगी। लेकिन, यह कोई बस नहीं है और न ही सेना के जहाज, जो विदेशों से अमीरों को लाने के लिए उड़ानें भर चुकी हैं। यहां पैदल जाना है, रास्ते में भूख को पेट दबाकर मार देना है।
चलते-चलते थक गए...टांगों में दर्द हो रहा है... जब 5-7 की बच्ची... 7-8 साल का बच्चा... अपने मां-बाप के साथ सड़कों पर यूं ही पैदल निकल पड़े हैं कि आख़िर कभी तो उस घर को पहुंचेंगे, जहां कोई अपना होगा...इस शहर की अमीरी और सरकारों की बेरहम नीतियों, झूठ से दूर कोई अपना तो होगा। 
आख़िर कौन हैं ये लोग...क्या ये सभी वही हैं, जिसके लिए देश के प्रधानमंत्री कहते हैं, ‘’इस देश की जो सुविधाएं अमीरों को प्राप्त वह मेरे देश के गरीबों को भी मिलनी चाहिए’’... क्या ऐसा हो रहा है... उन्हीं की पार्टी का एक मुख्यमंत्री प्रवासी मजदूरों को अपने घर जाने से सिर्फ इसलिए रोकता है कि उस राज्य के बिल्डर (अमीरों) कहते हैं कि मजदूर चले गए तो हमारा काम कौन करेगा...फिर इतनी ही चिंता है, तो मजदूरों का 45 दिनों से ख्याल क्यों नहीं रखा... बेंगलुरु में मजदूर जब कहता है, हम इन हालातों में रहने की जगह अपने घर पर मरना पसंद करेंगे...कर्नाटक के मुख्यमंत्री मजदूरों और फंसे लोगों को ले जाने वाली ट्रेन कैंसिल करने का फैसला करते हैं, तो देश के प्रधानमंत्री का ट्विटर जवाब दे जाता है...प्रवासी मजदूर अपने राज्यों/घरों को जाने के लिए गुजरात के सूरत में प्रदर्शन करते हैं, तो प्रधानमंत्री के ट्वीट से देश के इन गरीबों के लिए एक ट्वीट नहीं निकलता...एक शब्द खर्च नहीं होता।

आख़िर जवाब भी चाहिए, तो बस ट्विटर पर ही क्यों? क्या सरकार ट्विटर के भरोसे चल रही है?अगर चल ही रही है, तो फिर ऐसी तमाम ख़बरों से हुजूर नावाकिफ तो नहीं ही होंगे कि सात महीने के गर्भवती महिला लगातार 12 घंटे चले जा रही है...न पैसा है और न ही खाना...न सरकार-प्रशासन से कोई मदद। घर कब पहुंचेंगे,इसका भीकोई अंदाज़ा नहीं। लेकिन, प्रधानमंत्री का पुराना भाषण याद कीजिए...मैं चाहता हूं कि इस देश की जो सुविधाएं अमीरों को प्राप्त वह मेरे देश के गरीबों को भी मिलनी चाहिए।क्या यही सुविधाएं देश के गरीबों को मिल रही हैं?

प्रधानमंत्री की पार्टी के सहयोग से बिहार में सत्ता पर काबिज मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री की पार्टी का उप-मुख्यमंत्री जबरन 222 मजदूरों को वापस भेज देता है, ताकि दूसरे राज्यों में श्रमिकों की कमी न हो...जब दूसरें राज्यों से मजदूरों को अपने गृह राज्य (बिहार) लाने की बात होती है, तो कभी ट्रेन की कमी, कभी बस की कमी, तो कभी पैसे की कमी का रोना रोती है सरकार...लेकिन लौट चुके लोगों को वापस भेजने वाली सरकार का मुखिया कैसा है?इस पर उप-मुख्यमंत्री अखबारों में इश्तिहार देकर ढिंढोरा पीटता है कि दूसरे राज्यों को बिहार की श्रम शक्ति का एहसास हुआ... कैसी सोच है यह?कतई ही गिरी हुई मानसिकता और उससे भी बदतर कही जाएगी। लेकिन इससे किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता।

जब प्रधानमंत्री लॉकडाउन का सख्ती से पालन करने की बात कहते हैं, तो उन्हीं की पार्टी का मुख्यमंत्री (उत्तर प्रदेश) सरेआम उनकी बातों और नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए बसों को दूसरे राज्य में भेजते हैं, ताकि फंसे हुए लोगों को अपने राज्य ला सकें...दूसरे राज्य का मुख्यमंत्री बंगले झांकता रहता है कि मुझे तो प्रधानमंत्री की बातों का पालन करना है....केंद्र सरकार के नियमों का हवाला देकर वह दूसरे राज्यों से अपने लोगों को न बुलाने को लेकर अपनी मजबूरी जाहिर कर देता है...

 

अगर इन हताश प्रवासी मजदूरों की पीड़ा प्रधानमंत्री की आत्मा को नहीं झकझोर पा रही है, तो आख़िर क्या बचता है?सऊदी अरब से लोगों को लाने के लिए पांच उड़ानें...इन मजदूरों के नसीब में हाईवे पर पैदल चलने की मजबूरी है, क्योंकि प्रधानमंत्री चाहते हैं किइस देश की जो सुविधाएं अमीरों को प्राप्त वह मेरे देश के गरीबों को भी मिलनी चाहिए। क्या यही वे सुविधाएं हैं, जो अमीरों को मिल रही है?
बाक़ी जगहों को छोड़ दीजिए देश के दिल दिल्ली में जहां, प्रधानमंत्री निवास के 10 किलोमीटर के दायरे यानी आईटीओ से मजदूरों का एक जत्था पैदल ही बिहार के भागलपुर जाने के लिए 1000 किलोमीटर से अधिक दूर के सफर पर निकल पड़ता है। लेकिन प्रधानमंत्री का ट्विटर शांत रहता है... एक शब्द या एक बार भी मुंह से नहीं निकलता कि मेरे देश के गरीबों मत जाओ...मैं तुम्हारे लिए हर वह इंतजाम करूंगा, जो इस देश के अमीरों को मिल रहा है...

कहां तो वंदे भारत मिशन के तहत एयर इंडिया की फ्लाइट से सिर्फ एक व्यक्ति को लेकर सिंगापुर के लिए उड़ान भरता है, लेकिन लाखों बेबस प्रवासी मजदूरों के लिए चलती भी है, तो क्या...वह ट्रेन जो 40 दिनों बाद चलाने का फैसला लिया गया। वह ट्रेन जिससे जाने पर किराया खुद उन मजबूरों को देना है, जिनकी नौकरी छीन गई है।

ग़रीब तो ग़रीब है, उसे अमीरों की ऐशो-आराम नहीं बस सम्मान की जिंदगी ही दे दीजिए प्रधानमंत्री जी। बस इतनी ही गुजारिश है आप से...देश में हर जगह त्राहिमाम है, कोरोना का संकट बड़ा है, लेकिन इस संकट की आड़ में अव्यवस्था, अराजकता और अनैतिकता बढ़ रही है।

कोरोना संकट में भी गेस्ट टीचरों का हक छिनती सरकार, केजरीवाल-भाजपा सब मिले हुए हैं

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टीचर यानी शिक्षक। दिल्ली सरकार के स्कूलों में सबसे ज्यादा ढिंढोरा स्कूलों की सफलता का ही पीटा गया है। लेकिन आप जानते हैं कि किस कीमत पर यहकिया गया?शिक्षकों के शोषण और अब उनकी जान की कीमत पर...
10 मई को एक ख़बर आई। ख़बर यह थी कि रोहिणी में पति-पत्नी की कोरोना वायरस से मौत हो गई। पहले पति की जान गई, उसके बाद पत्नी की। महिला दिल्ली सरकार के स्कूल में कॉन्ट्रैक्ट टीचर थी। इस लॉकडाउन में भी स्कूलों में जरूरतमंदों को राशन बांटने की ड्यूटी सरकार की तरफ से लगाई गई थी। आख़िर सरकार की लापरवाही की क़ीमत उस महिला को चुकानी पड़ी। क्या सरकार को यह अंदाज़ा नहीं था कि ऐसे में ड्यूटी लगाना खतरनाक हो सकता है। एक तरफ नौकरी पक्की नहीं और कॉन्ट्रैक्ट/गेस्ट टीचर से काम भरपूर लेने के मामले में दिल्ली की सरकार सबसे अव्वल है और उस पर वाहवाही बंटोरने में भी आगे। लेकिन ये कॉन्ट्रैक्ट/गेस्ट टीचर अपनी जान दांव पर लगाकर काम कर रहे या करते हैं, फिर भी उनकी जिंदगी को स्थायित्व देने की एक छोटी-सी पहल भी नहीं की जाती है।

अब पूरा मामला यह भी देख लीजिए। देश भर में लॉकडाउन है, तो दिल्ली में भी है। दिल्ली तो सबसे ख़तरनाक रेड जोन में है। कंपनियां बंद हैं। दुकानें बंद हैं। जिन लोगों के पास स्थायी रोजगार नहीं हैं, उनके आय का साधन भी बंद है। ऐसे में उनके घरों का राशन और तमाम खर्चों का इंतजाम भी बंद हैं। इसी में दिल्ली सरकार ने एक नोटिस जारी कर स्कूलों में कॉन्ट्रैक्ट/गेस्ट टीचरों का कॉन्ट्रैक्ट भी खत्म कर दिया।
PM Modi, DElhi CM Kejriwal and Sisodia. Pic: Internet
दरअसल, दिल्ली के सरकारी स्कूलों में गर्मियों की छुट्टियां शुरू होने के साथ ही इन स्कूलों में पढ़ाने वाले गेस्ट टीचर का लॉकडाउन जैसे महासंकट में आय का जरिया भी बंद हो गया है। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के मुताबिक, दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग ने 5 मई को एक आदेश जारी किया। आदेश में कहा गया, सभी गेस्ट टीचर का भुगतान सिर्फ 8 मई 2020 तक और गर्मियों की छुट्टियों में अगर उन्हें ड्यूटी के लिए बुलाया जाता है, तो उसके पैसे दिए जाएंगे।पिछले सप्ताह शिक्षा विभाग ने स्कूलों में 11 मई से 30 जून तक के लिए गर्मियों की छुट्टियों की घोषणा की थी। यानी इस अवधि में गेस्ट टीचरों को एक भी पैसा/सैलरी नहीं मिलने वाली है, क्योंकि उन्हें एक तरह से दिहाड़ी मजदूरों की ही तरह सरकार भुगतान करती है। इसे कुछ इस तरह समझिए कि जिस तरह दिहाड़ी मजदूर काम पर जिस दिन जाता है, उसे सिर्फ उसी दिन के पैसे मिलते हैं। अगर वह किसी दिन छुट्टी करता है, तो उस दिन के पैसे कट जाते हैं। जबकि कोई परमानेंट नौकरी वाले व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं होता। उसे ली गई छुट्टियों के बदले भी पैसे मिलते हैं। गेस्ट टीचर के साथ तो दिहाड़ी मजदूरों से भी बुरा हाल है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दिन-रात खुद को खपा देने वाले गेस्ट टीचर को नैशनल होलीडे यानी गांधी जयंती, बुद्ध पूर्णिमा जैसे सरकारी छुट्टियों के पैसे भी कटते हैं।
ख़ैर लौटतें हैं असल मुद्दे पर। एक अनुमान के मुताबिक, दिल्ली के सरकारी स्कूलों में लगभग 20 हजार गेस्ट टीचर हैं।कोरोना वायरस महामारी यानी कोविड-19की वजह से एहतियातन मार्च में दिल्ली के स्कूलों को बंद कर दिया गया था। इस दौरान गेस्ट टीचर परमानेंट शिक्षकों की ही तरह घर से काम करते रहे। गेस्ट टीचर स्कूल के एडमिनिस्ट्रेटिव काम के अलावा ऑनलाइन क्लास भी लेते रहे। यहां तक कि कुछ गेस्ट टीचरों को कोविड-19 से प्रभावितों को राहत का सामान बांटने के लिए कई राहत केंद्रों और स्कूलों में ड्यूटी सौंपी गई। हर साल की तरह इस साल भी गर्मियों की छुट्टियां घोषित की गईं। लेकिन एक अंतर है। कोविड-19 से पहले हर साल गर्मियों की छुट्टियों में भी स्कूल पूरी तरह बंद नहीं होते थे। मिशन बुनियाद और एक्स्ट्रा क्लासेज के लिए समर कैंप होते थे। इनमें लगभग 70प्रतिशत गेस्ट टीचरों को ड्यूटी के लिए बुलाया जाता था। इस साल हालात बिलकुल अलग हैं। सभी गेस्ट टीचरों को घरों पर रहने की मजबूरी है और इस दौरान उनकी आय का जरिया भी बंद होगा। कई गेस्ट टीचर यूपी, हरियाणा, राजस्थान, एमपी और उत्तराखंड से हैं और दिल्ली में किराए पर रहते हैं। अब वे लॉकडाउन के दौरान खुद बेबस और लाचार महसूस कर रहे हैं, क्योंकि जब न आय होगी तो भला कैसे कमरे का किराया चुकाएंगे। कैसे उनका जीवन चलेगा।
दिल्ली सरकार इनके लिए कुछ कर सकती थी। एक तरफ सरकार कह रही है कि इस लॉकडाउन और कोविड-19 संकट में कोई किसी को नौकरी से न निकालें। कोई किसी की सैलरी न काटे, लेकिन सरकार खुद गेस्ट टीचर के साथ एक क्रूर तानाशाह की तरह पेश आ रही है। दिल्ली के गेस्ट टीचरों के साथ सरकार का रवैया कुछ ऐसा है कि लॉकडाउन और कोविड-19 में गेस्ट टीचरों के सामने आर्थिक तंगी जैसे हालात हैं और उधर सरकारनुमा तानाशाह बीन बजा रहा है।
Delhi BJP Chief Manoj Tiwari. Pic: Internet
दरअसल, यह चुनाव का वक्त नहीं है। अगर होता तो हर पार्टी का नेता इनकी बातें कर रहा होता। दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का ड्रामा याद ही होगा आप लोगों को... किस तरह एलजी को ड्राफ्ट भेजा, फिर एलजी ने बोला हमें मिला नहीं...वहीं, दिल्ली भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष मनोज तिवारी तो चुनावों के दौरान गेस्ट टीचरों के हक़ में हाईकोर्ट में पार्टी फंड से केस लड़ने की बात तक कही थी। हालांकि, बकौल इंडियन एक्सप्रेस- मनोज तिवारी ने दिल्ली के एलजी को पिछले सप्ताह एक चिट्ठी लिखी थी। उन्होंने चिट्ठी में कहा कि केंद्र सरकार और श्रम मंत्रालय पहले ही आदेश जारी कर चुका है कि इस महामारी के दौरान किसी की सैलरी कटौती नहीं की जानी चाहिए। 
तिवारी ने लिखा, “केंद्र सरकार के इन निर्देशों को ध्यान में रखते हुए इस मुश्किल घड़ी में जब तक स्कूल खुल नहीं जाते, तब तक गेस्ट टीचरों को सैलरी दी जानी चाहिए, ताकि वे अपने परिवार का ध्यान रख सकें।लेकिन अभी तक ऐसा कुछ नहीं दिख रहा है। जहां तक मुझे पता चला है कि 11 मई से गेस्ट टीचरों की सेवा खत्म करने के बाद भी कई स्कूलों के प्रिंसिपल गेस्ट टीचरों से बेगारी का काम लेना चाहते/चाहती हैं। उन्हें कई प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी दी गई है, लेकिन जब उनका कॉन्ट्रैक्ट ही नहीं है, तो फिर स्कूलों के प्रिंसिपल इस तरह का काम कैसे ले सकते हैं?यह है तनाशाही रवैया। लेकिन दिल्ली सरकार को तो बस मतलब है तो खुद की पीठ खुजाने और थपथपाने से।

मजदूरों का पलायनः आख़िर भागने की चुल काहे मची है इनको? कभी घर से तो कभी घर को भागना...

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12 मई कीघटना है। 35 साल के रंजन यादव पिछले तीन दिनों से सड़कों पर ऑटो भगा रहे थे। उस ऑटो को जिसे उन्होंने महज छह महीने पहले ही खरीदा था। 12 मई तक उन्होंने मुंबई से अपने घर पहुंचने के लिए करीब 1500 किलोमीटर की दूरी भी तय कर ली थी। घर अब बस 200 किलोमीटर के फासले पर रह गया था, तो ऑटो की स्पीड थोड़ी बढ़ा दी। तभी एक ट्रक से ऑटो जा टकराई। इस हादसे में रंजन की पत्नी और 6 साल की बेटी की मौत हो गई। रंजन यादव कहते हैं, कहां तो 1500 किलोमीटर की दूरी तय कर ली थी, सोचा था लॉकडाउन में अपने परिवार के साथ घर पर रहूंगा। लेकिन अब अपनी पत्नी और बेटी का शव लेकर घर जा रहा हूं।
आपको क्या लगता है?अगर सरकार सोच-समझकर लॉकडाउन लगाती। मजदूरों और रंजन यादव जैसे लोगों को घर पहुंचाने का इंतजाम करती, तो यह हादसा रुक नहीं सकता था। तब रंजन अपनी हंसती-खेलती 6 साल की बेटी और पत्नी के साथ घर पर खुशहाल जिंदगी जी रहे होते। लेकिन, सरकार की नासमझी और ऑटो चलाकर अपना जीवन गुजर बसर करने वाले रंजन की तो दुनिया ही बर्बाद हो गई। आख़िर कौन है इसका जिम्मेदार?

12 मई की ही घटना है। बिहार के बांका जिले के रहने वाले सुदर्शन दास दिल्ली के नांगलोई से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के लिए था, ताकि ट्रेन पकड़ सकें। लेकिन रास्ते में किसी ने उनके टिकट और दो जोड़ी कपड़ों से भरा भाग साफ कर दिया। जब स्टेशन पहुंचे तो आंखों में आंसू और चेहरे पर मजबूरी थी। वह बताते हैं, मेरी पत्नी प्रेग्नेंट है। 9 महीने हो चुके हैं और कभी डिलिवरी हो सकती है। मैं यहां था, ताकि कुछ पैसे कमा सकूं और बच्चे के जन्म के समय घर पहुंच सकूं।

Photo: Internet
सुदर्शनदास जैसे लोग आखिर क्यों घर जाना चाहते हैं?क्या दिल्ली में रहने के लिए उन्हें खाना नहीं मिल रहा है। मेरे एक साथी ने पूछा कि आखिर ये लोग पैदल भागे क्यों जा रहे हैं?कभी घर से भागकर नौकरी के लिए आते हैं, तो कभी यहां से घर के लिए। उन्होंने बोला, इतनी भी भागने की चुल काहे मची है इनको। कभी घर से भागेंगे तो कभी घर को भागना।सुदर्शन दास जैसे लोगों के पास है क्या उनके इस सवाल का जवाब।
रोहित कुमार को गुड़गांव से उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुरी अपने घर जाना है। वह बताते हैं कि कुछ महीने पहले ही घर से आया था। जहां काम करता हूं, वहां कॉन्ट्रैक्टर ने बोला कि अब काम बंद है, तो सैलरी नहीं दे सकता। दो महीने तक इंतजार के बाद सारे पैसे खत्म हो गए। आखिर कब तक यह चलेगा किसी को पता नहीं। कभी खाना मिल पाता है, तो कभी नहीं। आखिर हम अपने घर जाएं, नहीं तो क्या करें?यहां किसके भरोसे रहें?

यह खबर हरियाणा की है। गुड़गांव में एक शख्स और उसके बेटे ने मणिपुर के इंफाल की रहने वाली 19 साल की लड़की की पिटाई कर दी। बाप-बेटे का आरोप था कि वह लड़की कोरोना वायरस फैला रही थी। मतलब कुछ भी और किसी भी तरह का आरोप लगाकर लोगों की पिटाई शुरू है। कुछ दिनों पहले तबलीगी जमात की आड़ में मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा था और अब सहूलियत के हिसाब से लोग अपना एजेंडा और खुन्नस निकालने के लिए किसी को भी टारगेट बना ले रहे हैं।

अपने घरों को लौट रहे इन तमाम लोगों पर मेरे कुछ दोस्तों और राष्ट्रवाद की अलख जगा रहे लोगों को सवाल कई हैं। पिछले दिनों ही मेरे मित्रों कुछ सवाल उठाए कि देश स्पेशल ट्रेनें चलने के बाद दिल्ली ने 41, महाराष्ट्र ने 36, गुजरात ने 33 कोरोना पॉजिटिव बिहार भेजे हैं। अन्य राज्य भी भागीदार हैं. ये तो रैंडमली टेस्ट के नतीजे हैं। मेरे इन्हीं मित्र को फिक्र होती है कि आखिर ये लोग भागे क्यों जा रहे हैं?कभी घर से भागकर नौकरी के लिए आते हैं, तो कभी यहां से घर के लिए।

लेकिन यही मित्र भूल जाते हैं कि जब वंदे भारत मिशनके तहत 12 मई को विदेशों से 351 लोग तमिलनाडु पहुंचे और उनमें से कई कोरोना पॉजिटिव पाए जाते हैं, तो उन पर सवाल उठाने के बजाय उनकी अंगुली टेढ़ी हो कर मुसलमानों की तरफ घूम जाती है। यह तो साफ बात है कि कोरोना वायरस हिंदुस्तान में पैदा नहीं हुआ। यहां बीमारी विदेशों से आने वाले लोगों ने फैलाई है। लेकिन विदेशों से आने वाले उन लोगों के लिए हमारे यही मित्र भागने जैसा कोई शब्द इस्तेमाल नहीं करते, क्योंकि उनकी नजरों में विदेशों से जो भारतीय आ रहे हैं, वे वहां फंसे हुए थे। लेकिन हिंदुस्तान के अलग-अलग हिस्सों में जो मजदूर फंसे हैं और अगर वे अपने-अपने गृह राज्यों को लौटना चाह रहे हैं, तो उनके हिसाब से यह लौटना नहीं, बल्कि भागना है। गजब की थ्योरी लाई है राष्ट्रवादी और छद्म दक्षिणपंथी विचारकों ने।

हम अपने घर से भेजे गए पैसों से अपना खाना-पानी चला रहे हैं। हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। हमें तो यह भी पता नहीं है कि हम जिंदा घर लौटेंगे भी या नहीं।पंजाब के फगवाड़ा से अपने घर बिहार के भोजपुर जिले के लिए निकले 21 साल के ब्रिज किशोर का यह कहना है। करीब 1500 किलोमीटर का सफर है, जबकि 150ल किलोमीटर की दूरी वह साइकल से नाप चुके हैं। ब्रिज किशोर बताते हैं, मैं पंजाब के अमृतसर के एख मील में काम करता था, लेकिन वह बंद हो चुका है। हमारे रहने-खाने का कोई इंतजाम नहीं है। मुझे तो घर से पापा ने 800 रुपये भेजे तो उससे साइकल खरीदी और पिछले तीन दिनों से यही चला रहा हूं। पता नहीं कब पहुचूंगा। पहुंचूंगा भी या नहीं।

ऐसे कई मामले हैं, जो आपको दिखेंगे। अगर आप देखना चाहें। कोई अपनी प्रेग्नेंट पत्नी को लेकर हाइवे पर चला जा रहा है। कोई बैलगाड़ी में कभी खुद तो कभी पत्नी को एक बैल की जगह जुतते हुए घरों को लौट रहा है। कोई जुगाड़ से स्केटिंग की गाड़ी बनाकर अपनी गर्भवती पत्नी और बच्चे को उस पर ढोकर ले जा रहा है। छोटे-छोटे बच्चे इस तपती गर्मी में पैदल चले जा रहे हैं। आखिर कौन हैं ये लोग? क्यों जाना चाहते हैं?क्या वाकई इनको भागने की चुल्ल मची है?नहीं... आपको तब तक समझ नहीं आएगा, जब तक आपके अंदर दिल नहीं होगा। बस हिंदु-मुसलमान के चश्मे को उतारकर खुद को उनकी जगह रखकर देखें, तो अपनी जान की परवाह किए बिना हजारों किलोमीटर का सफर पैदल और जोखिम में कैसे काटे जा रहे हैं।

लॉकडाउन में पलायनः यह अंधा नहीं, सुप्रीम कोर्ट का धंधेबाज कानून है...

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सुप्रीम कोर्टने लॉकडाउन में प्रवासी मजूदरों की घर वापसी और हादसों में उनकी मौतों के मामले पर याचिका की सुनवाई से इनकार कर दिया। देश की सबसे बड़ी अदालत का कहना है कि अगर लोग रेलवे ट्रैक पर सो जाएंगे तो इसमें क्या किया जा सकता है? जिन्होंने पैदल चलना शुरू कर दिया है, उन्हें कोर्ट कैसे रोक सकता है?
Photo: Internet
सुप्रीम कोर्ट की यह बात पूरी तरह सही है। आखिर अदालतें कैसे रोक सकती है कि कोई पैदल क्यों जा रहा है?  इस शीर्ष अदालत का चीफ (पूर्व) जस्टिस तो उन्हीं मामलों की सुनवाई करेगा, जिसमें खुद पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा हो। मजेदार बात कि अपने ऊपर लगे आरोपों की सुनवाई के बाद जज साहब खुद के पक्ष में फैसला भी सुना देते हैं।
ऐसे में जब सुप्रीम कोर्ट कहता है कि कोर्ट के लिए यह निगरानी करना असंभव है कि कौन ट्रैक पर चल रहा है और कौन नहीं चल रहा है? सही बात है। सुप्रीम कोर्ट तो बस इस बात की निगरानी करेगा कि जब गुजरात हाईकोर्ट ने बीजेपी के एमएलए और राज्य के कानून मंत्री को अयोग्य ठहरा दिया, तो उसकी अयोग्यता के फैसले पर कैसे विराम लगाना है।

मजदूरों और बेसहारा लोगों को लेकर आखिर याचिका में क्या कहा गया था?यही न कि अदालत केंद्र सरकार से सड़कों पर चलने वाले प्रवासी मजदूरों की पहचान करने, उन्हें भोजन और रहने का ठिकाना देने के लिए कहे। लेकिन सुप्रीम कोर्ट को क्या फर्क पड़ता हैकि महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेलवे पटरियों पर सो रहे 16मजदूर मालगाड़ी की चपेट में आएं या फिर उत्तर प्रदेश के औरैया में भीषण सड़क हादसे में 24 मजदूरों की मौत हो जाए। ये मजदूर तो अपनी गलती और खुद की मर्जी से जा रहे हैं न... तो इन मजदूरों की ही जवाबदेही बनती है कि उनके साथ क्या होता हैसही बात है कि सुप्रीम कोर्ट उनके साथ क्या कर सकता है?तब तो सुप्रीम कोर्ट को लॉकडाउन को हटवा देना चाहिए। वायरस से मजदूर मरते हैं तो मरने दें। इससे पहले 31 मार्च को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि सड़कों पर अब एक भी दिहाड़ी मजदूर नहीं है। बजाय केंद्र सरकार के इस झूठ पर लताड़ लगाने के लिए कोर्ट मजदूरों को ही दोषी ठहरा रहा है। 
देशव्यापी लॉकडाउन की वजह मजदूरों के पास अब नौकरी और रहने के लिए ठिकाना नहीं है। इस वजह से हजारों मजदूर हजारों किलोमीटर दूर अपने गांवों की ओर जा रहे हैं। कोई पैदल चल रहा है, तो कोई साइकल चलाकर जा रहा है तो कोई ट्रक पर बैठकर अपने गांव जा रहा है। लेकिन जज साहब को इन मामलों पर सुनवाई से क्या मतलब?जज साहब को तो बस खास बंगले, सड़क पर आवारा पशुओं के घूमने से आपत्ति होती है, गाड़ी के शीशे पर काली फिल्म की मोटाई से दिक्कत होती है?इन सब मामलों पर सुनवाई के लिए बहुत समय है। दरअसल, मजदूरों का मामला गरीबी से जुड़ा है। इन मामलों की सुनवाई से सुप्रीम कोर्ट का कोई हित नहीं जुड़ा है। मामला जैसे ही राजनीतिक या फिर अमीरों से जुड़ा हो तो जज साहब तुरंत कुर्रसी लेकर बैठ जाएंगे और फैसला भी उनके हक में सुना देंगे। लेकिन पैदल चल रहे बेबस प्रवासी मजदूरों के हादसों की याचिका पर सुनवाई से साफ मना कर देंगे।
जज साहब को यह भी नहीं दिखता कि कोई 15 दिनों से चल रहा है। मध्य प्रदेश जाना है। बच्चे को चोट लगी है, तो खाट पर लेटा कर कंधे पर ढोते हुए उसे ले जा रहे हैं। महिला सड़कों पर बच्चे को जन्म दे रही है, कोई पैदल ही चलकर दम तोड़ दे रहा है। जज साहब को यह भी नहीं दिखता कि किसी ने पैर गंवाए तो सने कृत्रिम पांव से दोबारा चलना सीखा होगा, लेकिन क्रूर हालात इम्तिहान ले रहे हैं, अब वो पैदल परिवार के साथ शहर से घर को निकली हैतमाम मुश्किलों के बावजूद उसका हौसला टूटा नहीं है, लेकिन क्या यह सब देखने के बावजूद सरकार कहां है? सरकारों को तो छोड़िए, अदालतों को क्यों लकवा मार गया है?

कर्नाटक में बीजेपी की सरकार बनवाने और आतंकवाद के आरोपी के मामलों कीसुनवाई के लिए आधी रात में खुलने वाली देश की सबसे बड़ी अदालत आज वाकई अंधी हो गई। लॉकडाउन के बीच सुप्रीम कोर्ट दूसरे कई मामलों को लंबित करके रखता है। लेकिन, सत्ता और भाजपा से अघोषित ताल्लुक रखने वाले रिपब्लिक टीवी के मालिक और सेलिब्रिटी एंकर अर्नब गोस्वामी की याचिका को सुप्रीम कोर्ट में मामला सामने आने के चंद घंटों में ही समय दे दिया गया, जबकि प्रवासी मजदूरों के घर जाने जैसे अहम मामलों को प्राथमिकता नहीं मिली। अब प्राथमिकता तो छोड़िए, मजदूरों की याचिका को सुनने लायक भी नहीं माना।

जबकि यही सुप्रीम कोर्ट लॉकडाउन में तमिलनाडु में शराब की दुकानों को बंद करने के फैसले को पलटकर उसे खोलने का फैसला देता है। लेकिन मजदूरों की याचिका सुनने के लायक नहीं मानता। अगर हालिया कुछ फैसलों को देखें, तो कैसे सुप्रीम कोर्ट वक्त-दर-वक्त जन-विरोधी फैसले करता चला गया है और तमाम फैसले अमीरों और सरकार के पक्ष में देता गया। चाहे पटना हाई कोर्ट के फैसले को पलटने की ही बात क्यों न हो?कहां तो संविधान समानता की बात करता है और जब बिहार में स्थायी और अस्थायी शिक्षकों की सैलरी समान करने की बात आई तो सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के पक्ष में अपना दे दिया। हाल में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता रिटायर हुए हैं। इस मौके पर विदाई समारोह में उन्होंने भी खुद माना कि जब कोई किसी गरीब की आवाज उठाता है तो कोर्ट को उसे सुनना चाहिए और जो भी गरीबों के लिए किया जा सकता है वो करना चाहिए। जज ऑस्ट्रिच यानी शुतुरमुर्ग की तरह अपना सिर नहीं छिपा सकते।

(जारी...)

महंथजी की सरकार और यूपी पुलिस की लाठियों से छलकती 'मर्दानगी'

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लोग सवाल कर रहे हैं...आख़िर कोई पुलिस, जो एक इंसान भी होता है, वह इतना क्रूर और अमानवीय कैसे हो सकता है। आपको उत्तर प्रदेश पुलिस के दानवीय और राक्षसी चेहरे से रूबरू कराने वाले कुछ विडियो से रूबरू कराता हूं। फिर सोचिए यह पुलिस का काम है...या पुलिस अपनी वर्दी का धौंस दिखाकर हैवानियत पर उतर आई है, क्योंकि कोरोना वायरस की वजह से उस पर काम का दबाव ज्यादा है और ऊपर से पहले जो ऊपरी माल यानी घूस मिलता था वह मिलना बंद हो गया है, जिससे दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है। लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है, क्योंकि यही पुलिस अमीरों के घर पर उनके बच्चों के जन्मदिन के मौके पर केक लेकर जा रही है, लेकिन गरीबों के बुजुर्गों को लाठियों से मार रही है। बुजुर्गों को तो छोड़िए, उत्तर प्रदेश की पुलिस ने गरीब बच्चे को भी नहीं बख्शा है। उसके साथ इतनी हैवानियत भला क्यों? क्योंकि वह गरीब का बच्चा है... शर्म है...
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महोबा पुलिसएक बुजुर्ग की पिटाई करती हुई। अमीरों के बच्चो के लिए यही पुलिस बर्थडे में केक लेकर पहुंच रही है, जबकि गरीबों के बुजुर्गों को लाठियों से स्वागत कर रही है। यही है दोहरा चेहरा सरकार पुलिस का...हालांकि, महोबा पुलिस के ट्विटर अकाउंट से कहा है है कि इस मामले में जांच के साथ कार्रवाई की जा रही है।
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यह वीडियो उत्तर प्रदेश के नोएडा की है। महिलाएं राशन के लिए बाकायदा लाइन में लगी हैं, लेकिन पुलिस आती है और लाइन में लगी महिलाओं पर अपने पौरुष बल का प्रयोग करने लगती है। यह योगी आदित्यनाथ की पुलिस है। जहां नियमों का पालन करने वाले लोगों और महिलाओं को भी पुलिस की लाठी खानी पड़ती है। फिर से कहूंगा कि जो गरीब महिलाएं खुद बाहर आकर बेबसी में राशन ले रही हैं और वह भी लाइन में लगकर, ताकि अपने बच्चों का पेट भर सकें, उन्हें लाठी मिल रही है, जबकि कोठियों और फ्लैटों में अमीरों के घर पुलिस सरकारी गाड़ी से जन्मदिन का केक पहुंचा रही है।बहुत बहादरी का काम कर रहा महिलाओंहाथ उठाकर। बकौल पुलिस विभाग इस मामले में प्रारंभिक जांच पर घटना की सत्यता स्थापित की गई है। उपनिरीक्षक सौरभ शर्मा को तुरंत निलंबित कर, विभागीय कार्यवाही शुरू की गई है।
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यह घटना उत्तर प्रदेश के ही बरेलीकी है। एक बच्चा फल की ठेली के पास खड़ा था, क्योंकि उसके पिता नहाने गए थे। तभी पुलिस वाले आए और डंडों से ताबड़तोड़ पीटना शुरू कर दिया। मासूम बच्चे को डंडे से बेरहमी से पीटा। शायद पुलिसवालों का अमीर के घर पहुंचाने वाले बर्थडे केक खत्म हो गया था, तो बच्चे को डंडों से पीटना शुरू कर दिया।
अब बताइए भला कोई इतना क्रूर कैसे हो सकता है? क्या यह बालक भेदभाव का शिकार हुआ? एक तरफ जहां पुलिस टीम केक लेकर घर पर पहुंच रही है, क्योंकि उसका पिता लेफ्टिनेंट है। वहीं, यह बच्चा इसलिए शिकार हुआ क्योंकि इसका पिता फल का ठेला लगाता है?

कायदे से इन सभी पुलिसवालों को 15 अगस्त के दिन परमवीर चक्र देना चाहिए। गरीबों पर बहादुरी जो दिखाई है।
Note...All Video from Social Media

तो क्या ज़ी न्यूज के संपादक ने ऑफिस आने के लिए साथी पत्रकारों को धमकी दी...

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ज़ी न्यूजमें पत्रकारों को कोरोना हुआ उससे दिक्कत नहीं है। वे सभी जल्दी स्वस्थ होकर फिर से लौटें। यही दुआ है। लेकिन दिक्कत इस बात से हैं कि किस तरह से खुद को बड़ा पत्रकार कहने वाले और रामनाथ गोयनका सम्मान से सम्मानित तिहाड़ी संपादक ने अपने साथियों को धमकाया। प्रमाणिक ख़बरें है कि जब ज़ी न्यूज़ में एक के बाद 13 लोग संक्रमित पाए गए तो तिहाड़ी संपादक ने मोटिवेशनल स्पीचदिया।
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कोरोना वायरस का मामले आने के बाद सबसे ज़ी न्यूज के स्टाफ को WION बिल्डिंग में शिफ्ट किया गया। इस पर एक पत्रकार ने कथित तौर कहा, ‘क्या हम सभी तब्लीगी हैं?’ इसके बाद रामनाथ गोयनका (पता नहीं किन-किन लोगों को मिल जाता है, उन्हें भी जिन्होंने दलाली के बदले तिहाड़ की सैर कर ली हो) अवॉर्डी संपादक जी ने मोटिवेशनल स्पीचदिया और कहा, “ घबरा क्यों रहे हों? मैं भी कैरियर (कोरोना का वाहक/फैलाने वाला) हो सकता हूं। पर काम कर रहा हूं न।इसके बाद बाकियों से धमकी भरे लहजे में कहा गया, “जो लोग बहाना बनाके ऑफिस नहीं आ रहे हैं, उनको हम देख रहे हैं...कब तक नहीं आएंगे? 5, 10 या फिर 15 दिन...
अब यह तो हाल है... (और इनपुट का इंतजार...)

लॉकडाउन में पलायनः 16 दिन की बच्ची, 40 डिग्री सेल्सियस की धूप... शर्म तो नहीं ही आती होगी सरकार

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हमारे घरों में जब बच्चे का जन्म होता है, तो मां और बच्चे को कितने ख्याल से रखा जाता है यह तो मिडिल से क्लास से लेकर सोशल मीडिया वाले क्लास को भी बखूबी पता ही होगा। जब कोई महिला बच्चे को जन्म देती है,तो संवर कहे जाने वाले 15 दिन के पीरियड में मां-बच्चे को बाहर की हवा नहीं लगने दी जाती, लेकिन गरीबों पर यह भला कब से लागू होने लगा...
इंदौर में भट्ठोंपर काम करने वालीं सुमन अपनी 16 दिन की बच्ची के साथ 40 डिग्री सेल्सियस तापमान में लू के थपेड़ों के बीच पलायन कर रही हैं... फिर भी हमारे साथी कहते हैं कि इनको चुल्ल क्यों मची है भागने की... सरकारों को तो शर्म नहीं ही आती है, इंसान भी जब ऐसे लोगों के दुख और तकलीफ का मज़ाक उड़ाता है तो फिर दुनिया में बचता ही क्या है? इससे तो बेहतर है कि चौपाया ही बना रहता...

सुमन अपनी बच्ची के साथ। फोटोः ट्विटर
अब सरकारों का हाल कैसा है, यह अंदाजा लगाना चुटकी भर का खेल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को ही देख लीजिए। दावे बहुत बड़े-बड़े। खुद को मजदूर प्रेमी साबित करने की होड़ और पीआर यानी विज्ञापन पर जितना पैसा खर्च किया, उससे कम सुध भी लोगों की ले लेते तो यह हालत बेघर और जरूरतमंद मजदूरों की नहीं होती। एक तरफ कांग्रेस की तरफ से मुहैया कराई गई बसों से भेजना उन्हें मुनासिब नहीं लगा। अगर इरादा नेक न हो तो बहाने कई बनाए जा सकते हैं। वही किया गया इस पूरे मामले में। पहले 1000 बसों की लिस्ट मंगाई गई और जब आ गई तो बसों में नुक्ताचीनी। यह माना जा सकता है कि 1000 बसों में 300 से ज्यादा सही नहीं भी रहे होंगे, लेकिन बाकी की बसों से भेजने से क्या हो जाता?लेकिन दूसरे दलों से बात-बात पर राजनीति न करने की अपील करने वाली भाजपा और इसके नेता कण-कण में राजनीति की तलाश करते हैं, जैसे कि कण-कण में प्रभु श्रीराम बसे हों।
लेकिन इरादा तो कभी इन गरीबों की मदद का रहा ही नहीं। यह तस्वीर है उत्तर प्रदेश के बांदा जिले के अतर्रा की... कोरोना वायरस लॉकडाउन के दौरान फूड सब्सिडी स्कीम के तहत गरीबों को मुफ्त में एक किलो दाल दी जा रही है। चने की दाल का हाल आप खुद ही देखिए... दाल कम फफूंदी ज्यादा... इस दाल को जानवरों को भी खिलाना ज़हर के समान है और यहां उत्तर प्रदेश में महंथ जी की सरकार बड़े प्यार से ग़रीबों को खिला रही है। जितनी मेहनत बसों की फिटनेस और कागज की जांच में महंथ जी लगवाई है, काश इस दाल की हालत की भी जांच करवाकर लोगों को देते तो क्या हो जाता? लेकिन नहीं... पिसना तो दोनों ही स्थिति में गरीबों को ही है... भले वहां बसों को लेकर बहाना बनाना या फफूंदी वाली दाल खिलाना...

सरकार तो सरकार आम आदमी भी उससके प्यार में इतना अंध भक्त भला कैसे हो सकता है कि अपने जैसे लोगों की हालत भी उसे दयनीय नहीं लग रही है। कुछ लोग इस मामले में दोहरे पिच पर खेलते साफ दिख रहे हैं। इनको देश के मजदूर कोरोना के कैरियर नजर आते हैं, जबकि विदेशों से वंदे भारत मिशन के तहत जिन लोगों का बचाव करके लाया जा रहा है, उसके बारे में चूं तक करना मुनासिब नहीं समझते। ऊपर से तर्क यह कि विदेशों से आने वाले लोग अपने घर पहुंचकर नमक-रोटी का इंतजाम करने में सक्षम हैं, जबकि ये प्रवासी मजदूर घर लौटने के बाद भी सरकारी मदद के भरोसे रहेंगे। तो फिर सरकारें होती किसलिए हैं? लोगों का तर्क यह भी है कि मजदूर जहां थे, वहां ही सरकार मदद देती तो ठीक रहता। बिल्कुल ठीक रहता। लेकिन मदद करती तब तो.. आख़िर मदद मिल रही होती और जो समस्याएं इन मजदूरों के सामने हैं, उन्हें हल किया जाता, तो भला ये हजारों किलोमीटर पैदल चलक, अपने 4-5 साल के बच्चों को तेज धूप में लेकर और गर्भवती पत्नी को साथ बिठाकर क्यों ले जा रहे होते?

सवाल तो साफ है कि फिर सरकारों ने इनके लिए किया क्यों नहीं...सरकार पर सवाल उठाने के बजाय लोग मजदूरों पर ही सवाल उठा रहे हैं...सरकार अगर उनकी सोचती तो वे जाते भी क्यों...सरकार बस यही सोच रही है कि हादसे के बाद उसी ट्रक में लाश और घायलों को वापस गृह राज्य भेज दे रही है...इस पर तो बोलते नहीं देखा... अगर गलती मजदूरों की लग रही और यह भी कि मजदूर गांव जाकर कोरोना फैला रहे हैं तो गजब ही कहा जाए... फिर तो विदेशों से आने वाले क्या देश की डूबती अर्थव्यवस्था की नैया पार कराने के लिए सोना और कोरोना मरीजों के इलाज के लिए वैक्सीन लेकर आ रहे हैं...

बात यहीं तक खत्म नहीं होती?विदेशों से आने वालों के प्रति सहानुभूति कुलांचे मार रही हैं। लेकिन जान जोखिम में डालकर अपने घरों को जाने वाले मजदूरों से तीखे सवाल पूछने से बाज नहीं आते कि ये घर किसके भरोसे जा रहे हैं? बाप-दादा का खजाना गड़ा है? सहानुभूति से सत्य को नहीं झुठलाया जा सकता। इनकी मूर्खता पर संवेदना नहीं जताई जा सकती। जवाब तो साफ है कि संवेदना ऐसे लोगों से या फिर सरकार से ही कौन मांग रहा है?ये प्रवासी मजदूर तो कतई नहीं मांग रहे। हादसे में मौत के बाद लाशों और घायलों को एक ही गाड़ी से उके गृह राज्य पहुंचाने वाली सरकार से संवेदना की उम्मीद तो की भी नहीं जा सकती है। ऐसे लोगों से भी नहीं, जो 16 दिन के बच्चे के लिए आवाज़ नहीं उठाकर उसी से सवाल करते नजर आते हैं।

इन सबसे भी बड़ी बात कि क्या ऐसा नहीं है कि हमने बतौर देश इस मानवीय आपदा की घड़ी में एक वेलफेयर स्टेट की आवधारणा को पूरी तरह विफल कर दिया। यह किया है हमारे हुक्मरानों ने जो दिल्ली की गद्दी पर सत्ता के नशे में चूर हैं। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो गृह मंत्री की खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है, लोग नहीं। वक्त बदलेगा, लोग बदलेंगे।

लॉकडाउन में भूख से मरते ग़रीब, लेकिन गिद्धभोज में जुटे हैं सत्ता के सरमायेदार

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दिल्ली-जयपुर नेशनल हाइवे पर एक मजदूर भूख की वजह से मरे हुए कुत्ते का मांस खाने को मजबूर हो गया। ख़बर बस इतनी है। एक ऐसी ख़बर जिससे सरकारों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। गरीबों की आंखों के आंसू पोछने की बात कहने वाले नरेंद्र मोदी 6 साल से देश के प्रधानमंत्री हैं और उसी दिल्ली में रह रहे हैं, जहां से कुछ किलोमीटर की दूरी पर यह वाकया होता है।

देश की गरीबीदूर करने की बात कहने वाले भुखमरी तक हालात लेकर आ गए। लोकतंत्र को गाली देने वाले लोकतंत्र के मंदिर में बैठकर गिद्धभोज करने लगे। सरकारें बिल्कुल फेल हो चुकी हैं, कृपया यह तस्वीर कोई सरकारों तक पहुंचा दे। खुद को राजनीति का चाणक्य कहने वाले बस चुनावी जयचंद बन कर रह गए हैं। जब अपना घर यानी देश त्रासदी से घिरा है, तो उनकी खोजखबर भी नहीं है। चुनाव जीतना, जोड़-तोड़ की राजनीति से सत्ता हासिल करना, फर्जी राष्ट्रवाद की आड़ में हिंदू-मुसलमान की खाई पैदा करना ही चाणक्य नीति नहीं होती है। वक्त बुरा है...वक्त बदलेगा, लोग भी बदलेंगे...

Photo: YouTube/ Pradhuman Singh Naruka
दिल्ली-जयपुर हाईवे पर भूख को बर्दाश्त न करने वाली रोंगटे खड़े करने वाली तस्वीर क्या सत्ता में काबिज अंधों को नहीं दिखती। यह तस्वीर बताती है कि कोरोना वायरस को लेकर सरकार की नीतियों ने आम इंसानों को क्या बना दिया है। इंसान एक मरे हुए कुत्ते को खाने को मजबूर है। आख़िर यह सरकार किसकी है। बस अमीरों और नेताओं की, जिनकी भूख इन ग़रीबों की भूख से अलग है। ग़रीबों की भूख कुछ खाने की है, तो उनकी कुछ पाने की। गरीबों की भूख को बस रोटी चाहिए, इन नेताओं की भूख पैसा और सत्ता की मांग करती है।
इस लॉकडाउन में भूख से मौतों की घटनाएं आम हो रही हैं और अब यह नया मामला भी सरकार को अगर सोचने पर मजबूर नहीं करती है, तो सोचिए हालात कहां तक बदल गए हैं। पहली बार लॉकडाउन लागू होने के बाद से ही देश भर में लोगों को काम मिलना बंद हो गया। गरीब दिहाड़ी मजदूरों पर सबसे ज्यादा मार पड़ी। इसकी एक मिसाल यह है। घटना 31 मार्च की बिहार के भोजपुर ज़िले के आरा की है। मुसहर समुदाय से आने वाले आठ वर्षीय राकेश की मौत 26 मार्च को हो गई थी। उनकी मां का कहना है कि लॉकडाउन के चलते उनके पति का मजदूरी का काम बंद था, जिससे 24 मार्च के बाद उनके घर खाना नहीं बना था। इसके बाद 17 अप्रैल को मध्य प्रदेश में एक बुजुर्ग की भूख से मौत की खबर आई। बुजुर्ग सड़क किनारे बैठकर लोगों से मांगकर खाता था। लॉकडाउन में सब बंद हुआ तो उन्हें खाना देने वाला भी नहीं रहा। सरकारें तो दावा करत रहेंगी कि सबका ख्याल रखा जा रहा है, लेकिन किस तरह रखा जा रहा है, वह भूख से होने वाली मौतें साफ बयां कर रहे हैं।
उत्तर प्रदेश में एक 60 साल के प्रवासी कामगार की भूख से मौत हो गईयह शख्स तीन दिन पहले महाराष्ट्र से अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ यात्रा शुरू की थीपरिवार के सदस्यों का कहना था कि कई दिनों से उन्होंने खाना नहीं मिलने पर कुच नहीं खाया था। फिर एक खबर आई 19 मई को कि झारखंड में महज पांच साल की बच्ची की भूख से मौत हो गई। सरकार अमला भूख से मौतों से इनकार करने में जुट गया, लेकिन जिस परिवार ने अपनी बच्ची को खोया कोई उसकी फरियाद नहीं सुनने वाला।
अगर किसी मामले का आकलन करने के लिए सैंपल सर्वे का सहारा लिया जाता है, तो भूख से होने वाली मौतें आखिर क्या कहती हैं। सिर्फ एक क्षेत्र या राज्य ही नहीं... लॉकडाउन के बाद और सरकारी सुस्ती के बीच भूख से मौतें हर तरफ हो रही हैं। हम वैसे मामलों को ही देख-सुन या जान पा रहे हैं, जो मीडिया में आ रहे हैं। कई मामलों को दबाया जा रहा है या फिर उसे अखबारों/मीडिया तक आने से पहले ही खत्म कर दिया जा रहा है।

इकोनॉमी, कोरोना अब चीन-नेपाल, हमारा लीडर बजा रहा बस गाल

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नरेंद्र मोदी... नाम तो सुना ही होगा... देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। उनका सबसे बड़ा हथियार है, उनकी सोच। सार्थक या घातक, उसका फैसला जनता कर चुकी है। जनता से वह कुछ इस तरह पेश आते हैं, “जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे...लेकिन जनता को जो चाहिए, उसके लिए जरूरी है, वह नहीं कहते। मौजूदा समय और संकट कुछ ऐसा ही है। देश नेतृत्व संकट से गुजर रहा है, लेकिन वह जनता को अभी भी नए रैपर में राष्ट्रवाद और कांग्रेस विरोध की पुरानी टॉफी खिलाते जा रहे हैं।
अब ज़रा याद करिए भारतीय क्रिकेट का वह दौर... जब सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, राहुल द्रविड़, सदगोपन रमेश, आकाश चोपड़ा, नयन मोंगिया जैसे खिलाड़ी किसी देश के खिलाफ उतरते थे, तो कागजों पर टीम हमेशा बीस ही नजर आती थी। लेकिन मैदान में उतरते ही सारी गलतफहमी ढेर हो जाया करती थी। देश की हालत भी कुछ वैसी ही है। 56इंच के कप्तान प्रधानमंत्री से लेकर तेजतर्रार गृहमंत्री और आर्थिक मोर्चे पर आग उगलने वालीं वित्त मंत्री सीतारमण जी। बीच में कभी रोबिन सिंह ऑलराउंडर के तौर पर आए थे...

इसमें कोई शक नहीं कि आज रिपब्लिक ऑफ इंडिया यानी भारत नेतृत्व के गंभीर संकट से गुजर रहा है। देश की हालत उसी दौर के क्रिकेट की तरह हो चुकी है।

PM Modi with Chinese President. Photo: Internet
हमारे सामने अभी तीन बड़ी समस्याएं हैं। कोरोना महामारी, चीन से तनाव और आर्थिक संकट। बाकी सारी समस्याएं इनकी बाई-प्रोडक्ट हैं। हालांकि, अगर आप क्रमवार देखेंगे तो सबसे पहली समस्या आर्थिक मोर्चे पर थी। इस मोर्चे पर सरकार लगातार नाकामयाब साबित रही। जब सारे तीर-तुक्के असफल साबित हुए, तो जीडीपी से लेकर बेरोजगारी के आंकड़ों में हेरफेर से भी बाज नहीं आई। इसका चर्चा खूब हो चुकी है। इन असफलताओं के बावजूद मोदी की सरकार लगातार दूसरी बार सत्ता में आने में सफल रही। तो इस मोर्चे पर बात करना एक तरह से बेमानी या फिर जनता ही इस काबिल है कि वह सामने खाई देखकर भी उसमें छलांग लगाने को एंडवेंचर का नाम देती है।
दूसरे मोर्चे की बात करते हैं। करोनो महामारी। इस मोर्चे पर भी सरकार नोटबंदी की तरह बिना किसी तैयारी के मैदान में उतर गई। लाखों लोग सड़कों पर आ गए। पैदल ही अपने घरों को कूच करने लगे। कई जान गई, तो कई की जान ली गई। लेकिन यहां भी गलतियों से सीखने की जगह पुराने ट्रिक्स के भरोसे सरकार काम करती रही। जब कोरोना संकट हाथ फिसलने लगा, तो राज्य सरकार के मत्थे जिम्मेदारिया मढ़ी जाने लगीं। राजनीतिक रंग-रोगन में इस महामारी से सामना किया जाने लगा। पहले पश्चिम बंगाल, फिर महाराष्ट्र। हर रोज ऐसे फरमान आने लगे कि उस फरमान को समझाने के लिए एक नया फरमान जारी किया जाने लगा। यहां भी अपने सबसे मजबूत हथियार झूठ और सांप्रदायिकता से मोदी सरकार अपनी नाकामयाबी पर पैबंद लगाती दिखी। इस कोशिश में आईटी सेल और लगभग रेंग रही मीडिया ने बखूबी साथ दिया। जब भी बाजारों या धार्मिक स्थलों में भीड़ दिखती तो मुसलमान एंगल खबरों और सोशल मीडिया पर पसरा मिलता। हम इसको भी छोड़ते हैं, क्योंकि अब महामारी को लेकर दावे औऱ वादे कितने भी किए जाएं, अब सबकुछ भगवान भरोसे ही छोड़ दिया गया है। नहीं, तो टेस्टिंग, क्वांरटीन, मेडिकल साजोसामान, स्वास्थ्य-व्यवस्था के चर्चे होते न कि हिंदू-मुसलमानों के। बीजेपी राज्यों में पीपीई किट को लेकर घोटाले हुए, प्रदेश अध्यक्ष को इस्तीफा तक देना पड़ा। लेकिन, हुआ क्या? हुआ यह कि कोरोना महामारी के नाम पर कुछ गैर-बीजेपी राज्यों की सरकार गिराने की कोशिश की गई। एक राज्य में सरकार बना भी ली गई। कुछ में दूसरे दलों के विधायकों को खरीदा गया। कुल जमा यही कामयाबी है इस कोरोना के खिलाफ सरकार की लड़ाई का।

अब लौटते हैं चीन पर। न तो वहां कोई हमारी सीमा में घुसा हुआ है और न ही हमारी कोई पोस्ट किसी दूसरे के कब्जे में है।अब यह मशहूर डायलॉग तब तक गूंजता रहेगा, जब तक दुनिया रहेगी। इस पर कई सवाल उठ चुके हैं कि जब न कोई घुसा है, तो फिर 20जवान हमारे शहीद गोटियां खेलते हुए तो नहीं ही हुए। अगर किसी देश का प्रधानमंत्री इस तरह का गैर-जिम्मेदराना बयान दे, तो उस देश की सरहद की सुरक्षा भी भगवान भरोसे ही हो सकती है। इस मुद्दे पर भी ज्यादा बोलना सूरज को दिया दिखाने के बराबर है। फिर भी कुछ बातें तो की ही जा सकती है। कहां तो सरकार को मुंहतोड़ जवाब चीन को देना था, लेकिन सारी ऊर्जा और पैसा नेहरू और कांग्रेस पार्टी को जवाब देने में खर्च किया जा रहा है। जब देश के प्रधानमंत्री के बयान को ही आधार बनाकर दुश्मन देश हम पर ही आरोप लगाए, तो इससे ख़तरनाक नेतृत्व देश के लिए कुछ नहीं हो सकता है। इसमें पत्रकारों की फौज भी सरकार के बचाव में खुलेआम कूद गई है। कुछ पत्रकारों ने बाकायदा सोशल मीडिया पर लिखा इतिहास की गलतियों की सजा भविष्य को भुगतना पड़ता है। लेकिन उन्होंने तो वर्तमान को सिरे से गोल ही कर दिया। आखिर वर्तमान क्या है?, जिसकी पर्देदारी की जा रही है। कौन और कब, किस मकसद से क्या बोल रहा है? यह याद रखा जाना चाहिए। बाकी पड़ोसी देशों की जिक्र ही क्या किया जाए? नेपाल से हमारा रोजी-बेटी का संबंध आज से नहीं, बल्कि वर्षों से है। लेकिन वह लगातार भारत की ओर शत्रुता भरे कदम उठाता जा रहा है। पाकिस्तान से ताल्लुक पहले से ही खराब हैं। श्रीलंका हमारे हाथ से कब का निकल चुका है। रूस से पहले से जैसे संबंध रहे नहीं। अमेरिका में ट्रंप का बड़बोलापन कभी खुद उन्हें तो कभी उनके साथ ताल्लुक रखने वाले देश और नेताओं को बीच सड़क पर नंगा करके रख देता है।

लेकिन यहां सवाल उठता है कि आखिर हर मोर्चे पर हमारा नेतृत्व इतना विफल क्यों है?

चार मार्च 2020 की इकोनॉमिक्स टाइम्स की खबर है। खबर विदेश मंत्रालय के हवाले से लिखी गई है कि पिछले पांच साल में नरेंद्र मोदी ने बतौर प्रधानमंत्री विदेश यात्राओं पर करीब 446.52 करोड़ रुपये खर्च किए। जब किसी देश का मुखिया विदेश यात्राओं पर इतना खर्च करे, तो लगभग सारे देशों से न सही पड़ोसियों से ताल्लुक बेहतर होने की गारंटी ली ही जा सकती है। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर नाकामयाबी की कीमत आज देश को चुकानी पड़ रही है। और इसकी जिम्मेदारी आईटी सेल और बिकाऊ मीडिया के जरिए उसी नेहरू और कांग्रेस पार्टी पर डाली जा रही है, जिसकी बदौलत मोदी सत्ता में हैं।

भारत-पाकिस्तान... दो मुल्क, पर राजनीति एक!

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पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान... इस पाकिस्तान की कोई बात नहीं करना चाहता। चाहता भी है, तो बस तोप-बंदूकों की जुबान में। कोई पाकिस्तान की बर्बादी का जश्न मनाना चाहता है, तो कोई पाकिस्तान का नाम भर लेकर ही हिंदुस्तान में राष्ट्रवाद की अलख जगाना चाहता है। उसका नाम लेकर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के सिवा पाकिस्तान से उसका कोई और राब्ता नहीं।

कमोबेश यही हालात सरहद के उस ओर भी हों! यहां के हुक्मरानों की तरह वहां भी सत्तानशीं के लिए हिंदुस्तान की फिक्र बस इसलिए होती है कि पावर पॉलिटिक्स में कहीं से कमजोर न नजर आएं। उनके ख्यालों में जनता हमेशा से इन सबके बाद की प्राथमिकताओं में रही है, अगर रही भी है तो! 
Photo: Internet
डॉन वेबसाइट के मुताबिक, पाकिस्तान में कोरोना वायरस के कुल मामले तकरीबन दो लाख के आंकड़े तक पहुंच चुकी है। चार हजार से ज्यादा की मौत हो चुकी है। हिंदुस्तान में यही संख्या पांच लाख से अधिक है और यहां 15हजार से ज्यादा लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। सीमा के दोनों तरफ आर्थिक हालात किसी से छिपी नहीं है। पाकिस्तान की थोड़ी ज्यादा खस्ती होगी। लेकिन दोनों मुल्कों में राजनीति अजीब ही करवट ले रही है।
वरिष्ठ पाकिस्तानी कॉलमनिस्ट खालिद अहमद इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि जब इमरान खान ने 2018में देश की बागडोर संभाली तो अर्थव्यवस्था की हालत बहुत ही खराब थी। उन्हें विरासत में मिली इस खस्ताहाल अर्थव्यवस्था से निपटने की चुनौती मिली। लेकिन इमरान के करिश्मा यानी उनकी पर्सनैलिटी से उनकी चुनौती और कई गुना बढ़ गई। वह एक तेज गेंदबाज की तरह आक्रामक थे, बतौर कप्तान काम पूरी तरह खत्म करना चाहते थे, लेकिन राजनीति समझौतों और वक्त के साथ तालमेल बिठाने का नाम है। आज लगभग दो साल बाद भी हालात कम नहीं हुए हैं। विपक्ष कहीं दिख नहीं रहा है, लेकिन कोरोना वायरस महामारी और टिड्डियों के हमले से उनकी पार्टी पाकिस्तान-तहरीके-इंसाफ जबरदस्त दबाव में है। अंदरखाने पार्टी में सिरफुटौव्वल चल रहा है। कई मंत्रियों के विभाग छीने जा रहे हैं, तो कई को सख्त निर्देश दिए जा रहे हैं। फवाद चौधरी के नाम से सभी वाकिफ हैं। पहले सूचना मंत्री थे, लेकिन ओहदा छीन लिया गया और साइंस एंड टेक्नॉलजी मंत्रालय की जिम्मेदारी दे दी गई। उनके बिना सुरताल की बोली ने इमरान की छवि बहुत खराब की है। इमरान की दो सबसे बड़ी ताकते हैं उनकी दोनों विपक्षी पार्टियां- पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी)। लेकिन सेना और नेशनल अकांउटबिलिटी बिल (नैब) की वजह से पूरे परिदृश्य से नदारद हैं।
अब हिंदुस्तान लौटते हैं। हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी ताकत क्या है? सोचिए... कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार। महात्मा गांधी नहीं, गांधी परिवार मतलब नेहरू, सोनिया और राहुल गांधी। जब भी कोई संकट या समस्या आती है तो क्या हमारे देश के प्रधानमंत्री नेहरू और गांदी परिवार पर हमला बोलना शुरू नहीं करते। क्या बीजेपी नेहरू और गांधी परिवार के पीछे नहीं पड़ जाती है? हालिया उदाहरण ही ले लीजिए। चीन से सीमा विवाद चरम पर है। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर सारे प्रवक्ता तक नेहरू-गांधी परिवार के पीछे नहीं पड़ गए हैं। अब गांधी परिवार ने 45साल से ज्यादा वक्त तक देश पर शासन किया है तो जनता का मिजाज भी उनसे खफा-खफा है। वह पिछले छह साल से सत्ता में काबिज बीजेपी सरकार की जगह अब भी विपक्ष से ही सारे सवालों के जवाब की उम्मीद करती है। या ऐसा कहें कि जनता के दिमाग को इस तरह फीड कर दिया गया है कि वह सरकार से सवाल पूछने की हिमाकत ही नहीं कर सकती।

इसकी मिसाल यह है कि जब चीन हम पर बार-बार चढ़ रहा है, तो प्रधानमंत्री से लेकर बीजेपी के सारे आला नेता उसे जवाब देने की जगह नेहरू-गांधी परिवार का झुनझुना जनता के अहं को संतुष्ट करने के लिए बेच रही है। सरेआम झूठ बेचा जा रहा है। प्रधानमंत्री जी सर्वदलीय बैठक में कहते हैं कि लद्दाख में झड़प हुई। हमारे 20जवान शहीद हो गए, लेकिन कोई हमारी सीमा में घुसा ही नहीं। बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा कहते हैं कि मौजूदा समस्या की जिम्मेदारी नेहरू की है। बीजेपी अध्यक्ष कहते हैं कि एक परिवार की गलतियों के कारण 43हजार स्क्वेयर किलोमीटर (यह कितना सही है कोई फैक्ट चेकर ही बताए) भूमि चली गई। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन से 90लाख की फंडिंग की गई। लद्दाख से बीजेपी सांसद जमयांग सेरिंग नामग्याल का मानना है कि कांग्रेस के शासन में चीन ने डेमचोक सेक्टर के उसके इलाके तक कब्जा कर लिया।मतलब चीन ने भारत से जंग जैसे हालात छेड़ रखे हैं और सारी लड़ाई कांग्रेस के खिलाफ लड़ी जा रही है।

पाकिस्तान में इमरान खान देश की बर्बाद होती अर्थव्यवस्था पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। आतंकवाद को शह देने के कारण अबी एफएटीएफ की लिस्ट में वह बना हुआ है। बिजली संकट सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है, जिससे उद्योग धंधे चौपट हो रहे हैं। पिछले महीने पाकिस्तान में एक विमान हादसे में 97 लोगों की जान चली गई, तो पता चला कि यह किसी तकनीकी खामी नहीं, बल्कि पायलट आपस में कोरोना महामारी की चर्चा कर रहे थे। इस कारण वह विमान संभाल नहीं पाए और हादसा हो गया। फिर पता चला कि पाकिस्तान का हर तीसरा पायलट फर्जी डिग्री और लाइसेंस लेकर फ्लाइट उड़ा रहा है। आसमान में विमान उड़ाते हुए पायलट कोरोना की चर्चा कर रहे हैं, लेकिन पाकिस्तान का प्रधानमंत्री कोरोना के मामले में खामोश हैं। वह पाकिस्तानी असेंबली में बोलते भी हैं, तो ओसामा बिन लादेन को शहीद तक बता जाते हैं। कश्मीर पर बाज नहीं आते।

यह कुछ ऐसा मसला है कि जनता भूखे मर जाएगी, लेकिन इन मुद्दों पर सरकार से सवाल नहीं करेगी। ठीक उसी तरह जैसे हिंदुस्तान में जनता राष्ट्रवाद और विपक्ष का नाम आते ही मोदी सरकार के खिलाफ सवालों को सुनने से पहले कान बंद कर लेती है। आखिर पाकिस्तान हमारा पड़ोसी देश ही तो है। 1947 से पहले तो हमारा ही हिस्सा था। क्या हुआ जो दो अलग-अलग मुल्क बन गए। एक ही परिवार को दो भाई भी अलग होता ही है, लेकिन इस अलगाव या बंटवारे के बावजूद दोनों की फितरत तो वही रहती है। पाकिस्तान-हिंदुस्तान की भी यही हालत है। दोनों मुल्कों के नेताओं की नब्ज भी वही है।

गृह राज्य मंत्री का बेटा... जज साहेब अदालतें मंदिर की घंटी बन चुकी हैं...

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देश की न्याय व्यवस्था मंदिर के घंटे की तरह हो गई है। कोई भी आ रहा है और बजाकर चला जा रहा है। मंदिर के घंटे को बजाने का भी एक तय समय होता है, लेकिन न्याय व्यवस्था के साथ जिस तरह घंटी बजाई जा रही है, उसका को नियत समय नहीं है। देश के गृह राज्य मंत्री के बेटे से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर तक इस सिस्टम की घंटी नहीं, बैंड बजा रहे हैं। बस उम्मीद सिर्फ आम जनता, दबे-कुचले लोगों, जिनके पास दौलत नहीं है, प्रभावशाली नहीं है, उनसे की जाती है कि वे देश के तमाम कायदे-कानून को सर पर बिठाकर रखें। हालिया घटनाक्रम ने इस मीडिया, न्यायिक, पुलिसिया और राजनीतिक सिस्टम में भरोसे को खाई में ही धकेलने का काम किया है।

बॉलिवुड के बादशाह शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान इन दिनों मुंबई के ऑर्थर रोडजेल में बंद हैं। अदालत ने आर्यन को 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में भेजा है।मामला क्रूज रेव पार्टी से जुड़ा है। शनिवार को कुल 18 लोग गिरफ्तार हो चुके हैं। आर्यन खान के वकील ने मैजिस्ट्रेट कोर्ट में जमानत की अर्जी दी। खारिज हो गई। शनिवार को वकील ने सेशन कोर्ट का रुख किया। मामला खींचेगा। इस बीच, समझने की बात है कि शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान के पास से किसी भी तरह का ड्रग्स नहीं मिला है। एनसीबी के हवाले से कई मीडिया संस्थान खबरें चला रहे हैं कि आर्यन ने माना है कि ड्रग्स का सेवन किया। जमानत पर सुनवाई के दौरान कोर्ट में आर्यन के वकील ने मैजिस्ट्रेट को बताया कि आर्यन खान ने ड्रग्स को लेकर अपना ब्लड टेस्ट देने का प्रस्ताव दिया था, लेकिन एनसीबी के अधिकारियों ने सैंपल लेने से मना कर दिया। दो बातें साफ हैं...1. आर्यन खान के पास से ड्रग्स नहीं मिला। 2. सेवन का शक था, तो एनसीबी ने मेडिकल क्यों नहीं कराया यानी यहां भी आर्यन से कुछ हासिल नहीं हुआ।
अब चलते हैं उत्तर प्रदेश के लखमीपुर खीरी। यहां केंद्रीय गृह राज्य मंत्री के बेटे पर चार किसानों पर खुलेआम जीप चढ़ा देने का आरोप है। मंत्री जी बेटे का बचाव करते रहे। आरोपी बेटा अपना बचाव करता है। हक है, करिए। लेकिन हत्या के आरोपी की गिरफ्तारी कब होती है। सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा,
क्या हत्या के दूसरे के मामले में पुलिस इसी तरह मंत्री जी के बेटे की तरह नोटिस भेजकर बुलाती।दुनिया जानती ही कि अगर आम आदमी छोटा-मोटा अपराध कर दे, तो हवालात की हवा खाने तुरंत भेज दिया जाता है। यहां मंत्री जी के बेटे की आवभगत होती रही। हत्या के आरोपी को 5-6 दिनों के बाद गिरफ्तार किया गया। मंत्री जी के बेटे को भी 14 दिनों के न्यायिक हिरासत में भेजा गया। आर्यन खान के पास से ड्रग्स बरामद भी नहीं हुआ, फिर भी पहले वह दो-तीन दिनों तक एनसीबी की हिरासत में रहा। फिर 14 दिनों की न्यायिक हिरासत में। यहां मंत्री जी का बेटा, चार लोगों पर गाड़ी चढ़ाने के चार दिन बाद तक मौज करते रहे, फिर 10 घंटे पूछताछ हुई। फिर गिरफ्तारी के बाद अरेस्ट किया गया। दूसरी बात यह कि जिसके पास से ड्रग्स तक बरामद नहीं हुआ, न सेवन का पता करने के लिए मेडिकल कराया गया। उधर, गुजरात के अडानी मुंद्रा पोर्ट से 3000 किलोग्राम की हेरोइन बरामद हुई। इस मामले में एनसीबी की सक्रियता किसी मुर्दा की तरह नजर आती है।

एनसीबी का कहना है कि आर्यन खान के वॉट्सऐप चैट से पता चलता है कि मुमकिन है कि वह नियमित तौर पर ड्रग्स का सेवन करता हो। यानी एनसीबी कंफर्म नहीं है। आर्यन के वकील ने कहा कि फुटबॉल के बारे में चैट है। एनसीबी का यह भी कहना है कि यह संभव है कि गिरफ्तार लोगों के तार जुड़े हो और उन्होंने पार्टी में शामिल होने की योजना बनाई। इससे आर्यन खान ने इनकार किया। एनसीबी का बड़ा दावा है कि आर्यन खान एक प्रभावशाली परिवार से हैं। अगर उन्हें जमानत पर छोड़ा गया तो वह सबूतों से छेड़छाड़ कर सकते हैं। बिल्कुल सही बात है कि आर्यन एक प्रभावशाली परिवार से ताल्लुक रखता है, तो क्या मंत्री जी का बेटा किसी चरवाहे के घर का है, जिसके पास फूस का घर है औऱ वह किसी सबूत से छेड़छाड़ नहीं कर सकता। इसीलिए पुलिस उसे चार-पांच दिनों तक छुट्टा छोड़े रखती है। फिर पूछताछ के लिए आने के लिए नोटिस भेजती है। जरा सोचिए, क्या आपको इस तरह की छूट मिलती? हत्या का आरोप ही छोड़िए, किसी की गाड़ी का एक्सिडेंट ही हो जाता और गलती से कोई जख्मी हो जाता तो भी इतनी रियायत आपको मिलती क्या?यहां मंत्री जी का बेटा पुलिस के नोटिस भेजने के एक दिन बाद तब आता है, जब मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचता है। सुप्रीम कोर्ट जैसा कि इस तरह के मामलों में रिवाज है, सख्त टिप्पणी के बाद मामले को लंबे समय के लिए बोरिया-बिस्तर में डाल देता है। पेगासस जासूसी वाले में जिस-जिस दिन सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई, अखबारों के पहले पन्ने पर हेडिंग बनी खबर। लेकिन अब उस मामले का क्या हुआ? इसी तरह लखीमपुर खीरी मामले में एक दिन की सुनवाई के बाद जज साहेब लोग छुट्टी पर चले गए और सुनवाई छुट्टियों के बाद करेंगे। जनता की जिंदगी की कीमत का फैसला छुट्टियों के बाद होगा।





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